बेहतर समाज के लिए अजन्मे बच्चों के अधिकारों को भी मिले महत्व 

 

शिशु के गर्भ में रहने अर्थात् उसके जन्म लेने तक उसके अधिकार हैं, यह हमारे देशवासियों के लिए कुछ अटपटा हो सकता है लेकिन असामान्य या बेतुका कतई नहीं है। बहुत-से देशों में इसके लिए कानून भी हैं। इसके साथ ही उन्हें तरोताज़ा बनाए रखने के लिए प्रतिवर्ष 25 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर गर्भ में पल रहे शिशु के लिए विशेष दिवस मनाए जाने की परम्परा है।  देखा जाए तो यह केवल अजन्मे बच्चे के अधिकारों की बात नहीं है बल्कि उस माँ के अधिकारों का रक्षण है जो उसे नौ महीने तक अपने गर्भ में रखकर उसका पालन पोषण करती है।
इस बात की गंभीरता को समझने के लिए कुछ उदाहरण देने आवश्यक हैं। हम चाहे अपने को कितना ही पढ़ा लिखा और आधुनिक कहें लेकिन जब यह बात आती है कि कन्या की जगह पुत्र ही होना चाहिए तो यह हमारे लिए बहुत सामान्य-सी इच्छा है। अजन्मे बच्चे के अधिकारों का शोषण यहीं से शुरू हो जाता है। यह पता चलते ही कि गर्भ में कन्या है तो गांव का परिवार हो या शहर का, मन में उदासी छा जाती है। इस स्थिति में गर्भावस्था में सही देखभाल करने के स्थान पर भ्रूण हत्या करवाने के बारे में सोचा जाने लगता है। अब यह कानून सम्मत तो है नहीं, इसलिए चोरी छिपे गर्भपात कराने का इंतजाम कर लिया जाता है।
अजन्मे बच्चे का पारिवारिक सम्पत्ति में जन्मसिद्ध कानूनी अधिकार है, इसलिए भी भ्रूण हत्या होती है और यह परिवार की परम्परा है कि केवल लड़कों को ही उत्तराधिकारी माना जाएगा, इसलिए अगर गर्भ में कन्या है तो उसे जन्म ही क्यों लेने दिया जाए, यह मानसिकता हमारे संस्कार हमें देते हैं। जहां अल्ट्रासाउंड जैसी तकनीक से यह जाना जा सकता है कि गर्भस्थ जीव में कोई विकृति तो नहीं और यदि है तो गर्भपात का सहारा लेना ठीक भी है और कानून के मुताबिक भी, तो फिर इसकी बजाए इस बात को क्यों प्राथमिकता दी जाती है कि कन्या अगर गर्भ में है तो उसे इस प्रावधान का सहारा लेते हुए उसे जन्म न लेने दिया जाए।
अजन्मे शिशु का एक अधिकार यह भी है कि उसका सही ढंग से विकास होने के लिए गर्भावस्था के दौरान और प्रसव से पूर्व तक वे सब उपचार और सुविधाएं मिलें जो उसे इस संसार में स्वस्थ रूप में आने का रास्ता प्रशस्त कर सकें। इस कड़ी में माता का निरन्तर मेडिकल चेकअप, निर्धारित समय पर टीकाकरण और पौष्टिक भोजन तथा जन्म लेने से पहले एक सुरक्षित वातावरण जिससे न केवल मां उसे जन्म देने के लिए तैयार हो, बल्कि शिशु भी हृष्ट-पुष्ट अवस्था में जन्म ले।
जो साधन सम्पन्न हैं उनके लिए ये सब करने में कोई समस्या नहीं है लेकिन गांव-देहात, दूरदराज के क्षेत्रों, विभिन्न कामों में लगी मज़दूर औरतों से लेकर कामकाजी और घरेलू महिलाओं तथा गरीबी में रह रही स्त्रियों के लिए यह सब प्रबंध कौन करेगा? 
ज़ाहिर है कि यह सरकार और उसके द्वारा इस काम के लिए बनाई गई संस्थाओं की यह ज़िम्मेदारी है लेकिन यह बात किससे छिपी है कि आज भी अधिकतर ग्रामीण इलाकों में डिस्पेंसरी है तो दवा नहीं, अस्पताल है तो डॉक्टर नहीं और अगर ये दोनों हैं तो ईलाज और जांच-पड़ताल तथा ऑपरेशन आदि की सुविधाएं नहीं। स्वास्थ्य केंद्रों की हालत दयनीय है और चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में मरीज़ को दम तोड़ते देखना मामूली बात है। आज भी प्रसव के समय मृत्यु दर डर पैदा करती है। इसी के साथ जुड़ा है कि यदि किसी की हैसियत नहीं है कि वह आने वाले बच्चे का ठीक प्रकार से पालन-पोषण कर सकता तो उसे अपनी पत्नी को गर्भवती करने का अधिकार भी नहीं है। इसके साथ ही यदि पत्नी नहीं चाहती कि वह गर्भधारण करे तो पति को समझना होगा कि वह इसके लिए जबरदस्ती नहीं कर सकता। अनचाहा गर्भ अजन्मे शिशु के अधिकारों का भी हनन है।
जनसंख्या नियंत्रण
यह परिस्थिति एक और वास्तविकता को भी उजागर करती है और वह यह कि अजन्मे बच्चे के अधिकारों की सुरक्षा के लिए आबादी का बिना किसी हिसाब-किताब के बढ़ते जाना घातक है। इसके लिए जनसंख्या नियंत्रण कानून की ज़रूरत है और उस पर स्वेच्छा अर्थात् अपनी मज़र्ी और सहमति से अमल करना आवश्यक है।
हमारे आर्थिक संसाधन तब ही तक उपयोगी हैं, जब तक उन पर बढ़ती आबादी का ज़रूरत से ज्यादा दबाव नहीं पड़ता। गरीब के यहाँ ही अधिक संतान जन्म लेती है और पालन पोषण की सुविधाएं न होने से उसके कुपोषित, अशिक्षित और समाज के लिए अनुपयोगी बने रहने का खतरा सबसे ज्यादा इसी तबके में होता है। यह भी अजन्मे बच्चे के अधिकारों का हनन है क्योंकि जब संतान के पालन पोषण की व्यवस्था नहीं तो माता-पिता बनने का भी अधिकार नहीं। जब हम अपने गली मोहल्लों, चौराहों और सड़कों पर भीड़ देखते हैं तो यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि इसमें अधिकतर लोगों के पास कोई काम-धंधा, नौकरी या रोज़गार नहीं है और ये सब उसी की तलाश में भटक रहे हैं या कहें कि दर-दर की ठोकरें खा रहे हैं। ये लोग ऐसा नहीं है कि पढ़े लिखे नहीं हैं या मेहनत नहीं करना चाहते, परन्तु जब स्थिति एक अनार और सौ बीमार वाली हो तो फिर उसे क्या कहा जाएगा?
यह विषय गंभीर है और इस बात की तरफ  इशारा करता है कि संतान को लेकर एक ऐसे नज़रिए से सोचा जाए जिसमें सांस्कृतिक और पारम्परिक मान्यताओं को तो स्थान मिले लेकिन कुरीतियों का पालन न हो, लिंग-भेद के कारण भेदभाव न हो और सभी संसाधनों पर सब का बराबरी का अधिकार हो। इससे गरीब और अमीर के बीच की खाई भी कम करने में मदद मिलेगी, परिवार एक कड़ी के रूप में बढ़ेगा और समाज समान रूप से विकसित हो सकेगा।