भाजपा ‘सनातन’ के नाम पर चाहती है वोटों का ध्रुवीकरण
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिलनाडु के द्रविड़ नेताओं के बयानों से उभरे सनातन धर्म के मुद्दे पर स्वयं पहलकदमी लेने का फैसला किया है। पहले उन्होंने मंत्रियों से कहा कि वह इस मसले पर विपक्ष पर करारा हमला करें। इसके बाद फिर छत्तीसगढ़ में वे ़खुद विपक्ष पर टूट पड़े। इसमें कोई शक नहीं है कि यह सम्भावित मुद्दा विपक्ष ने अपनी गलती से बना कर प्रधानमंत्री के हाथ में थमाया है। ज़ाहिर है कि भाजपा इस मामले को आ़िखरी दम तक खींचेगी। अब यह विपक्ष की रणनीति पर निर्भर है कि वह अपना बचाव कितना और कैसे कर पाती है। ़गैर-भाजपा शक्तियों ने गठबंधन ने तय किया है कि वह इस मसले पर चुप्पी साध लेगा। यानी, हमें जल्दी ही भाजपा के मुखर आक्रमण और विपक्ष की चुप्पी का दिलचस्प म़ुकाबला देखने को मिल सकता है। वैसे इस मसले से ‘इंडिया’ गठबंधन को समझ में आ जाएगा कि कभी-कभी बोलने से ज्यादा चुप रहना ज्यादा अच्छा होता है। इसे पहले आम आदमी पार्टी भी साबित कर चुकी है। पिछले विधानसभा चुनाव में इस पार्टी ने शाहीन बाग वाले मसले पर चुप्पी का रणनीतिक इस्तेमाल किया था। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों को भाजपा, उसके समर्थक मीडिया और कमज़ोर राजनीतिक बुद्धि वाले सेकुलर बुद्धिजीवियों ने काफी उकसाने की कोशिश की। लेकिन वह अपने रवैये से नहीं डिगे और एक बार फिर अच्छी तरह से चुनाव की बाज़ी जीत ली। देखना यह है कि विपक्षी मोर्चा यह कर पाता है या नहीं। साथ ही इस बचाव को कामयाब करने के लिए मोर्चे को अपने घटक संगठनों पर ऐसे विवादास्पद प्रश्नों पर संयमित और अनुशासित रहने की सीख भी देनी पड़ेगी।
चुनावी गणित की जानकारी रखने वालों को पता है कि भारतीय जनता पार्टी को 2024 में कौन सा ऐसा काम शर्तिया तौर पर दोबारा करना पड़ेगा, जो उसने 2019 में किया था। उस चुनाव में पड़े प्रत्येक सौ वोटों में से तकरीबन 37 से कुछ ज्यादा वोट भाजपा को मिले थे, जिनके कारण 303 सीटें उसकी झोली में आ गई थीं। इनमें से 211 सीटें उसने सिर्फ 11 राज्यों से जीत ली थीं। जिनमें से उत्तर प्रदेश (80 में से 62 सीटें), मध्य प्रदेश (29 में से 28), गुजरात (26 में से 26), कर्नाटक (28 में 24 सीटें), राजस्थान (25 में से 24 सीटें), छत्तीसगढ़ (11 में से 9 सीटें), हरियाणा (10 में से 10 सीटें), दिल्ली (7 में से 7 सीटें), झारखंड (14 में से 11 सीटें), उत्तराखंड (5 में 5 सीटें) और हिमाचल प्रदेश (4 में 4 सीटें) आदि राज्य शामिल थे। चुनावी दृष्टि से 239 में से 211 सीटें जितवाने के कारण इन्हें भाजपा के नंबर एक के राज्यों की संज्ञा दी जा सकती है। इनके म़ुकाबले नंबर दो के राज्यों की संख्या 6 थी। इनकी कुल 182 सीटों में से भाजपा ने 84 जीतने में कामयाब रही थी। ये राज्य थे— पश्चिम बंगाल (42 में से 18 सीटें), बिहार (40 में से 17 सीटें), महाराष्ट्र (48 में से 23 सीटें), ओडीशा (21 में से 12 सीटें), तेलंगाना (17 में से 4 सीटें) और असम (14 में से 10 सीटें)। यानी 303 में से 295 सीटें इन्हीं राज्यों से प्राप्त हुई थीं। भाजपा को इन राज्यों में यह प्रदर्शन सौ प्रतिशत दोहराना ही है।
लोकसभा में बहुमत 272 सीटें जीतने पर बनता है। भाजपा के पास इस जादुई आंकड़े से केवल 31 सीटें ज्यादा हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि अगर पहले नंबर के 11 राज्यों में 2019 की असाधारण सफलता हासिल करने में भाजपा ज़रा सी भी चूक गई तो वह लगातार तीसरी बार बहुमत की पार्टी नहीं बन पाएगी। इसके लिए उसे इन राज्यों में बुरी तरह से हारना महंगा पड़ सकता है। अगर वह इन राज्यों में केवल बहुत थोड़ा-थोड़ा ही लड़खड़ाई, तो भी उसकी जीत बेहतरीन कही जाएगी। मसलन, पिछली बार भाजपा ने इन 11 राज्यों में 88 प्रतिशत की अभूतपूर्व दर से सीटें जीती थीं। अगर वह इस बार यहां 70 प्रतिशत की दर से ही जीती (जो एक बार फिर बहुत अच्छी दर मानी जाएगी) तो भी वह 167 से ज्यादा सीटें जीत लेगी, लेकिन उस सूरत में उसे 44 सीटें खोनी पड़ जाएंगी और वह गठजोड़ सरकार बनाने पर मज़बूर हो जाएगी। इसी जगह दूसरे नम्बर के राज्यों का भी भाजपा के लिए महत्व उभरता है। वहां इस पार्टी ने 46 प्रतिशत की दर से जीत हासिल की थी। यहां तो भाजपा को हर हालत में यह प्रदर्शन दोहराना ही है। यहां अगर उसकी जीत की दर 12 से 15 प्रतिशत भी कम हो गई तो वह 30 प्रतिशत के इर्दगिर्द आ जाएगी और यह प्रदर्शन उसके लिए प्रतिष्ठानुकूल नहीं कहा जाएगा। प्रदर्शन में केवल 12 प्रतिशत गिरावट होने पर उसे यहां भी 21 सीटें खोनी पड़ जाएंगी। नतीजतन, सबसे बड़े दल के रूप में सरकार बनाने पर उस गठजोड़ दलों के रहमोकरम पर निर्भर होना पड़ेगा। चुनाव में एक बार फिर बढ़िया प्रदर्शन करने के बावजूद मामूली सा झटका लगने पर भाजपा करीब 65 सीटें खोने के खतरे का सामना करेगी।
ज़ाहिर है कि भाजपा को अपने दोनों क्षेत्रों में 88 प्रतिशत और 46 प्रतिशत का ज़बरदस्त प्रदर्शन हिन्दू वोटों की गोलबंदी के आधार पर ही प्राप्त हुआ था। पांच साल बाद उसे एक बार फिर इतने ही हिन्दू वोट चाहिए होंगे। जैसा कि हमेशा होता है कि उसे लक्ष्य इससे भी ज्यादा हिंदू वोट प्राप्त करने का रखना होगा, तब उसे कुछ घट कर वांछित संख्या में वोट प्राप्त हो सकेंगे। यहां थोड़ी सी मुश्किल दिखाई पड़ती है। इतिहास बताता है कि 1990 में चले रामजन्मभूमि आंदोलन से लेकर अभी तक हुई हिंदू गोलबंदी का संचित परिणाम 2019 में निकला था। यह परिणाम दोबारा भी निकल सकता है। पहली श्रेणी के 11 राज्यों में उत्तर प्रदेश एक ऐसे राज्य है, जहां भाजपा अपनी सीटें बढ़ा सकती है, क्योंकि वहां संयुक्त उम्मीदवार खड़ा करने के मामले में विपक्ष को कई तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। लेकिन कुल मिला कर पहले से ज्यादा हिंदू वोट प्राप्त करने का लक्ष्य बेधने के लिए भाजपा को हिंदू गोलबंदी का एक नया ‘ट्रिगर पाइंट’ चाहिए होगा। कुछ-कुछ वैसा ही ‘ट्रिगर पाइंट’ जो उसे 2019 में बालाकोट सर्जीकल स्ट्राइक के राष्ट्रवादी प्रभाव के कारण मिल गया था। भाजपा इसकी खोज में लगी हुई है। मुझे लगता है कि ‘सनातन’ वाला मुद्दा एक ऐसा ही सम्भावित ‘ट्रिगर पाइंट’ है जिसे भाजपा के रणनीतिकार पहले के मुकाबले कुछ बेहतर हिंदू गोलबंदी के उपकरण के तौर पर देख रहे हैं। हिंदू वोट की गोलबंदी एक और समस्या का सामना कर रही है। ऐसा लगने लगा है कि भाजपा के प्रभावक्षेत्र में भी यह गोलबंदी अब ‘फ्रीज़िंग पाइंट’ पर पहुंच गई है। जब तक चुनाव की मुहिम में नयी गर्मी नहीं आएगी, तब तक बर्फ पिघलेगी नहीं। क्या ‘सनातन’ का सवाल नयी गर्मी पैदा करेगा?
लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।