चुनाव आयुक्तों बारे सुप्रीम कोर्ट के फैसले से मज़बूत होगा लोकतंत्र 

सुप्रीम कोर्ट ने हाल में मुख्य चुनाव आयुक्त और आयुक्तों की नियुक्ति तथा अडानी हिंडनबर्ग मामलें में जो फैसले सुनाए है उसके दूरगामी और देशहित के परिणाम सामने आएंगे। निश्चित तौर से हिंडनबर्ग का मामला सरकार की प्रतिष्ठा से जुड़ा है। भारत की तेज़ी से उभरती अर्थ-व्यवस्था चीन जैसे राष्टों के लिए किरकिरी, ईष्या का पर्याय साबित हो रही थी। ऐसे में हिंडनबर्ग की रिपोर्ट पर एकाएक विश्वास कर लेना उचित नहीं था। एक रिपोर्ट के आधार पर देश-विदेश तक लगभग हर क्षेत्र में भारी भरकम निवेश कर इंफ्रास्टै्रक्चर खड़ा करने वाली अडानी फर्म के कितने व्यापारिक विरोधी हैं, इसकी गिनती भी नहीं होगी। ऐसे में प्रतिस्पर्धा की दौड़ में अगर साज़िशन यह रिपेर्ट तैयार कर अडानी और भारतीय अर्थ-व्यवस्था को चोट पहुंचाने की कोशिश की गई हो तो इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। इस तरह के तमाम पहलुओं और विपक्ष की तमाम याचिकाओं के बाद सुप्रीम कोर्ट का जो निर्णय आया है, वह वाकई स्पष्ट नज़रिया है। सुप्रीम कोर्ट ने जिस तरह से समिति गठित कर मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति का निर्णय लिया है, उससे चुनाव आयुक्त की नियुक्ति में पारदर्शिता रहेगी। भारत एक लोकतांतिक देश है जिसके लोकतंत्र की पूरे विश्व में चर्चा होती है। ऐसे देश के चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया में अब तक पैदा होने वाले संशय को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने अहम निर्णय लिया है। 
निश्चित तौर सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रक्रिया पर जो ऐतिहासिक फैसला दिया, वह निश्चित रूप से देश में लोकतंत्र की जड़ों को मज़बूत करने वाला है। इस फैसले ने पिछले सात दशकों से चले आ रहे उस शून्य को भरा है, जो संसद के समय पर उपयुक्त पहल न करने की वजह से बना हुआ था। जैसा कि फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि संविधान निर्माताओं को उम्मीद थी कि देश की संसद कानून बनाकर मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति की एक उचित प्रक्रिया निर्धारित कर देगी। मगर सत्तारूढ़ पार्टियां संभवत: अपने हाथ से यह ताकत निकलने देना नहीं चाहती थीं और उनके प्रभाव में संसद अपनी इस ज़िम्मेदारी को पूरा करने से परहेज़ करती रहीं। यही वजह है कि 1990 में एक बार जब राज्यसभा में इस आशय का संविधान संशोधन विधेयक पेश किया भी गया तो बात नहीं बनी। चार साल तक ठंडे बस्ते में पड़े रहने के बाद यह विधेयक चुपचाप वापस ले लिया गया। इसके बाद 2015 में लॉ कमिशन ने भी मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति के लिए प्रधानमंत्री, नेता प्रतिपक्ष और सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की सदस्यता वाली एक समिति बनाने की सिफारिश की थी, लेकिन इसका भी कोई नतीजा नहीं निकला। हालांकि मुख्य चुनाव आयुक्त की सरकार द्वारा नियुक्ति की अब तक की प्रक्रिया में साफ  तौर पर हितों का टकराव था। चुनाव आयोग देश में मतदाता सूची तैयार कराने से लेकर चुनाव संचालित कराने तक की ज़िम्मेदारी निभाता है, जिससे सत्तारूढ़ पार्टी का हित-अहित भी जुड़ा होता है। इसलिए कायदे से सरकार यानी कार्यपालिका को मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से दूरी बनाए रखनी चाहिए। यह न केवल निष्पक्ष चुनाव कराने बल्कि खुद चुनाव आयोग की विश्वसनीयता सुनिश्चित करने के लिए भी ज़रूरी है। इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में लॉ कमिशन की सिफारिशों के अनुरूप ही मुख्य चुनाव आयुक्त और चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की नई प्रक्रिया निर्धारित कर दी। कोर्ट ने संदेह की कोई गुंजाइश न रखते हुए यह भी कहा कि अगर नेता प्रतिपक्ष उपलब्ध न हो तो सदन में विपक्ष के सबसे बड़े दल के नेता को इस समिति में शामिल किया जाना चाहिए। इसके साथ ही सुप्रीम कोर्ट ने यह भी ध्यान रखा कि चुनाव आयोग को पैसों के लिए सरकार का मोहताज न होना पड़े। आयोग के लिए बजट की अलग और स्वतंत्र व्यवस्था करना निश्चित रूप से सरकार पर उसकी निर्भरता कम करेगा। हालांकि व्यवहार में इन सबका कैसा और कितना असर होता है, यह तभी पता चलेगा जब यह प्रक्रिया लागू होगी।
हिंडनबर्ग रिपोर्ट से उत्पन्न मुद्दे पर सुप्रीम कोर्ट ने विशेषज्ञ कमेटी का गठन किया। सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति ए.एम. सप्रे इस समिति के अध्यक्ष बने। सुप्रीम कोर्ट निवेशकों की सुरक्षा के लिए नियामक तंत्र से संबंधित समिति के गठन पर हिंडनबर्ग रिपोर्ट से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी। सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि समिति स्थिति का समग्र आंकलन करेगी और निवेशकों को जागरूक करने के उपाय सुझाएगी। विशेषज्ञ कमेटी में सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति ए.एम. सप्रे के साथ ही ओ.पी. भट्ट, के.वी. कामथ, नंदन नीलेकणि, जस्टिस देवधर और सोमशेखर सुंदरेसन शामिल हैं। सेबी और जांच एजेंसियां विशेषज्ञ पैनल का समर्थन करेंगी। सर्वोच्च न्यायालय ने हालिया शेयर मामले की जांच के लिए समिति गठित करने का आदेश दिया है। कमेटी शेयर बाज़ार में आई गिरावट के कारणों की जांच करेगी और भविष्य के लिए सुझाव देगी। गौतम अडानी ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत करते हुए एक ट्वीट शेयर किया। उन्होंने ट्वीट में कहा, ‘अडानी समूह माननीय सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का स्वागत करता है। यह समयबद्ध तरीके से अंतिम रूप लाएगा और सत्य की जीत होगी। सर्वोच्च न्यायालय ने 17 फरवरी को अपने आदेश को सुरक्षित रखते हुए अडानी-हिंडनबर्ग मामले में केन्द्र द्वारा सीलबंद कवर सुझाव को मानने से इन्कार कर दिया था। मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सुनावई के दौरान कहा था कि वह सीलबंद कवर के सुझाव को स्वीकार नहीं करेंगे क्योंकि वह पूरी पारदर्शिता चाहते हैं। दरअसल पिछले महीने अडानी समूह की कम्पनियों के शेयर की कीमतों में भारी गिरावट आई थी। गत 24 जनवरी की हिंडनबर्ग रिपोर्ट में समूह द्वारा स्टॉक में हेरफेर और धोखाधड़ी का आरोप लगाया गया था।
 हालांकि, अडानी समूह ने 29 जनवरी को 413 पन्नों की एक लम्बी रिपोर्ट में हिंडनबर्ग रिसर्च रिपोर्ट किसी को विशिष्ट कम्पनी पर हमला नहीं, बल्कि भारत की विकास गाथा पर हमला बताया था। सुप्रीम कोर्ट के इन दोनों फैसलों को अगर आम आदमी की नज़र से देखा जाए तो इन दोनों फैसलों में सरकार, देश और आम जन-मानस का हित, सम्मान और विश्वसनीयता सुरक्षित रहेगी।