किसानों की आत्महत्याएं

किसान और खेत मज़दूरों की आत्महत्याओं के साथ संबंधित ताज़ा आंकड़े बेहद उदास करने वाले हैं। यह सिलसिला लगातार जारी है। अंग्रेज़ों के शासन के समय भी ऐसा कुछ होता था। अकाल पड़ता था, लाखों ही लोग भूख से मर जाते थे। देश की आज़ादी के बाद भी हर क्षेत्र के लोगों में आत्महत्याओं का सिलसिला जारी रहा। इसके अनेक कारण भी सामने आते रहे लेकिन इनमें किसान और मज़दूर वर्ग द्वारा आत्महत्याएं इसलिए भी अधिक चुभती हैं, क्योंकि किसानों को अन्नदाता माना और समझा जाता है। उनके द्वारा आत्महत्या करना लगातार विशाल त्रासदी को जन्म देता रहा है। तत्कालीन सरकारों ने कृषि क्षेत्र को लाभदायक बनाने  संबंधी लगातार वायदे और दावे किए। इसमें कोई शक नहीं कि आज देश अन्न के क्षेत्र में बड़े स्तर पर आत्म-निर्भर बन चुका है लेकिन किसान आज भी अनेक तरह के संकटों के साथ जूझ रहा है। 
विगत दिनों विज्ञान और वातावरण केन्द्र द्वारा प्रकाशित किसान आत्महत्याओं संबंधी 2021 का विवरण दु:ख पहुंचाने वाला है। इसमें बताया गया है कि आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 2021 से पिछले 5 वर्षों में सबसे अधिक है। मुख्य रूप से ऐसे हालात के पैदा होने के तीन कारण बताए गये हैं- फसल का खराब होना, पानी की कमी तथा नदीनों और फसली बीमारियों का होना। कृषि जो कि आज भी 60 प्रतिशत से अधिक लोगों को रोज़गार दे रही है, की तरफ अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है। आंकड़ों के अनुसार छोटे किसान और खेत मज़दूर ही ज्यादा आत्महत्याएं करते हैं। इसके कारणों में कज़र् एवं हालात से मजबूर होकर ज़मीन बेचना आदि भी शामिल है, परन्तु चिंता इस बात की है कि यह सिलसिला लगातार जारी है। देश भर का छोटा तथा अधिक छोटा किसान इसकी गिरफ्त में आया हुआ है। आंकड़ों के अनुसार महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा असम में ऐसी आत्महत्याएं हो रही हैं। पंजाब में भी वर्ष 2021 में 270 ऐसी आत्महत्याएं दर्ज की गई हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने सत्ता में आते ही यह दावा किया था कि आगामी वर्षों में किसानों की आय दोगुणा कर दी जाएगी, परन्तु इसी वर्ष मार्च महीने में कृषि संबंधी संसदीय समिति ने यह लिखा है कि सरकार 2022 में किसानों की आय को दोगुणा करने के लक्ष्य से कहीं पीछे रह गई है। इसमें किसानों को उनकी उपज का सही मूल्य न मिलना, ज़मीन के टुकड़ों का लगातार कम होते जाना भी शामिल है। विगत दशकों में प्रदेश के बड़े शहरों के साथ लगते हज़ारों ही गांव बढ़ते शहरीकरण के कारण अलोप हो गए। जो परिवार इस प्रक्रिया के दौरान भूमि से वंचित हो जाते हैं, उनका भविष्य देर-सवेर अनिश्चित हो जाता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा विगत कुछ वर्षों से प्रत्येक वर्ष ज़रूरतमंद किसानों को किश्तों में वार्षिक 6000 रुपये अवश्य दिये जा रहे हैं, परन्तु यह राशि लगातार बढ़ते संकट के सामने बहुत कम है। हम ग्रमीण क्षेत्रों के लिए इसी कारण हमेशा मगनरेगा योजना के पक्ष में रहे हैं। इसे प्रत्येक पक्ष से और भी प्रभावशाली बनाया जाना चाहिए। 
आज विश्व के बहुत-से देश तथा विशेष तौर पर विकसित देश भी आर्थिक मंदी से गुज़र रहे हैं। आंकड़े बताते हैं कि फिनलैंड, जर्मनी, आस्ट्रेलिया तथा अमरीका जैसे देशों में भी बड़ी संख्या में किसानों द्वारा अत्महत्याओं का सिलसिला जारी है। भारत को भी इस गम्भीर समस्या से जूझना पड़ रहा है, जिस का अभी तक समाधान नज़र नहीं आता। मोदी सरकार के लिए यह एक ऐसी बड़ी चुनौती है, जिसका समाधान किये बिना उसकी सफला के दावों को सही नहीं माना जाएगा। इस समस्या के प्रत्येक पक्ष की गम्भीरता से जांच करके उसका स्थायी समाधान ढूंढा जाना आज की बड़ी ज़रूरत मानी जानी चाहिए।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द