चिकित्सा जगत के लिए बहुत उपयोगी है-तारपीडो मछली 

तारपीड़ो विश्व के प्राय: सभी उष्णकटिबंधीय और समशीतोष्ण सागरों एवं महासागरों में पायी जाती है। यह रेतीले अथवा मिट्टी वाले तलों पर रहना पसंद करती है। यह अकेली या छोटे-छोटे झुंडों में पायी जाती है। इसकी 36 प्रजातियां हैं। सबसे बड़ी तारपीड़ो नोबिलियाना है, इसे काली तारपीड़ो भी कहते हैं। यह उत्तरी अटलांटिक महासागर में पायी जाती है। काली तारपीड़ो की लंबाई लगभग 1.5 मीटर और वजन 45 किलोग्राम तक होता है। विश्व की सबसे छोटी तारपीड़ो तस्मानिएन्सिस है। इसकी अधिकतम लंबाई 42.5 सेंटीमीटर होती है तथा ऑस्ट्रेलिया के आसपास के सागरों में पायी जाती है। 
अधिकांश तारपीड़ो मछलियों का शरीर डिस्क की तरह चपटा होता है, इसके सिर और छाती के फिंस इसकी शरीर की तुलना में काफी बड़े होते हैं। शरीर के अंत में एक छोटी और पतली पूंछ होती है। तारपीड़ो के विद्युत उत्पादक अंग इसके सिर के दोनों ओर होते हैं। तारपीड़ो की छाती के दोनों मीनपंखों पर बड़े-बड़े विद्युत उत्पादक अंग होते हैं। ये उत्पादक अंग चार मांसपेशियों द्वारा नियंत्रित किये जाते हैं। ये चारों मांसपेशियां अनेक शाखाओं और उपशाखाओं में विभक्त होती हैं। इनके सिरे बहुत पतले होते हैं। तारपीड़ो एक सुस्त और आलसी मछली है। यह सागर तल की रेत अथवा मिट्टी में आराम से पड़ी रहती है और सिर्फ भूख लगने पर शिकार के लिए सक्रिय होती है। इसका प्रमुख भोजन छोटी मछलियां हैं। यह अपने शिकार पर ऊपर से कूदकर उसे ढक लेती है और छाती के बड़े-बड़े मीनपंख शिकार के चारों और लपटे लेती है और अपनी विद्युत धारा से इसे अचेत कर देती है और इसके बाद आराम से उसे चट कर जाती है। इसकी विद्युत धारा बेहद शक्तिशाली होती है, जिससे यह अपने से भी बड़ी मछली को आसानी से मार सकती है। अधिकांश तारपीड़ो मछलियां 50 से लेकर 60 वोल्ट तक की विद्युत धारा उत्पन्न कर सकती हैं। बड़े आकार की तारपीड़ो मछलियां तो 200 वोल्ट अथवा उससे भी अधिक शक्ति की विद्युत धारा उत्पन्न कर सकती है।
तारपीड़ो मछली अंडे न देकर जीवित बच्चों को जन्म देती है। इसके नवजात बच्चे की लंबाई 12.5 सेंटीमीटर से 25 सेंटीमीटर तक हो सकती है। तारपीड़ो के नवजात बच्चे के छाती के मीनपंख सिर से जुड़े हुए नहीं होते, शारीरिक विकास के साथ ही छाती के मीनपंख भी बढ़ते रहते हैं तथा अंत में बढ़ते-बढ़ते सिर के दोनों तरफ जुड़ जाते हैं। इसके बाद तारपीड़ो का बच्चा गोलाकार अथवा अंडाकार दिखाई देने लगता है, कभी-कभी इसके बच्चों के छाती के मीनपंख सिर से नहीं जुड़ पाते, जिसके कारण बच्चे जीवनभर असामान्य स्वरूप के बने रहते हैं। तारपीड़ो शिकार को झपटकर उसे अपने छाती के मीनपंखों से लपेट लेती है और अपनी जहरीली धमनियों से ऐसी तरंगे छोड़ती है, जिससे शिकार अचेत हो जाता है। ये तरंगे पानी में दूर दूर तक फैल जाती हैं और मछुआरे के हाथों को भी प्रभावित करती हैं तथा उनके खून को जमा देती हैं। 
इसकी इसी विशेषता के कारण रोम के चिकित्सों द्वारा तारपीड़ो का उपयोग गठिया, सिरदर्द और इसी तरह के अन्य दर्दों को दूर करने के लिए किया जाता था। बड़े आकार की एक तारपीड़ो को पकड़कर मरीज को उस पर खड़ा कर दिया जाता था, सिरदर्द दूर करने के लिए छोटे आकार की तारपीड़ो को पकड़कर उसे मरीज की कनपटी पर बार-बार ठोका जाता था, इससे मरीज को बिजली के हल्के-हल्के झटके लगते थे और उसका सिरदर्द दूर हो जाता था। आजकल इसका शिकार कम किया जाता है। यही वजह है कि सागरों और महासागरों में यह अच्छी तादाद में मौजूद है।


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