राहुल द्वारा अडानी का मुद्दा उछालने की संवेदनशीलता को समझती है भाजपा सरकार

राहुल गांधी के साथ वह हो गया है जिसकी कल्पना उनके किसी विरोधी या समर्थक ने पहले कभी नहीं की होगी। स्वयं राहुल गांधी भी अपनी राजनीतिक किस्मत के बारे में इस हद तक नहीं सोच पाये होंगे। जिस समय 2019 में चुनावी रैली करते हुए उन्होंने कर्नाटक के कोलार में सारे के सारे मोदियों को चोर बताने वाला फिकरा इस्तेमाल किया था, उस समय कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकता था कि इसका परिणाम यह होगा। बिहार में सुशील मोदी ने और गुजरात (सूरत) में पूर्णेश मोदी ने उनके ऊपर अपराधिक मानहानि का केस दर्ज करवाते समय भी नहीं सोचा होगा कि एक अदालती फैसले का परिणाम यह हो सकता है। इसी तरह मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री के समय लालू यादव की सदस्यता बचाने के फौरी लक्ष्य को बेधने के लिए कांग्रेस सरकार जो कानून लाना चाहती थी, उसके प्रस्ताव को प्रैस कांफ्रैंस में फाड़ते समय राहुल या किसी और को यह नहीं पता था कि एक दिन यही काम राहुल गांधी के गले पड़ जाएगा। बहरहाल, आज की ताऱीख में स्थिति यह है कि राहुल को महीने भर के भीतर-भीतर बड़ी अदालत जाकर अपनी सज़ा के खिलाफ स्थगन आदेश प्राप्त करना है। अगर उन्हें स्थगन मिल गया तो फिर चुनाव आयोग को सोच-विचार करना होगा कि वायनाड (केरल) के प्रतिनिधि के रूप में राहुल को फिर से सदन में बैठने का मौका दिया जाए या न दिया जाए।
राहुल को मीडिया के कुछ समीक्षकों ने सलाह दी है कि उन्हें दो साल की सज़ा स्वीकार कर लेनी चाहिए। अगर वे जेल चले जाएंगे तो उनके पक्ष में बड़ी हमदर्दी पैदा होगी और उनका नैतिक पक्ष भी दूसरों के मुकाबले ऊंचा हो जाएगा। लेकिन शनिवार को हुई अपनी प्रैस कांफ्रैंस में जो कुछ राहुल ने कहा उससे स्पष्ट हो गया कि वे इस सुझाव को मानने के मूड में नहीं हैं। दरअसल, उनका पूरा फोकस मोदी-अडानी समीकरण पर ही रहा। वे बार-बार कहते रहे कि इस पूरे घटनाक्रम की शुरुआत उनके उस सवाल से हुई है जो अडानी की शैल कम्पनियों में बीस हज़ार करोड़ रुपये (तीन अरब डालर) की रकम विदेशी कम्पनियों में डाले जाने से जुड़ा है। चूंकि अडानी का व्यापार अधिसंरचनात्मक क्षेत्र में है, इसलिए वे तो इतनी बड़ी रकम कहीं से ला नहीं सकते। इसलिए यह साफ होना चाहिए कि यह धन कहां से आया। राहुल का कहना था कि इसमें एक चीनी नागरिक की भी भूमिका है। शैल कम्पनियों का यह निवेश भी अडानी की कम्पनियों द्वारा रखा उत्पादन के क्षेत्र में है। लेकिन, रक्षा विभाग कोई सवाल नहीं पूछ रहा। राहुल का दावा था कि उनके इस सवाल से घबरा कर पहले तो विदेशी दौरे पर दिये गये उनके भाषण के बहाने उन्हें संसद में बोलने से रोका गया और अब मानहानि के मुकद्दमे के ज़रिये उनकी सदस्यता ही छीन ली गई ताकि वे सदन में यह मसला न उठा पाएं। पत्रकारों द्वारा किये गये हर सवाल के जवाब में राहुल गांधी के तेवर यही रहे कि वे वही सवाल पूछेंगे, जिसे पूछने से रोकने के लिए उन्हें निशाना बनाया गया है।
राहुल की प्रैस कांफ्रैंस से यह बात एकदम साफ हो जाती है कि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में कांग्रेस का फोकस पूरी तरह से मोदी और अडानी के बीच संबंधों पर ही रहेगा। कांग्रेस के समर्थक बुद्धिजीवियों और पार्टी के प्रवक्ताओं ने एक नया शब्द ईज़ाद कर लिया है। वह है ‘मोदानी’। ज़ाहिर है कि इसे मोदी और अडानी को मिला कर बनाया गया है। राहुल के सामने इन दोनों के संबंधों का इतिहास स़ाफ है। वे कहते हैं कि जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे, तभी से दोनों के ताल्लुक हैं और ‘वाइब्रेंट गुजरात’ की प्रचार-मुहिम दरअसल अडानी की ही संगठित की हुई थी। राहुल के इस बेहिचक रवैये से संदेश निकलता है कि विपक्ष का ज्यादा बड़ा हिस्सा नौ साल पुरानी मोदी सरकार के खिलाफ स्वाभाविक रूप से मौजूद एंटीइनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी रूझान) को बढ़ाने के लिए अडानी वाले मसले को ‘ट्रिगर पाइंट’ के रूप में इस्तेमाल करने की फिराक में है। सरकार इसे समझ रही है। शायद उसकी समझ में इसका संगीन किरदार भी आ गया है। वह इसे किसी न किसी रुप से टालना चाहती है। उसकी कोशिश है कि अडानी मसले के ऊपर तकनीकी चर्चा तो हो, लेकिन राजनीतिक चर्चा न हो। यानी, सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनायी गई कमेटी यह जांच करती रहे कि अडानी के शेयरों की कीमत कैसे बढ़ी और जिस समय यह सब हो रहा था उस समय मार्किट के रैगुलेटर के रूप में सेबी की तरफ से कुछ क्यों नहीं किया गया। 
अगर विपक्ष द्वारा की जाने वाली संयुक्त संसदीय समिति की मांग मान ली गई तो उसके द्वारा की जाने वाली जाँच मुख्य तौर पर राजनीतिक होगी। इसकी आंच मोदी और उनकी सरकार पर आ सकती है। मोदी समर्थक मीडिया भी इसे नहीं दबा पाएगा। समिति को प्रधानमंत्री तक को बुला कर पूछताछ करने का अधिकार होता है। ये अंदेशे इसके बावजूद हैं कि संयुक्त संसदीय समिति में 60 प्रतिशत सदस्य भाजपा के ही होंगे- आ़िखरकार भाजपा के सदस्यों की कुल संख्या का एक निश्चित अनुपात इस समिति की रचना करेगा। इतिहास गवाह है कि जिस सरकार के तहत कोई संसदीय समिति बनी वह अगले चुनाव में हार गई। मसलन, राजीव गांधी के ज़माने में बोफर्स संसदीय समिति बनी। मनमोहन सिंह के ज़माने में टूजी घोटाले के आरोपों की जांच के लिए संसदीय समिति बनी। ये दोनों सरकारें वोटरों द्वारा ़खारिज कर दी गईं। इस तरह के इतिहास मोदी को डरा देने के लिए काफी है। वैसे भी चुनाव से पहले का साल चुनावी साल से भी ज्यादा नाज़ुक होता है। एंटीइनकम्बेंसी को उसका ‘ट्रिगर पाइंट’ इसी चुनाव से पहले के साल में मिलता है। अगर इसे समय रहते नहीं रोका गया तो चुनाव आने पर इस ‘ट्रिगर पाइंट’ के कारण लगातार बढ़ने वाली सरकार विरोधी भावनाओं को संभालना बहुत मुश्किल हो जाता है।
कांग्रेस के अलावा विपक्ष की अन्य पार्टियों के लिए भी अडानी-मोदी के संबंधों का मसला दिलचस्पी का विषय है। ये दल भी चाहते हैं कि इस प्रश्न को मरने न दिया जाए। अभी लोकसभा चुनाव का एक साल है और अगर लगातार इस पर बहस चलती रहे तो धीरे-धीरे जनता के मन में सवाल उठने शुरू हो सकते हैं कि यह मामला है क्या? इसमें चीनी नागरिक कैसे शामिल है? बीस हज़ार करोड़ का धन कहां से आया? आ़िखर भाजपा और सरकार अडानी को क्यों बचा रही है? एक बार मध्यवर्ग यह सोचने लगा तो फिर ‘कांसपिरेसी थियरीज़’ (साजिश के सिद्धांत) का बाज़ार गर्म हो जाएगा। फिर महंगाई, बेरोज़गारी और धीमें विकास की समस्याएं इसके साथ जुड़ जाएंगी। अगर ऐसा हुआ तो जो पिछले दो लोकसभा चुनावों में नहीं हो सका, वह 2024 में हो सकता है। यानी, विपक्षी एकता को जो सूचकांक 2014 और 2019 में न के बराबर था, 2024 में प्रभावी रूप ले सकता है।

 
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।