सिर्फ दिखावा मात्र है चीन का शांति प्रस्ताव!

 

21 मार्च, 2023 की शाम रूस के राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन ने मास्को में चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ औपचारिक मीटिंग की। इस मीटिंग में इन दोनों ने रूस और चीन के बीच सम्पन्न एक अहम घोषणा-पत्र पर हस्ताक्षर। इसके बाद रूस-यूक्रेन जंग पर बातचीत करते हुए पुतिन ने माना कि चीन के ‘पीस प्लान’ को जंग खत्म करने के आधार के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है लेकिन उन्होंने इसे सफल बना सकने वाली गेंद को यह कहते हुए यूक्रेन और पश्चिम के पाले में फेंक दिया कि जब पश्चिमी देश और कीव तैयार हों, तब शांति पहल को आगे बढ़ाया जा सकता है। ज़ाहिर है कोई भी चतुर राजनेता ऐसा ही करेगा।
लेकिन क्या चीन का 12 सूत्रीय प्रस्ताव वाकई शांति स्थापना का माहौल बनाता है? अगर संक्षिप्त में कोई इसका उत्तर देना हो तो कहेंगे ‘नहीं’। क्योंकि चीन का यह शांति प्रस्ताव बहुत-सी आदर्शपूर्ण बातें तो करता है, लेकिन अपने शांति प्रस्ताव में एक भी बात ऐसी नहीं कहता, जिससे यूक्रेन इस समझौते के बाद खुद को अपमानित और पराजित मानने की पीड़ा से बच सके। अपने 12 सूत्रीय शांति प्रस्ताव में चीन कहता है- सभी देशों की संप्रभुता का सम्मान किया जाए, शीत युद्ध वाली मानसिकता को खत्म किया जाए, हिंसा पर लगाम लगाई जाए, शांतिपूर्ण बातचीत दोबारा शुरू हो, मानवीय संकट को सुलझाया जाए, आम नागरिकों और युद्धबंदियों की सुरक्षा की जाए, न्यूक्लियर पावर प्लांटों को सुरक्षित किया जाए, रणनीतिक जोखिम कम किए जाएं, अनाज के आयात पर लगी रोक हटाई जाए, एकपक्षीय प्रतिबंधों को रोका जाए, औद्योगिक सप्लाई चेन को स्थिर रखा जाए और युद्ध के बाद ज़रूरी निर्माण को बढ़ावा दिया जाए।
अपने इस शांति प्रस्ताव में चीन कहीं भी यह नहीं कहता कि इस समझौते के बाद रूसी सेनाएं यूक्रेन से वापस लौट जाएं, रूस ने जिन यूक्रेनी इलाकों में कब्जा कर लिया है, वे वापस यूक्रेन को दे दिए जाएं आदि। इन बिन्दुओं के बिना यह शांति प्रस्ताव अप्रत्यक्ष रूप से यूक्रेन के लिए रूस से हार और उसकी मनमर्जी स्वीकार कर लेने का प्रस्ताव भर है, इस लालच के साथ कि इसे स्वीकार कर लोगे तो और बर्बादी नहीं झेलनी पड़ेगी। चीन के इस रूस की तरफ  झुकाव वाले शांति प्रस्ताव पर अमरीका ने सवाल खड़े किये हैं और अमरीकी विदेश मंत्री तथा अमरीका के कुछ कूटनीतिक अधिकारियों ने इसकी जमकर आलोचना की है। 
अमरीकी विदेश मंत्री एंटी ब्लिंकन ने तो साफ  तौर पर इस शांति प्रस्ताव के जरिये चीन पर रूस का साथ देने का आरोप लगाया है, जिसका चीन ने विरोध भी किया है। हालांकि यह बात भी मानकर चलना चाहिए कि चीन कितना भी अच्छा शांति प्रस्ताव पेश कर दे, लेकिन उसे पश्चिम न तो मानेगा, न ही प्रोत्साहित करेगा। लेकिन यह भी सही है कि चीन ने अपने इन 12 शांति प्रस्तावों में बहुत चालाकी से रूस के खिलाफ  लगाये गये प्रतिबंध हटाने की बात कही है। अमरीका और दूसरे पश्चिमी देश इस बिंदु से खास तौर पर खफा हैं और चीन की उस चालाकी से तिलमिला गये हैं, जिस चालाकी से उसने पूरे शांति प्रस्ताव में रूस से नहीं कहा कि वह अपनी सेनाएं यूक्रेन से वापस बुले ले।
जाहिर है इसका मतलब यही है कि चीन यूक्रेन से कह रहा है कि वह रूस के हमले को और उसके द्वारा अब तक उसके कब्जाए गये इलाकों की स्थिति को स्वीकार कर ले। लेकिन यह बात तो खुद रूस भी यूक्रेन से कहता रहा है और अगर यूक्रेन इसे स्वीकार कर लेता तो रूस-यूक्रेन युद्ध के 13 महीनों तक चलने की ज़रूरत ही क्या रह जाती? रूस ने तो कुछ हफ्तों बाद ही यूक्रेन को यह प्रस्ताव दिया था, जब उसने यह प्रोपेगेंडा करके यूक्रेन के तीन क्षेत्रों को रूस का विस्तारित हिस्सा करार दिया था कि यहां रूसी बोलने वालों की संख्या ज्यादा है, लेकिन यूक्रेन के राष्ट्रपति व्लोदोमीर ज़ेलेंस्की लगातार यह कहते रहे हैं कि कोई भी समझौता उसी स्थिति पर होगा, जब हमारी एक-एक इंच भूमि से रूस वापस जायेगा और हमारी संप्रभुता का सम्मान होगा। शायद यही कारण है कि यूक्रेन ने तो बहुत तीखी और त्वरित प्रक्रिया बीजिंग के इस शांति प्रस्ताव पर नहीं व्यक्त की, लेकिन अमरीका और दूसरे पश्चिम देश शायद एक एक पल इसके इंतजार में ही व्यतीत कर रहे थे, क्योंकि चीनी शांति प्रस्ताव के आते ही न सिर्फ  अमरीका की सरकार, उसके मंत्री बल्कि पेंटागन के सैनिक अधिकारियों ने भी चीन के इस प्रस्ताव को सिरे से नकारा दिया है। पेंटागन के प्रेस सचिव वायु सेना बिग्रेडियर जनरल फेडरॉडर ने भी साफ  तौर पर चीन को रूस-यूक्रेन युद्ध में एक नया खलनायक बताया है, यह कहते हुए कि चीन रूस को खतरनाक हथियार उपलब्ध करा रहा है। ज़ाहिर है इसका मतलब यह है कि अमरीका मानकर चल रहा है कि चीन का शांति प्रस्ताव एक दिखावा है। शायद इसलिए अमरीकी विदेश मंत्री ने बिना किसी प्रोटोकॉल का ख्याल किए साफ  तौर पर चीन की हर बात को खारिज कर दिया है और कहा है कि उनका यह शांति प्रस्ताव एक तरह से रूस का समर्थन करता है।
चीन के दूसरे देशों के साथ संबंधों के इतिहास को देखें तो भी उसका शांति चरित्र विश्वसनीय नहीं लगता, क्योंकि उसकी 22,117 किलोमीटर की लम्बी सरहद, दुनिया के 13 देशों से लगती है, लेकिन उसका दुनिया के 23 देशों के साथ सीमा-विवाद है। इससे साफ  पता चलता है कि उसका बुनियादी रवैय्या विस्तारवादी ही है।
 संप्रभुता का सम्मान उसकी जुबान पर एक अटपटा शब्द लगता है। जो देश चीन की सटी सीमा से हज़ार किलोमीटर से भी ज्यादा दूरी के फासले पर हैं, जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया और ब्रूनेई, के साथ भी उसके रिश्ते खासकर सीमा विवाद के चलते तनाव भरे हैं। इसलिए जिन लोगों को लगता है कि चीन और भारत की सीमा विवाद में अंग्रेज़ों की खीची गई मैकमोहन रेखा ज़िम्मेदार है, वे लोग इंडोनेशिया मलेशिया ब्रूनेई, वियतनाम, तज़ाकिस्तान, मंगोलिया और किर्गिजिस्तान के साथ उसके सीमा विवाद को लेकर क्या कहेंगे? वास्तविकता यही है कि चीन इस 21वीं सदी में भी किसी मध्ययुग के देश की तरह बर्ताव कर रहा है और यह मानकर चल रहा है कि उसे 21वीं सदी का एक ऐसा ताकतवर देश माना जाए, जो लोकतांत्रिक है और हर देश की संप्रभुता का सम्मान करता है। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। हाल ही में चाहे उसे ईरान और सऊद अरब के बीच कूटनीतिक संबंध स्थापित करवाने में मध्यस्थ के रूप में सफलता मिली हो, मगर यूक्रेन और रूस के बीच जंग एक बड़ा मंच है, जहां से भविष्य की दुनिया की नीति-रणनीति तय होगी। इसलिए पश्चिम के देश चीन के शांति प्रस्ताव को कोई महत्व नहीं देंगे।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर