तमिलनाडु में सामने आयी रुतबे की जंग

तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने बिना विभाग के मंत्री वी सेंथिल बालाजी को मंत्री परिषद से ‘तुरंत प्रभाव’ से ‘बर्खास्त’ कर दिया और जब इस असंवैधानिक निर्णय की चौतरफा कड़ी आलोचना हुई तो कुछ ही घंटों बाद उन्होंने मुख्यमंत्री एमके स्टालिन को सूचित किया कि फ़िलहाल वह अपने फैसले को ‘स्थगित रखना’ चाहते हैं। सूत्रों का कहना है कि राज्यपाल अब इस संदर्भ में अटॉर्नी जनरल से विचार-विमर्श करेंगे। यह 29 जून की घटना है। एक राज्यपाल द्वारा मुख्यमंत्री की सलाह के बिना एक मंत्री को ‘बर्खास्त’ करने की सनसनी और फिर जल्दी से ही अपने कदम पीछे खींचने की यह घटना संभवत: आधुनिक भारत के राजनीतिक इतिहास में अप्रत्याशित है। 
गौरतलब है कि जैसे ही राजभवन से मंत्री को ‘बर्खास्त’ करने की प्रेस विज्ञप्ति जारी की गई, स्टालिन ने कहा कि राज्यपाल को ऐसा करने का अधिकार ही नहीं है और उनकी सरकार इस फैसले को कानूनन चुनौती देगी। साथ ही राज्यपाल के शुरुआती निर्णय की गैर-भाजपा विपक्षी दलों ने जमकर आलोचना की। कांग्रेस ने इसे असंवैधानिक कहते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 164 के तहत केवल मुख्यमंत्री की सलाह पर ही किसी मंत्री को हटाया जा सकता है यानी राज्यपाल को एकतरफ़ा कार्यवाही करने का अधिकार नहीं है। ‘आप’ ने भी इसे ‘पूर्णत: असंवैधानिक’ कहा, जबकि जद(यू) के अनुसार मंत्री का बर्खास्त किया जाना ‘संविधान का उल्लंघन’ था। राजद ने इस घटना को ‘लोकतंत्र की हत्या’ बताया और सपा ने कहा कि राज्यपाल ‘केंद्र के एजेंट’ की तरह काम कर रहे हैं। 
द्रमुक के मंत्री सेंथिल बालाजी को कैश-फॉर-जॉब्स केस में 14 जून, 2023 को गिरफ्तार किया गया था। उन्हें बिना विभाग के मंत्री के रूप में काबिना में बरकरार रखा गया था। इससे पहले 31 मई को राज्यपाल रवि ने मुख्यमंत्री को पत्र लिखकर कहा था कि बालाजी जो मंत्रिमंडल से हटा दिया जाये, लेकिन स्टालिन ने इसका जवाब यह दिया था कि केवल मुख्यमंत्री को ही यह फैसला करने का अधिकार है। रवि ने शुरू में बालाजी को पुन: पोर्टफोलियो आवंटित करने वाली फाइल भी वापस लौटा दी थी। बहरहाल, 29 जून 2023 को राजभवन से जारी की गई आधिकारिक प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि इस बात की उचित आशंकाएं हैं कि अगर वी सेंथिल बालाजी मंत्रिमंडल में बने रहते हैं, तो इसका कानूनी प्रक्त्रिया, जिसमें निष्पक्ष जांच भी शामिल है, पर कुप्रभाव पड़ेगा जिससे राज्य में आख़िरकार संवैधानिक मशीनरी चरमरा जायेगी...बालाजी भ्रष्टाचार के अनेक मामलों में गंभीर आपराधिक प्रक्रियाओं का सामना कर रहे हैं, जिनमें जॉब्स के लिए कैश लेना और मनी लौंडरिंग शामिल हैं। 
बतौर मंत्री अपनी पोज़ीशन का दुरुपयोग करते हुए वह जांच को प्रभावित कर रहे हैं और कानून व न्याय की उचित प्रक्रिया में अवरोध उत्पन्न कर रहे हैं। इसलिए उन्हें ‘तुरंत प्रभाव से’ मंत्रिमंडल से ‘बर्खास्त’ किया जाता है। लेकिन इस प्रेस विज्ञप्ति के चंद घंटों बाद राजभवन ने मुख्यमंत्री कार्यालय को पत्र भेजा कि राज्यपाल फिलहाल अपने ‘बर्खास्त’ आदेश को ‘स्थगित रखना’ चाहते हैं। बालाजी वर्तमान में न्यायिक हिरासत में हैं और उनके विरुद्ध जो आपराधिक मामला है उसकी जांच ई.डी. कर रही है। राजभवन के अनुसार भ्रष्टाचार निरोधक कानून और आईपीसी के तहत कुछ अन्य मामले भी बालाजी के खिलाफ  हैं, जिनकी जांच राज्य की पुलिस कर रही है। गिरफ्तारी के बाद बालाजी को अस्पताल में भर्ती करना पड़ा और चेन्नै के एक प्राइवेट अस्पताल में उनके दिल का ऑपरेशन हुआ है। 
बालाजी के विरुद्ध लगे भ्रष्टाचार के आरोप सही हैं या नहीं, जांच के बाद यह बात अदालत तय करेगी। लेकिन फिलहाल असल मुद्दा यह है कि क्या राज्यपाल को एकतरपा कार्यवाही करते हुए किसी मंत्री को बर्खास्त करने का संवैधानिक अधिकार है? क्या तमिलनाडु के राज्यपाल को अपनी अधिकार सीमाएं मालूम हैं? क्या वह केंद्र सरकार के इशारे पर तमिलनाडु सरकार को परेशान कर रहे हैं, जैसा कि गैर-भाजपा शासित राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों के क्रमश: राज्यपालों व लेफ्टिनेंट गवर्नरों पर विपक्षी दल आरोप लगाते हैं?
जहां तक तमिलनाडु के वर्तमान विवाद की बात है तो एसआर बोम्मई केस (1994) से लेकर शिवराज सिंह चौहान केस (2020) तक सुप्रीम कोर्ट ने एकदम स्पष्ट कहा है कि राज्य से संबंधित प्रशासनिक मामलों में राज्यपाल मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले मंत्रिमंडल की सलाह के बिना कोई निर्णय नहीं ले सकता। इसलिए इस मामले में राज्यपाल रवि ने अपने कार्य अधिकार क्षेत्र का स्पष्ट उल्लंघन किया है। उनका निर्णय सुप्रीम कोर्ट में तो पहली सुनवाई पर ही रद्द कर दिया जाता। शायद इस बात का एहसास होने या उचित सुझाव मिलने पर रवि ने ‘फेस सेविंग’ के तौरपर अपना फैसला स्थगन मोड में डाल दिया, जबकि उन्हें इसे वापस लेना चाहिए था। राज्यपाल केंद्रीय काबिना की सलाह पर राष्ट्रपति द्वारा नियुक्त व्यक्ति होता है, उसके पास जनता के प्रतिनिधियों से अधिक अधिकार नहीं होते हैं। संविधान के अनुच्छेद 361(1) के तहत राज्यपाल को पूर्ण इम्यूनिटी प्राप्त है और वह संसद व विधानसभा के प्रति भी जवाबदेह नहीं है, उसके फैसले की न्यायिक समीक्षा भी नहीं हो सकती, लेकिन यह तभी तक है जब तक वह मंत्रिमंडल की सहायता व सलाह से काम करे यानी वह अपनी तरफ से कोई फैसला नहीं कर सकता और करेगा तो लोकतंत्र खतरे में पड़ जायेगा। ऐसा सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात केस (2013) में कहा था। 
इस संदर्भ में गृहराज्य मंत्री अजय मिश्रा से लेकर सांसद बृजभूषण शरण तक अनेक उदहारण दिए जा सकते हैं, इसलिए बालाजी से ही नैतिकता की उम्मीद कैसे की जा सकती है कि उन्हें गिरफ्तारी के बाद खुद ही मंत्री पद से इस्तीफा दे देना चाहिए था। बहरहाल, इस घटनाक्रम से रवि व स्टालिन में जो पहले से ही खराब रिश्ते थे, वह अब अधिक तनावपूर्ण हो जायेंगे। यह लोकतंत्र के लिए अच्छी खबर नहीं है।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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