झूठे समाचारों संबंधी निजी ज़िम्मेदारी तय हो

 

जितनी रफ्तार से हम विज्ञान के साथ रचते-बसते और जीने की नई-नई तरकीबें सीखते जा रहे हैं, ठीक वैसे ही अनेक चुनौतियां भी सामने आ रही हैं। वास्तव में यह दौर इंटरनेट मीडिया का है जिससे हर हाथ को दुनिया तक अपने संदेशों को पहुंचाने की बहुत बड़ी ताकत मिली। अक्सर यही स्वतंत्रता के उपयोग और दुरुपयोग से झूठे संदेश या झूठे समाचार समाज, देश और दुनिया के लिए बड़ी चुनौती बन जाती हैं। झूठे प्रसार पर अंकुश लगाने हेतु भारत सहित दुनिया भर में अनेक प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन सच यही है कि यह बड़ी चुनौती है। तमाम तरह के कानूनों के बावजूद अक्सर लोग उनके मोबाइल में आए या बनाए गए संदेशों को बिना सोचे, समझे और  विवेक से काम लिए सीधे आगे बढ़ा देते हैं या फॉरवर्ड कर देते हैं। बस इसी खेल के चलते बेहद सफल इण्टरनेट तकनीक बड़ी चुनौती बन गयी है। जब इन्टरनेट नहीं था तब लोग अखबारों पर ही निर्भर थे और विश्वनीयता इतनी कि कभी भी प्रश्न चिन्ह नहीं लगे। रियल टाइम खबरों के इस दौर में सच कम झूठ ज्यादा है। लोग पहले अखबारों को ढ़ूढ़कर कतरनों की फोटो कॉपी करा प्रसारित करते थे। आज स्थिति उसके विपरीत है लोग झूठी खबरें पलक झपकते ही लाखों लोगों द्वारा बिना सत्यता जांचे शेयर हो जाती हैं। इसी आड़ में अक्सर लोग अपनी निजी दुश्मनी तक भंजा लेते हैं और दुनिया झूठ को काफी देर बाद समझ पाती है। लेकिन तक नफा-नुकसान का बड़ा खेल अपना गुल खिला चुका होता है। 
सोशल कहें या इन्टरनेट मीडिया जो भी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जरिया मान लेना भी गलत है क्योंकि इसका जितना बड़ा दायरा है उतने ही बंधन। ऐसी स्वतंत्रता व अनाप-शनाप कुछ भी लिख-पढ़ और बोलने की आजादी किसी को नहीं है जो किसी दूसरे के मान-सम्मान या निजता को चोट पहुंचाती हो। इसका ताजा उदाहरण हाल ही में राहुल गांधी लोकसभा सदस्यता खत्म कर देने के उदाहरण से समझा जा सकता है।
 अक्सर अविश्वसनीय स्त्रोतों और आधी-अधूरी जानकारियों के चलते ही झूठी खबरें इतनी तेजी से फैलती यानी वायरल होती हैं कि अक्सर समझदार लोग भी गच्चा खा जाते हैं। कई मौकों पर देखने में आता है कि ऐसी खबरों से शहरों से लेकर गांवों तक लोग बेचैन हो जाते हैं। उत्तेजना फैल जाती है और लोग और समूह बिना सिर पैर की बातों के कारण गुस्से में आकर बड़ी-बड़ी घटनाएं तक कर बैठते हैं। ऐसे अनेक उदाहरण मिलेंगे जहां दुनिया भर में कई प्रान्त और देश तक झूठी खबरों की झुलसन में बदहाल और बेहाल होते देखे गए। वाकई में सोशल मीडिया एक ऐसा बिना बारूद का बम बन चुका है जिससे किसी न किसी स्थान पर माहौल तनावपूर्ण हो जाता है। 
 अब केंद्र सरकार का सूचना प्रौद्योगिकी संशोधन नियम, 2023 जो 2021 के संशोधन नियमों के साथ 6 अप्रैल, 2023 को जारी होते ही लागू हो गया है। इस पर लोगों की मिलीजुली प्रतिक्रिया हैं। जहां कई इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ कुठाराघात तो कई सोशल मीडिया में  झूठे समाचारों की पहचान करने के सरकार के अधिकार को सही मानते हैं। हालाकि एडिटर्स गिल्ड ऑफ  इंडिया का भी मानना है कि ये प्रेस की आज़ादी पर हमला है। अब इलेक्ट्रॉनिकी और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के अधीन एक संस्था तय करेगी कौन-सी सोशल मीडिया पोस्ट या खबर भ्रामक है। इसके दायरे में गूगल, फेसबुक, ट्विटर, यू-ट्यूब से लेकर हर तरह की समाचार और गैर-समाचार कम्पनियां आएंगी। सच तो यह है कि यह विशेषाधिकार कानून मध्यस्थ को उसके यूजर के किसी भी आपत्तिजनक सामग्री ऑनलाइन पोस्ट करने पर उन्हें कानूनी कार्रवाई होने से बचाता है, लेकिन फर्जी या गलत जानकारी को न हटाने की स्थिति में प्लेटफार्म्स भी जद में होंगे तथा कॉन्टेंट को परोसने वाला यूजर तो दोषी होगा ही। यकीनन सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म सेवा देने वाले से ज्यादा सेवा लेने वाले की ज़िम्मेदारियों और सोच से ही समाज में सकारात्मक ज़िम्मेदारियां निभा सकता है वरना मुकद्दमों से लदी भारतीय न्याय प्रणाली पर एक बोझ से ज्यादा कुछ नहीं साबित होगा।