क्या समान लिंग विवाह को कानूनी व सामाजिक मान्यता मिलनी चाहिए ?

विषय बहुत संवेदनशील और गंभीर है लेकिन समझ में आना और उस पर चर्चा करना आवश्यक है। जन्म के समय डॉक्टर, नर्स, दाई या जिसने भी प्रसव कराया हो, उसके द्वारा नवजात शिशु का लिंग निर्धारण जीवन भर मान्य होता है अर्थात् लड़का, लड़की या ‘थर्ड जेंडर’।
जन्मजात अधिकार और स्वभाव
स्त्री-पुरुष को जन्म से ही सभी संवैधानिक, कानूनी, सामाजिक और पारिवारिक अधिकार मिल जाया करते हैं और अब एक लम्बी लड़ाई के बाद थर्ड जेंडर को भी इनका पात्र मान लिया गया है। लेकिन, सीमित ही सही, अच्छी खासी तादाद ऐसे प्राणियों की भी है जो इन तीनों की परिभाषा में नहीं आते। प्रश्न यह है कि क्या इन्हें भी सामान्य जीवन जीने का अधिकार है? हालांकि बहुत-से देशों जिनमें आधुनिक और स्मृद्ध कहे जाने वाले देश हैं, ने इन्हें मान्यता दे दी है, परन्तु भारत में अभी इस पर सोच विचार ही हो रहा है और मामला अदालत से लेकर संसद तक में उछल रहा है मतलब कि लटक रहा है।
जैसे-जैसे शिशु की उम्र बढ़ती है, उसका मानसिक और शारीरिक विकास होने लगता है और वह अपने आसपास अर्थात् परिवार और संबंधियों की जो पहचान उसे बताई जाती है, उसके अनुरूप उन्हें समझने लगता है और रिश्तों की गरिमा के अनुसार आचरण करता है। यदि कहीं भूल-चूक होती है तो घर परिवार के सदस्य सुधार कर देते हैं और वह अपने परिवेश और ज़िम्मेदारियों को जानने व समझने लगता है।
एक ओर चाहे लड़का हो या लड़की, उसका पारिवारिक व्यक्तित्व विकसित होता जाता है और दूसरी ओर इसी के साथ उसकी अपनी शख्सियत भी बनने लगती है। शरीर के साथ भावनाओं का भी मेल होने लगता है। वह कैसा दिखे, क्या पहने, कैसे व्यवहार करे, यहां तक कि बोलने, चलने-फिरने का उसका एक अपना ही अंदाज़ बनने लगता है अर्थात् उसकी अपनी पहचान बनती जाती है। हालांकि इसमें माता-पिता और जान-पहचान वालों का भी असर पड़ता है लेकिन वह मामूली होता है। उसके व्यक्तित्व का बड़ा हिस्सा प्राकृतिक रूप से पनपता है, जो हो सकता है कि पारिवारिक मान्यताओं और पीढ़ियों से चली आ रही परम्पराओं के खिलाफ हो जिसके कारण उसे अवहेलना, तिरस्कार और यहां तक कि मर्यादा तोड़ने, मनमानी या अनोखी बात करने का आरोप भी सहना पड़ता है। हो सकता है उसे परिवार से निकाला या संपत्ति से बेदखल किए जाने का भी सामना करना पड़े, एकाकी जीवन व्यतीत करना पड़े और एक सामान्य व्यक्ति की तरह उसे न रहने दिया जाये।
‘थर्ड जेंडर’ और उसके रूप
अब हम इस बात पर आते हैं कि यह जो सामान्य मर्द और औरत से अलग उसका तीसरा जेंडर अपने अनेक रूपों में सामने आता है, वह समाज को मंजूर है या नहीं? थोड़ा और खुलासा करते हैं। मान लीजिए, बड़ा होने पर उसके विवाह के प्रस्ताव आते हैं। यदि वह सामान्य स्त्री या पुरुष है, तब आम तौर पर कोई समस्या नहीं होती, चाहे वह परिवार की सहमति से हो या प्रेम विवाह हो। इसके विपरीत यदि उसकी भावनायें सामान्य स्त्री-पुरुष जैसी नहीं हैं, तब वह और उसका जीवन एक समस्या बन जाता है जो कभी-कभी बहुत बड़ी मुसीबत का कारण हो जाता है।
वास्तविकता यह है कि ज्यादातर मामलों में किसी व्यक्ति के शारीरिक और मानसिक विकास के बारे में केवल उसे ही पता होता है और वह उसी के अनुसार व्यवहार करता है। जन्म से पुरुष होते हुए स्त्रियों जैसी भावनायें अधिक प्रबल होना, अपने को महिला की तरह सजाने संवारने और आचरण करने को महत्व देना। यही स्थिति एक स्त्री के संबंध में हो सकती है जो पुरुषों जैसा दिखने और वैसा ही व्यवहार करने में रुचि रखती हो। यह सारा मसला जबकि कुदरत से मिले हार्मोन्स यानी जन्मजात शारीरिक गठन का है, लेकिन अधिकतर मामलों में इस बात को न समझते हुए समाज ऐसे सभी स्त्री-पुरुषों को नफरत का पात्र समझकर उनके साथ अत्याचार की हद तक दुर्व्यवहार होता है।
अब एक दूसरी स्थिति है जिसमें जन्म से किसी स्त्री या पुरुष का जवान होने पर अपने ही लिंग के व्यक्ति से आकर्षण हो जाता है। दोनों एक दूसरे को इतना पसंद करने लगते हैं कि सामान्य रूप से विवाहित जीवन बिताना चाहते हैं। यह जो एक-दूसरे के प्रति लगाव है, समर्पण की भावना है तो यह भी प्राकृतिक है लेकिन बहुत-से लोग स्वीकार नहीं कर पाते कि यह मानव जीवन की स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह बात वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध हो चुकी है कि किसी भी व्यक्ति की भावनाएं समय और काल के अनुसार बदलती रहती हैं। कभी वह केवल पुरुष तो कभी स्त्री बन कर सोचता है, तो कभी दोनों रूपों में अपने को देखता है। इसे ‘ट्रांस जेंडर’ कह सकते हैं।
 कुछ स्थितियों में तो यह भावना इतनी बलवती हो जाती है कि सर्जरी द्वारा अपने शरीर की चीरफाड़ से वैसा बनना चाहता है जैसा वह सोचता है कि वह है। इसमें कुछ भी अनोखा नहीं है क्योंकि यह कुदरती है। इसे यूँ समझिए कि जन्म से प्रकृति की तरफ  से हो गई गलती का सुधार करना और वैसा जीवन जीना जैसा अपना स्वभाव है।
प्रकृति ने जिसे जैसा जीवन दिया, अपना अलग स्वभाव दिया और जो जैसे हैं, वैसे ही जीना चाहते हैं तो इसमें समाज या कानून का हस्तक्षेप क्यों होना चाहिए? यदि कोई समान लिंग के व्यक्ति दम्पति बनकर रहना चाहते हैं, संतान की इच्छा गोद लेकर पूरी करना चाहते हैं, पारिवारिक विरासत या सम्पति पर अधिकार चाहते हैं या अपनी दत्तक या प्राकृतिक रूप से जन्मी संतान को अपना उत्तराधिकारी बनाना चाहते हैं तो इसमें किसी को क्यों कोई एतराज़ होना चाहिए ?
इतिहास क्या कहता है
रामायण और महाभारत में ऐसे बहुत से प्रसंग हैं जो किसी प्रकार का लिंग भेद नहीं करते बल्कि पुरुष और महिला के अतिरिक्त जितने भी अन्य लिंग हैं, सबका समान रूप से आदर करना सिखाते हैं। राजा पाण्डु और उनकी संतानों को क्या कहेंगे, शिखंडिनी का शिखंडी के रूप में परिवर्तन, अष्टावक्र द्वारा हड्डियों के बिना जन्मे बालक को स्वस्थ कर राजा भागीरथ बनकर गंगावतरण कराने से लेकर न जाने कितने आख्यान हैं, जिनमें कहीं लिंगभेद नहीं मिलेगा।
बेहतर होगा कि समाज ऐसे सभी संबंधों को मान्यता दे जो परम्पराओं को मानने वालों के लिए लीक से हटकर तो हो सकते हैं, लेकिन उनमें गलत कुछ भी नहीं है। आज जो अदालतों में ये लोग न्याय की गुहार लगा रहे हैं, अपने अधिकारों की मांग कर रहे हैं और एक सामान्य दम्पत्ति की तरह जीवन जीने देने के लिए प्रयास कर रहे हैं तो इसमें अड़चन डालने के स्थान पर सहयोग करना ही श्रेयस्कर है। स्वीकार लेना चाहिए कि प्रकृति ने किसी को क्या बनाया, यह स्वाभाविक प्रक्रिया है।