मैं गददार तो नहीं हूं

 

(क्रम जोड़ने के लिए पिछला रविवारीय अंक देखें)

उसके ख़्याल फिर पीछे की ओर दौड़ने लगे थे। ये जो कुछ लम्हे उसकी ज़िन्दगी के, उसके जिस्म को छू कर गुज़र गये थे, यह सब कुछ यूं ही हो गया तो नहीं लगा था। कई तरह के इत्तेफाक का हो गुज़रना भी कोई इत्त़ेफाक तो बिल्कुल नहीं था, हालांकि यह इत्तेफ़ाक ही था, कि उस दिन घर में नौकर-चाकरों के अलावा और कोई भी ज़िम्मेदार शख़्स नहीं था। यह भी तो शायद मिलता-जुलता इत्त़ेफाक ही था कि फौज का वह क़ािफला भी उसी दिन उधर से हो गुज़रा था। असल में इस बार उसके तहैया कर लेने के पीछे वो घटना अहम हो गुज़री थी जब एक बार फिर ज़ुबानी तलाक, तलाक,तलाक कह कर उसे तलाक दे दिया गया, और फिर इद्दत के बहाने उसे एक पाकिस्तानी जासूस से निकाहनामा करने को मजबूर किया गया था। इस पाकिस्तानी जासूस का कई बार उनके घर में आना-जाना लगा रहता था। अक्सर जितनी भी आला और अहम जानकारियां होतीं, उनका देना/दिलाना इन्हीं दिनों होता। जब भी उसका हिन्दुस्तान में आना होता, तो घर की किसी भी खातून/लड़की को निकाह के लिए तैयार किया जाता। अफसर की मांग पर, अगली बार किस को दुल्हिन बनना होगा, यह भी फैसला कर लिया जाता।
इस बार फिर उसकी बारी थी। इसका फैसला पिछली बार ही कर लिया गया था शायद...हालांकि उसके कानों में इसकी कनसोअ कई दिनों के बाद पड़ी थी। उसने महसूस किया था, कि इस बार हवा कुछ बदली-बदली सी है। शायद कुछ गोपनीय ही रहा होगा...तभी तो निकाह के लिए उसका ही चुनाव हुआ है। खानदान की तमाम खातून से उसे ज्यादा ़खूबसूरत होने का ़रुतबा हासिल है।
इस खानदान की यह रवायत रही है कि इसकी किसी खातून को घर से बाहर नहीं जाने दिया जाता। खानदान की शाखाएं बड़ी लम्बी हैं। किसी न किसी तरह का ताना-बाना जोड़ कर, किसी का भी रिश्ता बना दिया जाता है। इसके लिए किसी को तलाक देना पड़े, अथवा इद्दत निभानी पड़े, ज़रा-सी भी किसी के एहसासात की परवाह नहीं की जाती। घर की किसी भी लड़की की उम्र निकाह के लायक होने से पहले ही उसके लिए खाविंद या शौहर का फैसला भी हो जाता है। सिर्फ एक मां के पेट का रिश्ता गुनाह होता है, बाकी कहीं से भी ज़रिया ढूंढ ही लिया जाता है। वैसे भी, हमारे मज़हब में औरत कोई भी हो, मर्द के लिए हलाल होती है।
उसकी अपनी मौजूदा अम्मी उसके अब्बू की तीसरी ब़ेगम है। उसकी अम्मी के भी इससे पहले तीन शौहर हो चुके हैं। वह ़खुद अपनी अम्मी के दूसरे शौहर नूर बख़्श की पहली औलाद है। उसके अब्बा अब इस जहान-ए-़फानी से रुख़्सत हो चुके हैं। पहली बार जब उसे तलाक दिया गया था, तो उसकी इद्दत के चालीस दिन उसे अपनी ही अम्मी के पहले शौहर नूर बेग के छोटे भाई अली यार खां के साथ बिताने पड़े थे जो उम्र में अपनी बीवी से तेरह साल छोटा था।
इसके बाद उसका अगला निकाह एक पाकिस्तानी टैरेरिस्ट के साथ हुआ था जो दसवें ही रोज़ तीन बार तलाक बोल कर वापिस अपने वतन लौट गया था। असल में इस ़खानदान में होता यह है कि जब भी किसी मर्द या औरत का निकाह करना होता है तो किसी और का तलाक करा दिया जाता है। इद्दत को लेकर भी इस खानदान की रवायात काफी सख्त हैं। यदि किसी की मौत अथवा दीगर किसी कारण से झटपट निकाह करना पड़े, तो इद्दत की रस्म का सिलसिला मौलवी साहिब से भी निभा लिया जाता है, किन्तु इद्दत के चालीस दिन बिताये बिना क्या मजाल है जो कोई मर्द या औरत किसी दूसरे मर्द-औरत को छू भी जाए। इस खानदान से वाबस्ता मौलवी साहिब भी इसी खानदान के खून के रिश्ते से जुड़े हैं। सभी उनकी बड़ी इज्ज़त और कद्र करते हैं।
इस खानदान में यह खेल पिछले कई सालों में कई बार खेला जा चुका है, परन्तु कभी किसी ने इसे लेकर कोई शिकायत नहीं की। शिकायत करने को ब़गावत माना जाता है और ब़गावत का मतलब होता है बेपनाह मार-पीट या फिर गुमनामी की मौत। लिहाज़ा कोई भी औरत मुंह नहीं खोलती। कोई एक किसी दूसरी से कभी किसी राज़ को तसलीम भी नहीं करती क्योंकि पता नहीं, अगली बारी किस की आ जाए। लेकिन इस बार उसने ब़गावत का फैसला कर ही लिया था, और फौजी अफसर की जानिब फैंका गया ़खत इसी ब़गावत का ही नतीजा था।  

(क्रमश:)