अंतहीन हैं राजनीति में साज़िशों की कहानियां

जिन दिनों में राहुल गांधी ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की चर्चा अपने चरम पर थी, उन दिनों तीन और घटनाएं हुई थीं। गौतम अडानी के खिलाफ हिंडेनबर्ग रिपोर्ट आई थी, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा फैसला दिया था जिससे सरकार की कुछ किरकिरी होती थी और बीबीसी की मोदी विरोधी डॉक्यूमेंट्री रिलीज़ हुई थी। इन चारों घटनाओं को जोड़ कर पत्रकार हल्कों में खुसफुसाहट हो रही थी कि अंतर्राष्ट्रीय ताकतों ने मोदी के खिलाफ एक ‘नैरेटिव’ (प्रवचन) तैयार कर लिया है और इसीलिए एक साथ इतनी घटनाएं सरकार को विपरीत घटित हो रही हैं। कुल मिला कर चाहे सरकार के विपरीत खड़े समीक्षक हों या सरकार को हमदर्दी से देखने वाले समीक्षक हों— सभी का मन कर रहा था कि इस खुसफुसाहट पर यकीन कर लें। ज़ाहिर है कि आज यह बात कोई नहीं कह रहा है।
डॉक्युमेंटरी पर प्रतिबंध लग चुका है। उसका हल्लागुल्ला भी खत्म हो गया है। अडानी प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट ने कमेटी बना दी है। संसद में इस सवाल पर विपक्ष और सरकार के बीच युद्ध जारी है। ‘भारत जोड़ो यात्रा’ धीरे-धीरे लोगों की याद से मिटती जा रही है। सुप्रीम कोर्ट पहले की तरह अपना काम करने में लगा हुआ है। चार घटनाओं को जोड़ कर जिसे एक साज़िश का रूप दिया गया था, वह अब किसी की ज़ुबान पर नहीं है। मनगढ़ंत साज़िशों के ज़रिये राजनीति की समीक्षा करने का यह कोई नया उदाहरण नहीं था। इस तरह की ‘कांसपिरेसी थियरीज़’ आये दिन हमारे कानों में पड़ती रहती हैं। एक तरह से ये राजनीति के काले बाज़ार की नुमाइंदगी करती हैं। इन्हें कौन गढता है? किसी को नहीं पता। 
जिस तरह से टी.वी. सीरियलों की प्रोग्राम समीक्षा का एक नाम ‘सास, बहू और साज़िश’ है, उसी तरह से राजनीतिक समीक्षा का एक काफी लोकप्रिय पहलू साज़िश का चश्मा लगाकर नेताओं, पार्टियों और राजनतिक घटनाक्रम की समझ बनाने से जुड़ा है। कोई कभी भी आपके कान में फुसफुसा कर कह सकता है कि अमुक नेता अमुक की जड़ काटने में लगा हुआ है। अगर आप इस खबर का प्रमाण मांगेंगे तो बदले में केवल एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट मिलेगी। फलाने ने फलाने को ज़मीन पर लाने की ठान ली है। साज़िश के चश्मे से देखने पर देश में हो रही हर घटना में विदेशी हाथ दिखाई पड़ सकता है। एक ज़माने में न जाने कितने नेताओं, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों और संगठनों को या तो सी.आई.ए. का एजेंट कहा जाता था या फिर के.जी.बी. का एजेंट। वह शीतयुद्ध का युग था, और ऐसा कहने के लिए किसी को सबूत देने की ज़रूरत नहीं होती थी। कहने वाला इस अंदाज़ से बोलता था कि जैसे कि उसने संबंधित नेता या बुद्धिजीवी को अपनी आंखों से लैंगले स्थित सी.आई.ए. के दफतर में षड़यंत्रकारी बातें करते हुए देखा है। यही कारण है कि इस रवैये की आलोचना करने के लिए पीलू मोदी को अपने गले में एक तख्ती लटका कर संसद में आना पड़ा था। तख्ती पर लिखा था— ‘मैं सी.आई.ए. का एजेंट हूँ।’ यह कहा जा सकता है कि शेयर बाज़ार एक बार ठंडा पड़ सकता है, लेकिन ‘कांसपिरेसी थियरी’ का बाज़ार कभी ठंडा नहीं पड़ सकता। हाल ही में भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता हरीश खुराना ने एक बयान देकर साज़िशों के इस बाज़ार को नये सिरे से गर्म कर दिया है। जैसे ही दिल्ली के पूर्व-उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया का बंगला नयी शिक्षा मंत्री आतिशी को आबंटित हुआ, वैसे ही उन्होंने अंदेशा व्यक्त कर दिया कि कहीं अरविंद केजरीवाल अपने प्रमुख सहयोगी से पल्ला छुड़ाने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं। बस, फिर क्या था। मीडिया इसे ले उड़ा और इस कयास में हकीकत के काल्पनिक रंग भरे जाने लगे। अगर षड़यंत्र-सिद्धांत को दरकिनार कर दिया जाए तो इस घटना को इस तरह से भी समझा जा सकता था कि जिस शिक्षा विभाग का कामकाज देखने की ज़रूरतों के तहत मनीष को यह बंगला मिला था, उन्हीं ज़रूरतों के तहत इसे नये शिक्षा मंत्री को आबंटित किया जा रहा है। ध्यान रहे कि दिल्ली में सत्ता से वंचित हो जाने वाले नेता सालों-साल बंगला आदि की उन्हीं सुविधाओं को भोगते रहते हैं। इसके कई उदाहरण हैं। बजाय इसके कि इसकी तारीफ की जाती, इसमें साज़िश का कोण ढूँढ लिया गया। 
बहरहाल, यह कोई पहली बार नहीं हुआ है। एक राजनीतिक समीक्षक के रूप में मैं न जाने कब से इस तरह की फुसफुसाहटें सुन रहा हूँ कि अमित शाह, नरेंद्र मोदी को धोखा देने वाले हैं या नरेंद्र मोदी का माथा अमित शाह के बढ़ते हुए रुतबे से ठनक गया है। मैंने तो यह भी सुना है कि उ.प्र. के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ और अमित शाह के बीच छत्तीस का आंकड़ा बन चुका है। मुझे यह भी बताया गया है कि सरकार के कई कदमों के पीछे अमरीका या अन्य अंतर्राष्ट्रीय ताकतों का हाथ है। मैंने कभी इन बातों पर यकीन नहीं किया। न ही मैं अपनी समीक्षा में इन्हें कोई प्राथमिकता देता हूँ। दरअसल, यह सब दिम़ाग पर ज़ोर डालने से बचने की कोशिश के सिवाये कुछ और नहीं है। मेरा मानना रहा है कि राजनीतिक यथार्थ तक पहुँचना है तो सामाजिक और राजनीतिक शक्तियों के बनते-बिगड़ते संतुलन पर निगाह रखी जानी चाहिए। ‘कांसपिरेसी थियरी’ केवल थोड़ी देर के लिए आपका मनोरंजन कर सकती है और कुछ नहीं। यह बात सही है कि साज़िशें राजे-महाराजाओं के ज़माने में निर्णायक भूमिका अदा करती थीं। आज के ज़माने में वे केवल उर्वर दिमागों की उपज रह गई हैं। हाँ, यह बात ज़रूर है कि राजनीति को किसी ़खास दिशा में ले जाने के लिए चतुराईपूर्वक स्पिन-डॉक्टरी ज़रूर की जाती है। लेकिन, उसे पहचाना जा सकता है और उसकी काट की जा सकती है। स्पिन-डॉक्टरी राजनीतिक हथकंडे का नाम है। उसे साज़िश से अलग समझा जाना चाहिए। इन साज़िशों की बातों पर जाएं तो संघ न जाने कब से मोदी को गिराने का षड़यंत्र कर रहा है। इसी तरह राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के बीच मतभेदों की ़खबरें न जाने कितनी बार उड़ाई जा चुकी हैं। जब प्रियंका गांधी राजनीति में खुल कर नहीं आई थीं तो यही कहा जाता था कि राहुल गांधी उन्हें नहीं आने दे रहे हैं। जब प्रियंका राजनीति में आ चुकी हैं तो अब इस बात को कोई याद नहीं कर रहा है।
इसी तरह एक बहुत बड़ी ‘कांसपिरेसी थियरी’ ई.वी.एम. हैक करने के अंदेशों की है। चुनाव आयोग को इससे टकराना पड़ा है। लेकिन इसका अंत होते हुए नहीं दिखाई देता। मेरा ख्याल है कि यह भी भाजपा की जीत के सामाजिक-राजनीतिक कारणों का विश्लेषण न कर पाने में विफलता का परिणाम है। राजनीति के आसमान में साज़िश उसी तरह से प्रगट होती है जैसे कभी अंतरिक्ष में उड़न तश्तरियां प्रगट होती थीं, न उड़न तश्तरियों का कोई प्रमाण मिला, न ही इन राजनीतिक साज़िशों का। याद रखना चाहिए कि साजिश के चश्मे से राजनीति को देखने वाले हमेशा गलत आकलनों तक पहुँचते हैं। 


लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।