सरकारी कमेटी के हवाले हुआ सेम-सेक्स का मुद्दा

सुप्रीम कोर्ट ‘सेम-सेक्स जोड़ों की वास्तविक मानवीय चिंताओं’ का समाधान तलाश करना चाहता है, लेकिन अदालत में हुई अब तक की बहस से ऐसा प्रतीत होता है कि केंद्र सरकार इस किस्म के जोड़ों को आपस में यौन संबंध स्थापित करने से अधिक का अधिकार देने की इच्छुक नहीं है। शायद यही वजह थी कि जब सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे का संज्ञान लेना तय किया तो केंद्र ने इस पर आपत्ति दर्ज करते हुए कहा कि यह अति संवेदनशील सामाजिक व कानूनी मुद्दा है जोकि संसद के विशिष्ट कानून गठन अधिकार के तहत आता है, इसलिए यह सुप्रीम कोर्ट की क्षमता व कार्यक्षेत्र से बाहर का मामला है। सुप्रीम कोर्ट ने सरकार के इस दृष्टिकोण को मानने से इंकार कर दिया, विशेषकर इसलिए कि इस मुद्दे को केंद्र सरकारें काफी लम्बे समय से टाले जा रहीं थीं, यही वजह है कि अदालत ने अपनी कार्यवाही जारी रखी। 
बहरहाल, सरकार ने भी कोशिश करना बंद नहीं किया और 3 मई 2023 को उसने सुप्रीम कोर्ट में अपनी तरफ  से जो तीन मुख्य बातें रखीं, उन सबका उद्देश्य यही प्रतीत होता है कि किसी भी सूरत में अदालत इस विषय पर अंतिम निर्णय न दे बल्कि इसे सरकार व संसद के लिए छोड़ दे। एक- यौन संबंध स्थापित करने का अधिकार विवाह करने का मौलिक अधिकार नहीं है। दूसरे शब्दों में, 2018 के नवतेज जौहर मामले में समलैंगिक संबंध को जो अपराध की श्रेणी से बाहर निकाला गया था, उसका अर्थ यह नहीं है कि एलजीबीटीक्यूआईए़ समुदाय को यह मौलिक अधिकार दे दिया गया है कि वह अपने ‘विवाह’ के लिए संवैधानिक मान्यता की मांग करें। सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा, ‘पार्टनर चयन करने का मतलब आवश्यक रूप से यह नहीं है कि स्थापित कानूनी प्रक्रिया से ऊपर उठकर ऐसे व्यक्ति से ‘विवाह’ करने का अधिकार मिल गया है।’
दो- सरकार नहीं चाहती कि विशेष विवाह अधिनियम की वैधता की जांच इस आधार पर की जाये कि इसमें सेम-सेक्स विवाह का प्रावधान नहीं है। उसका कहना है कि कानून ने यौन झुकाव को विवाह का आधार मानने की कभी कल्पना ही नहीं की थी। गौरतलब है कि धार्मिक संगठनों की आपत्तियों को मद्देनज़र रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि वह सेम-सेक्स विवाह के मुद्दे को पर्सनल लॉज़ की नहीं बल्कि विशेष विवाह अधिनियम की दृष्टि से देखेगा। लेकिन अटॉर्नी जनरल आर वेंकटरमानी ने अदालत से कहा कि विशेष विवाह अधिनियम के तहत सेम-सेक्स विवाह को मान्यता देना अनेक विधानों  व आपराधिक कानूनों में परिवर्तन किये बिना अवैध होगा, इसलिए इस अधिनियम की जांच न की जाये।
तीन- केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि वह काबिना सचिव के नेतृत्व में एक समिति का गठन करेगी जो विभिन्न मंत्रालयों से को-आर्डिनेट करेगी और सेम-सेक्स जोड़ों के समक्ष जो रोजमर्रा की समस्याएं आती हैं उनके, जहां तक कानून संभव हो सकेगा, प्रशासनिक समाधानों का पता लगायेगी। चूंकि सेम-सेक्स जोड़ों की ‘वास्तविक मानवीय चिंताओं’ का हल निकालने के लिए ‘एक से अधिक मंत्रालय’ की आवश्यकता होगी’ इसलिए तुषार मेहता के अनुसार, ‘काबिना सचिव के नेतृत्व में कमेटी का गठन किया जायेगा। याचिकाकर्ता अपने सुझाव और जिन समस्याओं का वह सामना कर रहे हैं, मुझे दे सकते हैं। कमेटी उन सबका संज्ञान लेगी।’ कमेटी सेम-सेक्स जोड़ों की रिहाइ, बीमा, पेंशन, प्रोविडेंट फंड आदि समस्याओं का प्रशासनिक हल निकालने का प्रयास करेगी। आपने गौर किया कि इसमें सेम-सेक्स जोड़ों को विवाह का अधिकार देने पर विचार करने का कोई ज़िक्र नहीं है, जबकि इन जोड़ों को यही हक विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत चाहिए। बहरहाल, भारत के मुख्य न्यायाधीश डीव्हाई चंद्रचूड़ के नेतृत्व वाली पांच-सदस्यों की खंडपीठ को तुषार मेहता का प्रस्ताव कुछ खास अच्छा नहीं लगा और न्यायाधीश एसआर भट ने कहा, ‘सब या कुछ नहीं वाला दृष्टिकोण मत अपनाओ।’’ हालांकि इसे प्रशासनिक कहा जा रहा है, लेकिन इससे नियमों, शायद कानून में भी परिवर्तन करना पड़े।
वैसे याचिकाकर्ताओं ने अपनी समस्याओं का कमेटी द्वारा प्रशासनिक हल निकालने का विरोध नहीं किया, लेकिन उनको लगता है कि कमेटी का गठन अक्सर मुद्दे के समाधान हेतु नहीं बल्कि उसे लम्बे समय तक टालने के लिए किया जाता है। हाल ही में हमने देखा है कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर के पहलवानों की समस्या के संदर्भ में इस साल जनवरी में कमेटी का गठन किया गया था, जिसका कोई नतीजा नहीं निकला और पहलवानों को अपनी मांगों के सिलसिले में अप्रैल में फिर से नई दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना-प्रदर्शन पर बैठना पड़ा है और उन्हें यौन उत्पीड़न मामले में एफआईआर दर्ज कराने के लिए भी सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेना पड़ा है। दरअसल, कमेटी ऐसे लोगों का जमावड़ा होती है, जो अकेले कुछ नहीं कर पाते और मिलकर तय करते हैं कि कुछ नहीं किया जा सकता। 
दूसरी ओर सरकार का दृष्टिकोण एकदम स्पष्ट प्रतीत होता है कि वह सेम-सेक्स विवाह को मान्यता देने के पक्ष में नहीं है। उसे लगता है कि यह अधिकार देने से एक ‘नये धर्म का उदय’ हो जायेगा और हेट्रोसेक्सुअल व्यक्तियों में भी ‘नये रीति रिवाज’ विकसित हो जायेंगे। इसलिए सरकार ने अदालत में कहा कि प्रेम व दया व्यक्त करने का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 19(1)(ए) के तहत आ सकता है, लेकिन इसे मान्यता प्राप्त सामाजिक कानूनी संस्था (पढें विवाह) की आवश्यकता नहीं है। केंद्र के इसी दृष्टिकोण को आगे बढ़ाते हुए मध्य प्रदेश राज्य के लिए पेश होते हुए वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी ने अदालत से कहा कि सामाजिक व सांस्कृतिक क्रांतियों के लिए भारत प्रयोग का मैदान नहीं होना चाहिए। उनके अनुसार, इससे किसी को इंकार नहीं है कि सेम-सेक्स संबंध भारतीय समाज व संस्कृति का हिस्सा रहे हैं, उन्हें सम्मान भी दिया गया, लेकिन विवाह का अधिकार नहीं क्योंकि प्रजनन सभी विवाह कानूनों के केंद्र में रहा है। अत: ‘सेम-सेक्स विवाह को मान्यता देकर सुप्रीम कोर्ट को भारत पर सामाजिक या सांस्कृतिक क्रांति नहीं थोपनी चाहिए जब समाज इसके लिए तैयार न हो। सुप्रीम कोर्ट अपने सबरीमाला निर्णय को ही देख ले’। संक्षेप में यह कि सरकार नैतिक मूल्यों में यथास्थिति के पक्ष में है, अब सुप्रीम कोर्ट उसकी बात को स्वीकार करता है या नहीं, यह कुछ सप्ताह बाद ही मालूम हो सकेगा।
 

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर