संसद के आगामी मानसून सत्र में राजद्रोह कानून रहेगा या जायेगा ?

पिछले साल 9 मई को केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से कहा था कि वह राजद्रोह कानून की समीक्षा के लिए तैयार है और इस कार्य के पूर्ण होने तक बिना क्षेत्र के एसपी (सुपरीटेंडेंट ऑफ पुलिस) की पूर्व अनुमति के किसी पर राजद्रोह कानून के तहत एफआईआर दर्ज नहीं की जायेगी। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एन.वी. रमण की खंडपीठ ने पुनर्समीक्षा की अनुमति तो दी, लेकिन केंद्र की उक्त पेशकश को ठुकराते हुए सुप्रीम कोर्ट ने सख्ती के साथ सभी प्राधिकारियों को आदेश दिया है कि समीक्षा पूरी होने तक वह भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 124ए के तहत कोई नया केस दर्ज नहीं करेंगे। अदालत ने यह भी कहा था कि जिन व्यक्तियों को इन प्रावधानों के तहत गिरफ्तार किया हुआ है, उन्हें ज़मानत देने की प्रक्रिया में तेज़ी लायी जाये।
राजद्रोह प्रावधान को स्थगित किये हुए अब लगभग एक वर्ष बीत गया है और केंद्र ने 1 मई, 2023 को सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया है कि सभी हितधारकों से अपराधिक कानूनों में सुधार से संबंधित विचार-विमर्श ‘वास्तव में काफी आगे बढ़ गया है’। इस विचार-विमर्श में धारा 124ए का विवादित मुद्दा भी है कि उसे बरकरार रखा जाये, हल्का किया जाये या निरस्त किया जाये। इसलिए सरकार ने भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ व न्यायाधीश जे.बी. पारदीवाला की खंडपीठ से आग्रह किया कि इस मुद्दे पर सुनवायी संसद के जुलाई में मानसून सत्र के बाद रखी जाये। खंडपीठ ने इस आग्रह को मानते हुए अगली सुनवायी अगस्त के दूसरे सप्ताह के लिए निर्धारित की है। 
गौरतलब है कि सुप्रीम कोर्ट उन याचिकाओं पर सुनवायी कर रहा है, जिनमें आईपीसी की धारा 124ए (राजद्रोह) की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई है। इस सुनवायी के दौरान खंडपीठ ने इस बात पर भी विचार किया कि याचिकाओं को पांच न्यायाधीशों की खंडपीठ सुने या सात न्यायाधीशों की, क्योंकि छह दशक पहले सुप्रीम कोर्ट की पांच सदस्यों की खंडपीठ ने केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य में राजद्रोह कानून को लागू करने की प्रक्रिया को तो आसान कर दिया था, लेकिन उसकी संवैधानिक वैधता को बरकरार रखा था। सुप्रीम कोर्ट ने 1962 के केदारनाथ सिंह केस में कहा था कि जब तक हिंसा करने का आह्वान या पब्लिक आर्डर बाधित करने का इरादा न हो तो सरकार की कैसी भी आलोचना को राजद्रोह नहीं ठहराया जा सकता।
सवाल यह है कि सरकार ने इस संदर्भ में अगस्त तक का समय क्यों मांगा? दो मुख्य कारण प्रतीत होते हैं। एक, संसद के मानसून सत्र के दौरान सरकार राजद्रोह सहित आपराधिक कानूनों में सुधार करने हेतु अपनी मज़र्ी का विधेयक लाना चाहती है, इसलिए उसने इस सिलसिले में विचार-विमर्श को ‘एडवांस्ड स्टेज’ में बताया। दूसरा यह कि सरकार नहीं चाहती कि राजद्रोह मामले को सुप्रीम कोर्ट पूर्णत: अपने अधिकार क्षेत्र में ले ले। ऐसी स्थिति में राजद्रोह पर अपना दृष्टिकोण लागू नहीं कर सकेगी, जबकि उसने बरकरार, हल्का व निरस्त के सभी विकल्प खुले छोड़े हुए हैं। 
दूसरी ओर जिन याचिकाकर्ताओं ने राजद्रोह की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी है, वह चाहते हैं कि धारा 124ए को पूर्णत: निरस्त किया जाये, क्योंकि केदारनाथ सिंह केस में इसे हल्का किये जाने के बावजूद इसका दुरूपयोग जारी रहा, जब तक कि मई 2022 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे समीक्षा पूर्ण होने तक स्थगित नहीं कर दिया था। गौरतलब है कि धारा 124ए के स्थगन से पहले तक बहुत ही मामूली घटनाओं में लोगों पर राजद्रोह कानून थोपा गया था। ब्रिटिश काल के इस काले कानून को लागू करने के लिए भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैचों, कार्टूनों, सोशल मीडिया पोस्ट्स को आधार बनाया गया। किसी ने किसी राज्य सरकार की तुलना ‘खून चूसने वाले पिशाच’ से कर दी, तो उस पर राजद्रोह कानून थोप दिया गया। कलेक्टर ने ज़िला-स्तर के राज्य दिवस समारोह में विधायक को आमंत्रित नहीं किया तो इसे राजद्रोह समझा गया। पत्रकार ने एक वकील की गिरफ्तारी की खबर पर लेख लिख दिया तो उस पर भी राजद्रोह के आरोप लगाकर सलाखों के पीछे भेज दिया गया। 
इस प्रकार के अनगिनत किस्से हैं, जिनमें कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, राजनीतिज्ञों, छात्रों व आम नागरिकों को धारा 124ए के तहत गिरफ्तार किया गया था, जोकि सुप्रीम कोर्ट के 1962 के दिशा-निर्देशों का खुला उल्लंघन था। एक स्वतंत्र मीडिया एंड रिसर्च ग्रुप ने 2010 से कानूनी दस्तावेजों, एफआईआर, न्यूज़ रिपोर्ट्स आदि की समीक्षा करके राजद्रोह कानून पर डाटाबेस तैयार किया है, जिसे ‘ए डिकेड ऑफ डार्कनेस’ (एक दशक का अंधकार) के नाम से प्रकाशित किया है। उक्त ग्रुप के अनुसार, 2010 से 13,000 से अधिक लोगों को राजद्रोह के 867 केसों में गिरफ्तार किया गया है, जिनमें से 595 मामले (लगभग 70 प्रतिशत) 2014 के बाद दर्ज हुए हैं। ध्यान रहे कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) राजद्रोह कानून के पूर्ण प्रयोग को रिकॉर्ड नहीं करता है, क्योंकि जिन मामलों में अनेक धाराएं होती हैं, उनमें उसी अपराध को गिना जाता है जिसमें सबसे अधिक सज़ा होती है। रिपोर्ट के अनुसार अधिकतर मामलों में आरोपी बरी हो जाते हैं लेकिन महीनों (बल्कि कभीकभार तो सालों) जेल में रहने के बाद। राजद्रोह के 13,306 आरोपियों में से अदालतों ने सिर्फ  13 को दोषी पाया है यानी दोषसिद्धि दर 0.1 प्रतिशत से भी कम है। 
आमतौर से एक आरोपी को ट्रायल कोर्ट से ज़मानत मिलने तक कम से कम 50 दिन जेल में रहना पड़ता है और हाईकोर्ट से ज़मानत मिलने तक 200 दिन भी लग जाते हैं। अब सवाल यह है कि राजद्रोह कानून को रखना चाहिए या नहीं? पहले यह जान लेते हैं कि राजद्रोह क्या है? जनकारी के अनुसार, जो शब्द या एक्शंस इस उद्देश्य से प्रयोग किये गये हों कि लोगों को सरकार का विरोध करने के लिए प्रोत्साहित किया जाये, वह राजद्रोह है। आईपीसी की धारा 124ए के मुताबिक शब्दों, चिन्हों या अन्य तरीकों से सरकार के विरुद्ध नफरत, निंदा या असंतोष उत्पन्न करना राजद्रोह है। यह काला कानून ब्रिटिश हुकूमत ने भारत के स्वतंत्रता संग्राम को कुचलने के लिए बनाया था। दिलचस्प यह है कि 2009 में ब्रिटेन ने राजनीतिक असहमति व अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को मज़बूत करने के लिए अपने यहां राजद्रोह कानून को निरस्त कर दिया, लेकिन अफसोस यहां यह अभी तक आईपीसी का हिस्सा बना हुआ है, जबकि इसे 1947 में देश की आज़ादी के साथ ही समाप्त कर देना चाहिए था। 
ब्रिटेन ने 1948 में सिंगापुर में भी राजद्रोह कानून लागू किया था, जिसे अक्तूबर 2021 में रद्द करते हुए सिंगापुर के कानून मंत्री के शानमुगम ने कहा था, ‘सरकार के विरुद्ध असंतोष के उत्साह का अपराधीकरण नहीं किया जा सकता। मैं समझता हूं कि अगर ऐसा किया जायेगा तो इस सदन के सदस्यों सहित बहुत-से लोग अपराधी समझे जायेंगे।’ यही दृष्टिकोण संसद के मानसून सत्र में संभावित विधेयक का भी होना चाहिए और अगर सरकार ऐसा नहीं करती है तो सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करते हुए धारा 124ए की काली छाया से देशवासियों को मुक्ति दिलानी चाहिए।


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