न्यायालय लोकतंत्र की मज़बूती के लिए ज़िम्मेदारी निभाएं

 

अपने नेताओं को सुनियोजित ढंग से निशाना बनाए जाने के खिलाफ 14 राजनीतिक पार्टियों द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में दी गई एक संयुक्त याचिका पर सुनवाई करने से इन्कार करते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश (सी.जे.आई.) द्वारा की गई टिप्पणियां राजनीतिक-संवैधानिक महत्व के मुद्दे उठाती हैं। न्यायालय की टिप्पणी कि उसके लिए किसी कार्रवाईर् को रोकने के लिए आम दिशा-निर्देश निर्धारित करना, जो कि ज़रूरी तौर पर एक वैधानिक कार्य है, एक ‘खतरनाक प्रस्ताव’ था। इन टिप्पणियों से एक कार्यशील संसदीय लोकतंत्र के ढांचे में अपने न्यायिक समीक्षा के अधिकार क्षेत्र संबंधी न्यायालय के दृष्टिकोण की दृष्टि झलकती है। 
न्यायालय द्वारा अपने सामने लाये गए विशेष तथ्यों पर आधारित ठोस केसों को सुनने तथा फैसले करने के लिए भेजे केसों की पुन: समीक्षा तथा याचिका पर विचार करने से इन्कार करना लैयर्ड (1972) में अमरीकी सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले में दर्शाए गए परम्परागत न्यायिक ज्ञान को दर्शाता है, जिस ने चेतावनी दी थी कि एक व्यक्तिगत निराशा के उद्देश्य विशेष तौर पर मौजूदा उद्देश्य के नुकसान या भविष्य के खास नुकसान के खतरे के दावे उचित विकल्प नहीं हैं। उक्त फैसला सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश की टिप्पणियों के लिए न्यायिक समर्थन प्रदान करता है। परन्तु यह उल्लेखनीय है कि सर्वोच्च न्यायालय की विस्तृत जनहित याचिका न्याय-शास्त्र संवैधानिक शक्ति की अधिक गतिशील उपयोग का सुझाव देती है। 
हालांकि याचिकाकर्ता की यह दलील कि कानून के  मनमज़र्ी से इस्तेमाल के कारण एक खुले खेल मैदान में बातचीत (संवाद) के लिए जगह ही सिकुड़ गई है पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया देते हुए मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि ‘जब आप कहते हैं कि विरोध के लिए जगह सिकुड़ गई है तो समाधान उसी जगह में है, न्यायालय में नहीं।’ एक लोकतांत्रिक राज्य के राजनीतिक सिद्धांत के नज़रिये से देखा जाए तो पीठ की टिप्पणी सही ढंग से यह सुझाव देती है कि सत्ता का लोकतांत्रिक रास्ता तथा सरकार को सत्ता के इस्तेमाल संबंधी संतुलन ( चैक एंड बैलैंस) के अधीन लाने का कार्य नागरिकों की निर्णायक सार्वजनिक एकजुटता से भी संभव है। मुख्य न्यायाधीश शायद हैरोल्ड लास्की की लोकतांत्रिक शक्ति के प्रकटावे संबंधी दलील को ‘अनगिनत इच्छाओं के टकराव के रूप में’ पेश कर रहे थे, जिस के आधार पर व्यक्तियों की इच्छा सिर्फ इस बात तक मान्यता प्राप्त होती है कि वे जनता की अदालत में ज़ोरदार ढंग से अपनी इच्छा व्यक्त कर सकते हैं। 
न्यायालय की टिप्पणियां बहुसंख्यकवादी भावनाओं तथा संस्थागत गैर-न्याययोग्यता की सीमाओं के खिलाफ लोगों की न्याय की उम्मीदों को संतुलित करने की यायिक दुविधा को दर्शाती हैं। हाल के दिनों में आवश्यक तौर पर राजनीतिक विवादों के न्यायिक निष्कर्ष, जो कि तीव्र राजनीतिक विवादों का विषय हैं, ने एक शक्तिशाली संवैधानिक न्यायालय की भीतरी या स्व-लागू की सीमाओं को ज़ाहिर किया है, जो ‘बिखरी हुई राजनीतिक शक्ति तथा ज़िम्मेदारी’ का इस्तेमाल करती है। 
उम्मीद है कि राज सत्ता की ज़्यादतियां तथा मानवाधिकारों पर इसके स्थापित न्याय-शास्त्र के खिलाफ एक स्वतंत्र दीवार के रूप में अदालत का उद्देश्य व्यक्ति की आज़ादी तथा आज़ादी के संबंध में अपने दृष्टिकोण की जांच-पड़ताल करने का सिलसिला जारी रहेगा। वर्षों से इसकी बड़ी घोषणाओं, कुछ विवादों के बावजूद, ने भारतीय लोकतंत्र को अमीर बनाया है और संविधान के पवित्र सम्मान वाले वायदे को और मज़बूत किया है। संवैधानिक विश्वास के रक्षक के रूप में न्यायालय को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कानून का फैसला मतदाताओं के फैसले से कम पवित्र न हो। वर्तमान युग की चुनौतियों के संबंध में अपनी प्रतिक्रिया देते हुए न्यायालय से उम्मीद की जाती है कि वह अपने स्वतंत्र न्याय-शास्त्र तथा संवैधानिक सिद्धांत की दृष्टि को और मज़बूत करेगी।  मौलिक मानवाधिकारों से जुड़े मामलों में ‘कानूनी कार्रवाई के लिए नैतिक कर्त्तव्यों (नेनाल्ड डोरकिन) को पहचानते हुए यह ज़ोर देना जारी रखना चाहिए कि लोकतांत्रिक राजनीति कानून के अधीन है, इससे ऊपर नहीं। वास्तव में संवैधानिक सिद्धांतों की भाषा में सत्ता के मुद्दों को संबोधित होते हुए राजनीतिक बयानों को कानूनी दायरे में लाना न्यायालय का काम है। 
सर्वोच्च न्यायालय में विपक्षी पार्टियों की याचिकाओं तथा दर्ज मुकद्दमों के आंकड़ों को देखते हुए, बिना ज़मानत के व्यक्तियों को लम्बे समय तक हिरासत में रखने के जाने-पहचाने उदाहरण तथा ऐसे लोगों की आज़ादी एवं सम्मान की रक्षा की मांग करने वालों को एक सुरक्षा छतरी की पेशकश करने के लिए न्यायालय के विशाल अधिकार क्षेत्र के प्रसंग में यह केस न्यायालय द्वारा कम से कम एक शुरुआती विचार का हकदार है। यह संवैधानिक ज़मीर को आगे बढ़ाने में तथा अर्नव गोस्वामी (2020) के केस में न्यायालय द्वारा दिया गया बयान कि एक दिन के लिए भी आज़ादी से वंचित होना बहुत ज़्यादा है तथा सिद्धार्थ (2021) केस में दोषी सिर्फ इस लिए गिरफ्तार नहीं किया जा सकता क्योंकि कानून प्रशासनिक अथारिटी को इसके समर्थ बनाता है। 
न्यायालय के मान-सम्मान तथा अधिकार का अंतिम माप प्रत्येक समय सत्य व न्याय का समर्थन करना तथा आज़ादी एवं सम्मान की शपथ लेने वाले लोगों की सामूहिक इच्छाओं को दर्शाने के लिए इसकी तत्परता पर निर्भर करता है। गणतांत्रिक नैतिक-मूल्यों के रक्षक तथा ‘ज़िदा संविधान’ के व्याख्याकार के रूप में आगे बढ़ते हुए इन कानूनों को ‘अतीत के मरे हुए हाथों’ से आज़ाद करना चाहिए, अपने आप को व्यक्तिगत नैतिकता तथा कमज़ोर करने वाली तुलना से बचाना चाहिए। हालांकि न्यायालय द्वारा लोकतांत्रिक शासन की प्रक्रियाओं को खारिज नहीं किया जा सकता और न ही यह देश में कानून लागू करने वाली एकाएक अथारिटी बनने की इच्छा रख सकती है, फिर भी न्यायालय अपने नागरिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए अपनी संवैधानिक शक्ति को समाप्त नहीं कर सकता। (जैसे कि सायरा बानो केस (2017) में एच.आर.खन्ना, जे. खानचंद (1974) मामले की पुष्टि की गई है) साफ तौर पर सर्वोच्च न्यायालय से उम्मीद की जाती है कि वह मानवाधिकारों के शोषण में सत्ता शक्ति के बेरोक-टोक इस्तेमाल के खिलाफ बाधाओं को और मज़बूत करेगा। इस समूचे रिकार्ड को देखते हुए उम्मीद है कि देश इस बात के लिए आशावान हो सकता है कि संवैधानिक तौर पर निर्धारित सीमाओं के भीतर, जैसे कि ज़रूरी है, कार्य करते हुए न्यायालय मौजूदा सरकारों के अन्यायपूर्ण फैसलों पर अपनी अंगुलियों के निशान नहीं लगाएगी। हम जानते हैं कि राजनीतिक शक्ति ने प्रत्येक युग में स्वयं को तर्कशील बनाने की कोशिश की है और यह बुद्धिजीवियों के ज्ञान में है, हमारे समय के कुछ पेचीदा प्रश्नों के भी दूरगामी जवाब मिल जाएंगे। गणतंत्र के आदर्शों की सेवा करने के लिए तैयार की गईं संस्थाओं का पोषण और मज़बूती से करना एक चुनौती की तरह है। 

-सीनियर एडवोकेट, सुप्रीम कोर्ट। 
(उपरोक्त विचार पूर्व केन्द्रीय कानून एवं न्याय मंत्री के निजी विचार हैं)