हत्या होते देख लोग मुंह क्यों फेर लेते हैं ?

 

सरेआम हिंसा, अपहरण, लूटपाट, डकैती और दंगा-फसाद करने वालों को रोकने, उनका सामना करने की हिम्मत दिखाना तो दूर, नज़र बचाते हुए घटनास्थल से हट जाना या अपने घर के खिड़की दरवाज़े बंद कर लेना और ऐसे छिपना कि कहीं कोई देख न ले कि हमारे सामने यह वारदात हुई है। यह किसी कमज़ोरी, हृदयहीनता या अपने सामाजिक दायित्व और कर्त्तव्य से पीछे हटना नहीं है बल्कि संविधान और कानून द्वारा सामान्य और साधारण जीवन जीने वाले व्यक्तियों की सुरक्षा की कोई गारंटी या व्यवस्था न होना है।
विश्लेषण
एक बस्ती में एक बीस साल का लड़का सोलह साल की लड़की पर चाकू से वार पर वार कर रहा है। चाकू शरीर में धंस गया और बाहर नहीं निकाल पाया तो उसने आसपास से पत्थर उठाकर मारने शुरू कर दिए। यह संतोष होने पर कि लड़की मर चुकी है, वह वहां से सीना तानकर निकल जाता है। वहां जमा हुए लोग भी चले जाते हैं, अपने घरों में बंद हो जाते हैं।
सोचिए कि ये लोग क्या कर सकते थे और क्यों नहीं किया—ये लोग उसे ललकार सकते थे, कुछ लोग मिलकर उसे पकड़ सकते थे, तुरंत घर से लाठी, चाकू जैसी चीज़ या कहीं से पत्थर उठाकर उस पर वार कर सकते थे। सब मिलकर उसे पकड़ कर बेबस कर सकते थे और उस पर घातक हमला कर सकते थे, यहां तक कि लड़की को बचाने के लिए उसकी जान भी ले सकते थे, लेकिन उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया और तमाशबीन की तरह देखते रहे। क्या यह इसलिए हुआ होगा वे संवेदनहीन थे, जी नहीं, उनमें संवेदना थी, डर से सहमे होंगे, घबराये होंगे और हत्यारे के जाने के बाद चैन की सांस ली होगी, आपस में कुछ बातें बनाई होंगी और चले गये होंगे।
ऐसी और भी घटनाएं हो सकती हैं जैसे दिन-दहाड़े लूटपाट, डकैती या दंगा फसाद जिनके आप साक्षी हो सकते हैं। आप झगड़ा करने वालों से लेकर आगज़नी करने वालों तक को देखते हैं, पहचानते भी हैं, लेकिन मुंह से एक शब्द भी इनके खिलाफ बोलने से कतराते हैं, सब कुछ होने देते हैं और क्रोधित भी होते हैं, लेकिन आगे बढ़कर कोई कार्यवाही करने का साहस नहीं जुटा पाते। आपकी जान-माल का नुकसान हो जाए, दंगाइयों द्वारा उजाड़ दिया जाए, बेघर कर दिया जाए तो भी चुप बैठने में ही अपनी सलामती समझते हैं।
ऐसा नहीं है कि हम सब लोगों में मानवीयता नहीं है, किसी के दर्द से दु:खी नहीं होते, कुकर्मियों और अत्याचारियों को रोकना या उनके खिलाफ बोलना या कोई कदम नहीं उठाना चाहते, हम सब अपनी ज़ुबान पर ताला इसलिए लगा लेते हैं, क्योंकि संविधान और कानून हमारी रक्षा करने में असमर्थ है। उदाहरण के लिए मान लीजिए आपने पहली घटना में हत्यारे को पकड़ लिया होता, उसे मिलकर घेर लिया होता और ऐसे में कहीं उसकी मौत हो जाती तो आपके ऊपर भी हत्यारे की हत्या का आरोप लग सकता था और आपको भी सज़ा हो सकती थी। अब भुगतिये पेशी दर पेशी, जीना तक कठिन हो जाए, सुख चैन लुट जाए, अपने काम-धंधे, नौकरी से भी हाथ धोने की नौबत आ सकती है।
गवाही देना, संकट को न्यौता
कोई भी वारदात होने के बाद सबसे पहला काम पुलिस या कानून के रखवालों को यह करना होता है कि वे चश्मदीद गवाहों की खोजबीन कर, उन्हें गवाही देने के लिए मनाने से लेकर दबाव डालने तक का काम करते हैं। कोई भी व्यक्ति इसके लिए आगे नहीं आना चाहता, क्योंकि गवाह को हर समय अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा का भय सताता रहता है। जब टीवी और अख़बारों में अपराधियों द्वारा गवाह की हत्या करा दिये जाने की बात सुनता है तो उसकी रूह तक कांप जाती है। गवाही के लिए अदालत जाता है तो वहां तारीख़ पर तारीख़ का सामना करता है। उसे चपरासी धकेलता हुआ भीड़ से निकाल कठघरे तक ले जाता है। अपराधी और उसके गुर्गे उसकी पहचान कर लेते हैं। वकील ऐसे-ऐसे सवाल पूछते हैं कि अच्छे भले आदमी को चक्कर आ जाएं। यह तक सिद्ध करने की कोशिश होती है कि यह गवाह तो गवाही के ही काबिल नहीं है, यह कहां का दूध का धुला है, उस पर दवाब पड़ता है कि या तो पीछे हट जाए वरना उसकी बर्बादी निश्चित है। 
क्या कोई उपाय है?
यह एक यक्ष प्रश्न है जिसका जवाब तो है लेकिन उस पर चलने के लिए सरकार, प्रशासन, पुलिस और न्याय व्यवस्था को एकमत होकर सर्व सम्मति से ऐसे इंतज़ाम करने होंगे जिससे लोगों को कानून और व्यवस्था पर भरोसा हो सके।
अनेक विकसित, बड़े और विकासशील देशों में गवाहों की सुरक्षा के लिए विटनेस प्रोटेक्शन एक्ट है और बहुत कड़ा है तथा उसका पालन अनिवार्य है। ऐसी व्यवस्था है कि गवाह की पहचान कभी उजागर नहीं हो सकती, उसे कोई नुकसान पहुंचना तो दूर, उस पर या उसके परिवार पर कोई हमला नहीं हो सकता। उसे एक सम्मानित मेहमान का दर्जा मिलता है। उसके आने-जाने, खाने-पीने, रहने, ठहरने और उसकी नौकरी या व्यावसायिक नुकसान का भरपूर हर्जाना दिया जाता है और यह सब इतना गोपनीय तथा पक्के तरीके से होता है कि अपराधी को सज़ा तो मिलती है लेकिन गवाह को कोई नुकसान नहीं पहुंच सकता।
हमारे यहां बहुत शोर-शराबे के बाद गवाह सुरक्षा योजना तो बनी लेकिन वह बेअसर है क्योंकि न तो उसे कानूनन अधिकार हैं, न कोई सुविधा और सुरक्षा के नाम पर अगर पुलिसकर्मी मिल भी गया तो वह अपराधियों की फौज और आधुनिक हथियारों के सामने कहां टिक पाएगा। गवाह की पहचान गोपनीय रखने का कोई बंदोबस्त नहीं तो उस पर मौत का साया मंडराता रहता है। बिना पुख्ता इंतज़ाम के गवाही देने जाते समय उसकी सांस अटकी रहती है, जब तक वापिस न आ जाये, तरह-तरह की शंकाएं परिवार को घेरे रहती हैं। हालांकि पहचान बदल कर और परिवार के साथ किसी दूसरी जगह रहने का प्रावधान है लेकिन यह ज़रा भी आसान नहीं बल्कि और भी ज़्यादा परेशानी पैदा कर सकता है क्योंकि कानून के हाथ लम्बे हों या न हों, अपराधियों की पहुंच सब जगह होती है। किसी ने कहा था कि गवाह न्याय की आंख और कान होता है। हमारे यहां जो व्यवस्था है, उससे गवाह न्याय के लिये अंधा और बहरा हो जाता है और कानून की आँखों पर तो पट्टी बंधी ही रहती है।
प्रतिदिन गलियों, चौराहों, बाज़ारों से लेकर सुनसान इलाकों में हत्याओं जैसे जघन्य अपराध होते हैं, कुछ का तो पता ही नहीं चलता और बाकी में भाग्य का लेखा मान लिया जाता है। कुछेक संगीन आपराधिक वारदातों का संज्ञान होता है, मीडिया में उनकी सुर्खियां बनती हैं और उनकी गहन जांच-पड़ताल कर रिपोर्टें भी सामने आती हैं। यह कैसा माहौल है जिसमें दबंग तो कुछ भी कर और करा सकता है परन्तु सामान्य नागरिक को निर्बल और असहाय बनकर जीना पड़ता है। इसे सिद्ध करने के लिए कोई नये उदाहरण खोजने की ज़रूरत नहीं है, कितने ही हैं जिन्हें जनता भुला नहीं पाती। अफसोस की बात यह है कि न तो अपराध थमते हैं और न ही समाज को एक सुरक्षित वातावरण और न्याय मिलता हुआ दिखाई देता है।
सरकार, प्रशासन और न्याय व्यवस्था को मिलकर इस समस्या का हल निकालना होगा कि नागरिक बेख़ौफ होकर अपने सामने हो रहे कुकृत्य की भर्त्सना कर सकें, उसे अंजाम देने वाले को रोकने के लिए साहसिक कदम उठा सकें और बिना किसी डर के अपराधी को दण्ड दिलाने में अपनी भूमिका निभा सकें। सामान्य व्यक्ति कभी कमज़ोर, डरपोक नहीं होता, वह ऐसा व्यवहार करने के लिए मज़बूर होता है क्योंकि संविधान और कानून के रखवालों से अपनी सुरक्षा मिलने का उसे कोई विश्वास नहीं होता।