देश-हित में नहीं है जनगणना का स्थगित होते जाना

अनिश्चितकाल के लिए स्थगित देश की पहली डिजिटल जनगणना के संबंध में निश्चित सूचना यह है कि अब यह 2024 के लोकसभा चुनावों के बाद होगी, लेकिन कब, यह निश्चित नहीं है। क्योंकि सरकार ने अभी भी इसके कार्यक्रमों की घोषणा नहीं की है। सरकार जानती है कि निर्धारित समय पर जनगणना न होने से देश व समाज पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। खुद सरकार का भी उससे राजनीतिक नुकसान है। विपक्षी जनगणना को लंबित रखने में सत्ताधारी दल की सियासी चाल मानते हैं, उनके आरोपों में कतिपय दम हो भी तो नि:संदेह पहले कोरोना फिर आम चुनाव जैसी परिस्थितियां सरकार के लिये तार्किक बहाना तो हैं ही। साल 2024 में आने वाली नई सरकार की प्राथमिकताओं में यह प्रमुख होगी। इसके बाद भी इसकी शुरुआत 2025 के अंक तक ही हो पायेगी। बड़े और जटिल मसले जब टलते हैं, तो वे टलते ही जाते हैं, जब तक कि कोई बड़ा जन दबाव या फिर निकट चुनावों में उससे बड़ा लाभ न मिलने वाला हो। 
जो भी हो, पर जनगणना में देरी देश के सामाजिक व आर्थिक स्वास्थ्य सुधार के लिये बहुत घातक है, इसे नीति निर्माता और आंकड़ों के जानकार भलीभांति समझते हैं। जनगणना के 2024 से आगे जाने का मतलब साफ  है कि जो नयी सरकार आयेगी, वह भी पिछली सरकार की तरह पुराने आंकड़ों के आधार पर ही सामाजिक एवं आर्थिक नीतियों का निर्माण और क्रियान्वयन करेगी। पुराने आंकड़ों के आधार पर जनहित में तैयार नीतियां और कार्यक्रम भले ही पास हों पर वास्तविक जनहित से बहुत दूर होंगे। क्योंकि साल 2025 में भी सरकार जनता की ज़रूरतों को 2011 के पैमाने से नाप रही होगी। वर्तमान में ही सरकार के सार्वजनिक वितरण प्रणाली से कम से कम 10 करोड़ लोगों के बाहर होने की आशंका है, क्योंकि लाभार्थियों की संख्या के आंकड़े 2011 की जनगणना से लिए गए हैं। मुफ्त राशन उसी का परिणाम है। 
नियमित अंतराल पर जनगणना जनसंख्या के अलावा सभी तरह के आंकड़े मुहैय्या कराती है, जो कि सर्वाधिक विश्वसनीय और समय-परीक्षित होते हैं। इनका उपयोग सरकारी एजेंसियों के साथ-साथ लोक-प्रशासन, समाज शास्त्र, राजनीति विज्ञान, जनसांख्यिकी, अर्थशास्त्र, नृविज्ञान, सांख्यिकी और अन्य विषयों के विशेषज्ञों द्वारा होता है। नियमित अंतराल पर मिले आंकड़े और जानकारियों को एक निश्चित क्रम में रखकर अतीत का मूल्यांकन करना, वर्तमान का सटीक वर्णन और भविष्य का अनुमान लगाना संभव होता है। सरकार इन्हीं आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर भविष्य की सामाजिक आर्थिक नीतियां बनाती है, मगर फिलहाल राज्य हो या केंद्र सरकार सभी पुराने आंकड़ों पर निर्भर है। जनसंख्या के आधार पर ही लोकसभा और विधानसभा में प्रतिनिधि की संख्या तय होती है। 1971 के बाद लोकसभा में प्रतिनिधियों की संख्या नहीं बढ़ाई गई। दक्षिण के राज्यों में जनसंख्या बढ़त की दर घटी है, उनकी सीटें कम हो सकती हैं जबकि जनगणना न होने से उत्तर के राज्यों में जहां जनसंख्या दर बढ़ी है, लोकसभा में उनका प्रतिनिधित्व जो बढ़ना चाहिये, नहीं बढ़ पाया। यह उनके लोकतांत्रिक हित पर चोट है। 
उधर साल 2001 में बने परिसीमन आयोग के सुझावों पर 2026 तक जो रोक है, नई जनगणना के बाद उसे लागू करने से पहले नयी जनगणना के आंकडों पर उसे परखना होगा अन्यथा पुराने आंकड़ों के आधार पर पहले की सभी कवायद निरर्थक साबित होगी। इसके अलावा अनुसूचित जाति, दलित और अनुसूचित जनजातियों यानी आदिवासियों के लिए संसद और विधानसभाओं में कितनी सीटें आरक्षित होंगी और उन्हें शिक्षा और नौकरी में कितना आरक्षण मिलेगा, यह भी जनसंख्या में उनकी आबादी पर निर्भर करता है। जनगणना के अभाव में उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। हालांकि सरकार के लिये यह एक नया सियासी मोर्चा होगा। उधर वित्त आयोग करों से प्राप्त राशि को केंद्र और राज्यों के बीच राज्य की ज़रूरतों और उनके आर्थिक योगदान के बीच संतुलन बनाकर बांटता है, इसके लिए राज्य की जनसंख्या एक महत्वपूर्ण मापदंड होती है। बिना नई जनगणना के यह बंटवारा भी उचित नहीं होगा और कई तरह के विवादों को जन्म देगा। 
बहरहाल सरकार ने तय कर दिया है कि जब भी जनगणना होगी, यह डिजिटल ही होगी। समय, धन, श्रम, कागज़ और स्थान की बचत के लिये यह उत्तम विचार है, परन्तु फिलहाल संकट है इंटरनेट की अनुपलब्धता, उसका अतिशय धीमा होना, डिजिटल डिवाइड, निरक्षरता और उपकरण की उपलब्धता। ये सब ऐसे कारक हैं, जिससे तय होता है कि सौ फीसदी डिजिटल जनगणना संभव नहीं है। सरकार को आंकड़े एकत्र करने के लिए अलग-अलग तरीके अपनाने ही पड़ेंगे। डिजिटल जनगणना से पहले सरकार से यह प्रश्न पूछना अनिवार्य है कि जनगणना जैसे सामुदायिक डाटा की सुरक्षा और लोगों की निजता सुरक्षित रहे, इसके लिए सुरक्षा के क्या इंतज़ाम हैं? जनसंख्या के आंकड़ाें को निजी एजेंसियों द्वारा व्यक्तिगत उपयोग में तो नहीं लिया जाएगा? जनगणना एक ही व्यक्ति द्वारा इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर होगी, तो एनपीआर वाले सवाल को अलग-अलग कैसे रखेंगे और एनपीआर में एकत्रित जानकारी पर भी क्या गोपनीयता के वही प्रावधान लागू होते हैं, जो जनगणना कानून के तहत जनगणना में दी गई जानकारियों पर लागू होते हैं? 
एक सवाल यह भी है कि सरकार जनगणना को प्राथमिकता सूची में इतना पीछे क्यों रखे हुये है? देश में जनगणना के 150 साल के इतिहास में पहली बार इसे स्थगित किया गया।  बेशक कोरोना बड़ी रुकावट थी परन्तु चीन, इंडोनेशिया, ब्रिटेन वगैरह बड़ी जनसंख्या वाले देशों ने कोरोना के आसपास या इस दौरान अपनी-अपनी जनगणना की। अमरीका ने कोरोना काल के दौरान 2020 में चरम कोविड प्रकोप के दौरान अपनी पहली डिजिटल जनगणना की। तर्क दिया जाता कि देश में जब कोरोना काल के दौरान कई राज्यों में चुनाव और बड़ी-बड़ी जनसभाएं करवाई जा सकती हैं तो जनगणना क्यों नहीं? 
जनगणना के आंकड़ों से पता चलता है कि देश ने विकास की राह पर कहां तक पहुंचा, कितना सफर बाकी है। इस बाबत सरकार की प्रशासनिक और राजनीतिक मजबूरियां समझी जा सकती है, लेकिन जनगणना का इस तरह स्थगित होते जाना देशहित में नहीं है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर