विश्व को किस ओर ले जाएगी हथियार खरीदने की होड़

वर्तमान में विश्व के अधिकतर देशों में हथियार बनाने व खरीदने  की होड़ लगी हुई है। रूस-यूक्रेन युद्ध से उपजे वैश्विक समीकरणों के तहत चीन, ताइवान, अरब देशों तथा ऑस्ट्रेलिया और जापान तक इसका विस्तार हो रहा है। उत्तर कोरिया और अन्य देशों के बीच नाभिकीय हथियारों तथा अति उन्नत तकनीक वाली मिसाइलों की होड़ की भी चर्चा हो रही है। चर्चाओं के साथ इस संबंध में कई सवाल भी उभरे हैं। शांतिप्रिय देश भारत की नीति हथियारों की बेलगाम होड़ के सदैव विरुद्ध रही है, लेकिन भारत पिछले तीस वर्षों से समूचे संसार में हथियार खरीद के मामले में सबको पीछे छोड़े हुए है, कुछ ऐसे देश जो भारत सरकार की नीतियों से हमेशा असहमत रहते हैं, वे यही सवाल उठाते हैं कि भारत इतनी भारी मात्रा में हथियारों की खरीद क्यों कर रहा है? जबकि उसका दावा है कि वह सैन्य साजो-सामान, तकनीक और हथियारों को लेकर आत्मनिर्भरता के रास्ते पर है। 
जिस देश में तकरीबन 82 करोड़ लोग मुफ्त सरकारी अनाज पर निर्भर हों, दो करोड़ से ज्यादा परिवार गरीबी रेखा से नीचे हों, ऐसा देश दो-चार बरस नहीं तीस साल से हथियार खरीदने वाले देशों की सूची में शामिल है तो क्यों? बेशक देश के पास इसका वाजिब जवाब है। ऐसा प्रश्न पाकिस्तान और चीन तथा दूसरे देशों से भी हैं और उनके पास जो उत्तर हैं, वे उनके खुद के फायदे के नज़रिये से देखें तो अलग बात है अथवा क्षेत्रीय शांति और सुरक्षा तथा संबंधों व सैन्य संतुलन की कसौटी पर परखें तो अतार्किक और एकतरफा हैं। चीन पिछले पांच सालों से हथियार बनाने, खरीदने और उसकी तैनाती में अमरीका से तीन गुना ज्यादा तेज़ी दिखा रहा है, अखिर क्यों? ऑस्ट्रेलिया अचानक अपने भविष्य की असुरक्षा व चीनी खतरा बता हथियार खरीदने पर उतर आया है, तो इसके पीछे क्या वाकई ठोस वजह है या हथियार खरीदने का बहाना? विश्व में हथियारों का सबसे बड़ा विक्रेता अमरीका रूस को मिल रही चीनी सहायता और चीन से अपने तनावपूर्ण होते रिश्ते तथा ताइवान इत्यादि को लेकर बढ़ती आशंकाओं के मद्देनज़र हथियार निर्माण तथा विकास को तेज़ तो कर ही चुका है, फ्रांस वगैरह से अत्याधुनिक साजो-सामान खरीदने की बात भी कर रहा है। 
इन देशों से इतर सऊदी अरब, कतर, संयुक्त अरब अमीरात, मिस्र जैसे देश भी भारी मात्रा में हथियार खरीद रहे हैं। यहां इतना भययुक्त वातावरण किस लिये? जापान ने भी हथियारों की खरीद हेतु अपना बजट बढ़ा दिया है, तो चीन नेपाल, बांग्लादेश, म्यांमार को जितना हथियार दे रहा है, वे उनकी ज़रूरतों से बहुत ज्यादा हैं। वह तो श्रीलंका को भी और हथियार देता लेकिन श्रीलंका घोषित कंगाल है। हालांकि कंगाली की ओर बढ़ते पाकिस्तान को किसी भी चीज के बदले हथियार बेचने में उसको कोई गुरेज़ नहीं। बात हथियार खरीदने की ही हो तो यूरोपीय देशों ने पिछले साल पहले के मुकाबले 47 प्रतिशत ज्यादा हथियार खरीदे हैं। संभव है इसका बड़ा कारण रूस-यूक्रेन युद्ध रहा हो, लेकिन यूरोपीय देश पहले भी भारी मात्रा में हथियार खरीदते रहे हैं, जबकि इनमें से अधिकांश छोटे और क्षेत्रीय अशांति से दूर शांत देश हैं।  खरीदने वाले देश भी कोई सुरक्षा व्यवस्था के आधुनिकीकरण के नाम पर तो कोई कल्पित, आशंकित खतरे के बहाने हथियार खरीद रहे हैं। 
बेशक भारत दक्षिण एशिया की हथियार खरीद की इस होड़ से बाहर नहीं है। उल्लेखनीय है कि दक्षिण एशिया में  जिस तरह की परिस्थितियां हैं, उनके अनुसार भारत की हथियार खरीद को उचित ठहराया जा सकता है, खासतौर पर जब आस-पड़ोस के देशों में हथियारों की खरीद-फरोख्त का खेल चल रहा हो। 
पाकिस्तान को सबसे ज्यादा हथियार चीन देता है। पाकिस्तान को वह सब कुछ उन्नत श्रेणी में चाहिए जो भारत के पास है। भारतीय बैलिस्टिक मिसाइल अग्नि-5 का सफल परीक्षण करने के कुछ सप्ताह बाद चीन ने उसे परिष्कृत ऑप्टिकल ट्रैकिंग सिस्टम देने का वादा किया। तोप हो या युद्धक विमान हर क्षेत्र में वह ऐसा ही करता है। ऐसे में भारत का भारी मात्रा में हथियार खरीदना और उन्हें उन्नत बनाने के साथ उनकी तैनाती कोई अतार्किक, अतिरेकी कदम नहीं है।
भारत द्वारा हथियारों खरीद करने पर सवाल उठाने वाले भूल जाते हैं कि भारत तीस सालों में हथियारों की खरीद में टॉप पर भले रहा हो, पर उसने आयात को 11 फीसदी तक कम किया  है। इसकी बड़ी वजह इस क्षेत्र में तेज़ी से आत्मनिर्भरता है। नीतिगत पहल से, विदेशी विक्रेताओं पर निर्भरता कम करके अपने सार्वजनिक उद्यमों, बड़े व्यवसाय समूहों, रक्षा निर्यात के लिए महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का निर्धारण और स्वदेशी खरीद के लिए सैन्य साजो सामान की सूची को विस्तृत बना कर यह उपलब्धि प्राप्त की है। जटिल खरीद प्रक्रिया के कारण हथियार मिलने में देरी होती थी, फिर शस्त्र आपूर्तिकर्ताओं में विविधता लाना, घरेलू डिज़ाइन को प्राथमिकता देना और रूस पर निर्भरता कम करना भी हथियारों के आयात में गिरावट की वजह है। 
इससे इतर एक सवाल यह भी है कि जब आशंका यह व्यक्त की जाती है कि भविष्य का युद्ध मैदानों में नहीं, कम्प्यूटरों पर, इंटरनेट के जरिये साइबर फील्ड में लड़े जायेंगे। जब जैविक और रासायनिक युद्ध आशंकित हाें तो पारम्परिक हथियारों की खरीद क्यों? जब सेनाओं में पुनर्नियोजित मानवबल को कम करने की योजनाएं हों तो ये हथियार किन हाथों में दिये जायेंगे। कहीं हथियारों  की खरीद-बिक्री के पीछे हथियार निर्माता व विक्रेता देशों द्वारा अपनी कम्पनियों को बिक्री लाभ, कर्मचारियों की नौकरी, हथियार दलालों का काम जारी रखना तथा देश की सुरक्षा के नाम पर  सरकारपोषित कारपोरेट्स का हित संरक्षण तो नहीं।-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर