कर्नाटक के नतीजों ने तेलंगाना के चुनाव को बनाया दिलचस्प

कर्नाटक में कांग्रेस की शानदार जीत ने पड़ोसी राज्य तेलंगाना के आगामी विधानसभा चुनाव को बेहद दिलचस्प बना दिया है। तेलंगाना में इसी वर्ष तीसरे विधानसभा चुनाव होंगे। आंध्र प्रदेश से अलग होने के बाद भारत के इस सबसे युवा राज्य में अभी तक दो विधानसभा चुनाव हुए हैं, जिनमें के. चन्द्रशेखर राव की भारत राष्ट्र समिति (बीआरएस, जिसका उस समय नाम तेलंगाना राष्ट्र समिति, टीआरएस था) ने क्रमश: 63 (2014) व 88 (2018) सीटें हासिल की थीं, जो 119 सदस्यों की विधानसभा में बहुमत के लिए पर्याप्त थीं। इस तरह राव राज्य के पहले मुख्यमंत्री बने। राव ने पिछले दो वर्ष के दौरान सार्वजनिक तौर पर अपनी राष्ट्रीय राजनीतिक महत्वकांक्षाओं को व्यक्त किया है, जो उसी सूरत में परवान चढ़ सकती हैं कि पहले वह तेलंगाना में अपने लिए लगातार तीसरा मुख्यमंत्री का टर्म हासिल करें।
बहरहाल, तीसरे टर्म के लिए राव के समक्ष कड़ी चुनौतियां हैं। कर्नाटक में हार के बाद भाजपा निश्चित रूप से तेलंगाना के ज़रिये दक्षिण भारत में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए पूरा ज़ोर लगा देगी। तेलंगाना के उप-चुनाव में भाजपा ने बहुत ध्यानपूर्वक पिछड़ी जातियों को एकजुट करके जीत हासिल की थी और वह भी तब जब हैदराबाद के महानगर पालिका चुनाव में वह राव की बीआरएस का कड़ा मुकाबला करते हुए दूसरे स्थान पर रह चुकी थी। दूसरी ओर कर्नाटक में शानदार कामयाबी दर्ज करने के बाद कांग्रेस के हौसले भी बुलंद हैं, जबकि आंध्र प्रदेश के विभाजन के बाद वह तेलंगाना में बहुत कमज़ोर हो गई थी। वैसे तेलंगाना की दलित वोटों में मायावती की बसपा भी सेंध लगाने की कोशिश में लगी हुई है, जिसका मुकाबला करने के लिए कांग्रेस अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे पर भरोसा किये हुए है। 
इस पृष्ठभूमि में देखा जाये तो इस बार तेलंगाना में बीआरएस, भाजपा व कांग्रेस के बीच में ज़बरदस्त त्रिकोणीय मुकाबला संभावित है, जिसमें इन पार्टियों की किस्मत को बिगाड़ने या संवारने की भूमिका में मायावती की बसपा और असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम (जो हैदराबाद व सिकंदराबाद में मज़बूत है) होंगी। राव की अपने गठबंधन पर पकड़ ढीली होती जा रही है, ऊपर की ओर उठते हुए सक्रिय जातीय गुट प्रभावी रेड्डी समाज और राव के अपने जाति आधार वेलमा के विरुद्ध अधिक मुखर होते जा रहे हैं। विरोधाभास देखिये कि यह मुखरता राव की ही कल्याणकारी योजना के कारण आयी है, जिससे पिछड़ी जातियों में आर्थिक सुधार आया है और अब वह सामाजिक व राजनीतिक समता के लिए आवाज़ उठा रही हैं। 
भाजपा इन्हीं पिछड़ी जातियों को टारगेट कर रही है। छोटी छोटी कृषि भूमि हासिल करने वाली पिछड़ी जातियों में सबसे बड़ा गुट मुन्नुरु कापुस का है, भाजपा इसी के ज़रिये अपना दांव खेल रही है। कर्नाटक में कांग्रेस की जीत के बाद टकराव की राजनीति करने वाले तेलंगाना के मुख्यमंत्री को अपनी चुनावी रणनीति की समीक्षा करनी पड़ेगी, विशेषकर राष्ट्रीय मंच पर अपनी महत्वकांक्षाओं को मद्देनज़र रखते हुए। चूंकि राष्ट्रीय स्तर पर दोनों बीआरएस व कांग्रेस का मुकाबला भाजपा से होना है, इसलिए ऐसी भी संभावनाएं उत्पन्न हो सकती हैं कि बीआरएस व कांग्रेस हाथ मिला लें, लेकिन राजनीति में सब कुछ मुमकिन होने के बावजूद सियासी पंडितों का अनुमान है कि ऐसा चुनाव पूर्व होना कठिन है, क्योंकि कर्नाटक के बाद कांग्रेस लोकसभा चुनाव के लिए अनुमानित विपक्षी एकता में अपनी सौदेबाज़ी की शक्ति बढ़ाना चाहती है।
बहरहाल, तेलंगाना में अपनी चुनावी रणनीति की समीक्षा भाजपा को भी करनी पड़ेगी। कर्नाटक के चुनाव ने बता दिया है कि धर्म आधारित ध्रुवीकरण की राजनीति की सीमाएं हैं, विशेषकर जनता जब महंगाई, बेरोज़गारी आदि जीवन-संबंधी मुद्दों से दो-चार हो रही हो। दूसरा यह कि स्थानीय चुनाव में लोग स्थानीय उम्मीदवारों व स्थानीय मुद्दों को मद्देनज़र रखते हुए मतदान का निर्णय लेते हैं न कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषणों को सुनकर, जो अक्सर उन्हीं के व्यक्तिगत ‘अनुभवों’ पर केंद्रित होते हैं। तेलंगाना में भाजपा फिलहाल अपने आक्रामक हिंदुत्व व अन्य पार्टियों से दल-बदल करवा कर कांग्रेस की कीमत पर अपना बेस तैयार कर रही है ताकि बीआरएस का मुकाबला किया जा सके। कर्नाटक में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित सभी सीटों पर कांग्रेस ने जीत दर्ज की थी। लेकिन तेलंगाना में अपने दलित झंडे के साथ अचानक मायावती भी मैदान में कूद गई हैं। मायावती जितना अधिक दलितों को अपनी ओर आकर्षित करेंगी उतना ही नुकसान कांग्रेस को होगा। इसमें कोई दो राय नहीं  कि बढ़ती चुनौतियों के बीच कांग्रेस के पास तेलंगाना में संगठनात्मक ढांचा है, अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करने के लिए, खासकर कर्नाटक की जीत के बाद। 
ऐसे में नये जोश के साथ उभरे खड़गे, जिनकी दलित पृष्ठभूमि भी है, दलित मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित कर सकते हैं। दलितों की पूरे राज्य में ही मज़बूत उपस्थिति है। दिलचस्प यह है कि दलितों की जिस उपजाति को बसपा आकर्षित कर रही है, वह कांग्रेस के आधार से ओवर-लैप करती है। अखाड़े में नये खिलाड़ी के आगमन को कांग्रेस पैनी निगाह से देख रही है। यह सोचने की बात है कि जो बसपा अपने पूर्व गढ़ उत्तर प्रदेश में सांस लेने के लिए तरस रही है, वह एक दूरवर्ती राज्य तेलंगाना में मुकाबले के लिए क्यों उतरी है। राजनीतिक पंडितों को इसमें भाजपा का अदृष्य हाथ दिखायी दे रहा है, जो दोनों केंद्र व उत्तर प्रदेश में सत्ता में है। कांग्रेस के वोट में जो भी विभाजन होगा और द्विपक्षीय टकराव (जैसा कि अभी तक तेलंगाना में होता आया है) की बजाय जो भी बहुकोणीय मुकाबला होगा उसमें भाजपा को ही लाभ होगा, जिसे वैसे भी दलितों का नाममात्र ही समर्थन मिलता है। 
दूसरी ओर कांग्रेस के प्रबंधकों को उम्मीद है कि तेलंगाना में खड़गे मतों को आकर्षित करने का नया केंद्र बिंदु बन जायेंगे। गत वर्ष अक्तूबर में कांग्रेस का अध्यक्ष बनने के बाद से खड़गे ने अपने गृह राज्य कर्नाटक के अतिरिक्त तेलंगाना पर भी फोकस किया है। तेलंगाना में फिलहाल जो चुनावी नक्शा बनता जा रहा है, वह यह है कि राव की बीआरएस अपने परम्परागत रेड्डी व वेलमा समुदायों को लेकर अपनी कल्याणकारी योजनाओं पर भरोसा किये हुए है कि वह राज्य में जीत की हैट्रिक लगा देगी, लेकिन राव को केवल सत्ता-विरोधी लहर का ही सामना नहीं करना पड़ेगा बल्कि उन्हें भाजपा के अतिरिक्त उत्साही कांग्रेस से भी मुकाबला करना होगा। राव की पार्टी का देवगौड़ा की जनता दल (एस) से गठबंधन है, लेकिन उसने कर्नाटक में चुनाव नहीं लड़ा था ताकि सत्ता-विरोधी मतों में विभाजन न हो। अब तेलंगाना में त्रिकोणीय मुकाबले की उम्मीद है, जहां क्षेत्रीय पार्टी अधिक मज़बूत है। तेलंगाना में हर वह चीज़ मौजूद है जो कर्नाटक के नतीजे के बाद चुनाव को अधिक दिलचस्प बना देगी।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर