उत्तर प्रदेश : सपा-कांग्रेस गठबंधन डूबते को तिनके का सहारा

इसमें कोई शक नहीं है कि रामलला मन्दिर लहर के चलते उत्तर प्रदेश में कांग्रेस और सपा अपने सबसे बुरे दौर से गुज़र रही हैं। कांग्रेस के सामने तो अपने अस्तित्व का प्रश्न खड़ा हो गया है और वह अपने आपको उत्तर प्रदेश में बनाये रखने या यूं कहें कि अपनी उपस्थिति मात्र दर्ज कराने के लिए अपनी अंतिम लड़ाई लड़ रही है। यही हाल सपा का भी है। वह भी कारसेवकों पर गोली चलाने और मुस्लिम तुष्टीकरण के आरोपों से सनी है और कम से कम पिछले चुनाव के बराबर सांसद बचाए रखने के लिए हर जुगत भिड़ा रही है। इसलिए हर ओर से निराश होकर अब केवल मुस्लिम और कुछ यादव वोटों के सहारे यह दोनों दल अपनी लाज बचाने की लड़ाई लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इन परिस्थितियों के चलते कांग्रेस और समाजवादी पार्टी का गठबंधन हो चुका है लेकिन दोनों ही पार्टियां एक-दूसरे का वर्चस्व स्वीकार करने को कतई तैयार नहीं हैं। इसका आभास संयुक्त प्रैस वार्ता में स्पष्ट देखने को मिला जब किसी पार्टी के कार्यालय पर नहीं, एक होटल में प्रैसवार्ता सम्पन्न हुई। इस गठबंधन में कांग्रेस को सीटें भले ही वे मिली हों जिनमें से सात पर कभी सपा नहीं जीती और बाकी दस पर भाजपा की जीत का भारी अंतर रहा हो लेकिन शून्य की ओर जा रही कांग्रेस इसमें भी अपना फायदा देख रही है। गठबंधन न होने की स्थिति में मुसलमान वोट उत्तर प्रदेश में सपा को ही जाता। ऐसे में गठबंधन होने पर कांग्रेस को इसका फायदा मिल जाएगा। वहीं समाजवादी पार्टी का जनाधार इससे कम हो सकता है, इसकी पूरी सम्भावना रहेगी। 
पिछले चुनावों पर नजर दौड़ाएं तो 2012 के चुनाव में कांग्रेस विधानसभा में 28 सीटें जीती थीं हालांकि 2017 में सपा-कांग्रेस के गठबंधन के बावजूद नरेंद्र मोदी का प्रभाव के दृष्टिगत कांग्रेस 28 से सात सीटों पर आकर सिमट गयी थीं, वहीं समाजवादी पार्टी 311 सीटों पर लड़कर 47 पर सीटें ही निकाल पायी थी। पिछले चुनाव की अपेक्षा उसकी 177 सीटें कम हो गईं थीं। इस गठबंधन से सिर्फ कांग्रेस को इतनी ही संजीवनी मिल सकती है, जिससे वह उत्तर प्रदेश में सांस लेती रहे। 
उत्तर प्रदेश में कांग्रेस, अमेठी और रायबरेली के अलावा कहीं भी भाजपा के मुकाबले टिकती नज़र नहीं आती। वर्तमान समय में रायबरेली की एकमात्र सीट ही कांग्रेस के पास है। प्रदेश में कांग्रेस का ग्राफ लगातार गिर रहा है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के पिछले चुनाव में कांग्रेस को मात्र दो सीटें ही मिली थीं, वे भी रायबरेली और अमेठी में खाता खोले बिना। इस हिसाब से आकलन करें तो कांग्रेस की राजनीतिक हैसियत उत्तर प्रदेश में दो लोकसभा सीटों से ज्यादा नहीं थी। ऐसे में सपा कांग्रेस को 17 सीटें देकर खुद का ही नुकसान कर बैठी जबकि सपा पहले भी अमेठी और रायबरेली लोकसभा सीटों पर उसकी मदद करती रही है। गांधी परिवार के खिलाफ सपा वैसे भी उम्मीदवार खड़ा नहीं करती। ऐसे में 15 सीटें अतिरिक्त मिलने से कांग्रेस फायदे में है। राजनीतिक विश्लेषकों का यहां तक कहना है कि कांग्रेस को 17 सीटें देकर सपा 15 सीटें चुनाव से पहले ही हार गई है।   
कांग्रेस का पुराना वोट बैंक ब्राह्मण, मुस्लिम और सामान्य वर्ग के मतदाताओं को माना जाता रहा है। मुस्लिम मतदाता पहले से ही सपा के वोट बैंक रहे हैं। कांग्रेस के वोटर माने जाने वाले ब्राह्मण और अन्य जातियों के लोग सपा उम्मीदवारों को वोट देंगे, इसकी उम्मीद बहुत कम है। जहां पर सपा का उम्मीदवार होगा वहां पर ब्राह्मण और सामान्य वर्ग के मतदाता निश्चित रूप से भाजपा को वोट कर सकते हैं। वहीं, सपा के वोटर माने जाने वाले यादव और अन्य पिछड़ी जातियां कांग्रेस को वोट करेंगी इसमें भी दुविधा है क्योंकि भाजपा के कई नेता यादव हैं और उत्तर प्रदेश में भाजपा, सपा के वोट बैंक में सेंध लगाने का हर सम्भव प्रयास कर रही है।  
अखिलेश यादव के साथ भीम आर्मी चीफ चंद्रशेखर समेत अन्य छोटी-छोटी पार्टियों के कई नेता हैं। ऐसे में माना जा रहा है कि इन छोटी पार्टियों को भी सफा कुछ सीटें सपा देगी ही। अभी हाल में ही राजा भैया की पार्टी से भी सपा की नजदीकी बढ़ी है। सपा को राजा भैया के लिए प्रतापगढ़ समेत कुछ सीटें छोड़नी पड़ सकती हैं, वहीं अपना दल कमेरावादी भी सपा से कुछ सीटें लेना चाहेगी। समाजवादी पार्टी ने जो 17 सीटें कांग्रेस को दी हैं, उनमें से कुछ सीटों पर उम्मीदवारों के नाम का ऐलान भी किया जा चुका था जबकि कुछ सीटों पर सपा के आश्वासन प्राप्त संभावित उम्मीदवार भी क्षेत्र में लगातार सक्त्रिय थे। ऐसे में कुछ नेता नाराज होकर किसी दूसरी पार्टी में भी जा सकते हैं। अखिलेश के लिए पार्टी टूटने से बचाने की भी एक बड़ी चुनौती होगी।
कांग्रेस और सपा का गठबंधन लोकसभा चुनाव के बाद भी बरकरार रहेगा, यह तो समय ही बताएगा लेकिन अभी तक सपा ने जिससे भी गठबंधन किया, वह ज्यादा समय तक टिक नहीं पाया चाहे ओम प्रकाश राजभर की पार्टी हो या फिर बसपा या फिर जयंत चौधरी की पार्टी। चुनावी लाभ लेने के बाद सभी ने सपा का साथ छोड़ दिया। चुनावी रैलियों में कांग्रेस नेताओं के साथ अखिलेश यादव के प्रचार करने से कितना लाभ मिलेगा यह तो समय ही बताएगा लेकिन भाजपा अपने पुराने अंदाज में सपा-कांग्रेस को निशाना बनाने से नहीं चूकेगी। भाजपा हमेशा से कांग्रेस के भ्रष्टाचार के मुद्दे को जनता के बीच उठाती रही है। सब कुछ मिला कर इस गठबंधन का क्या होगा।
, यह भविष्य के हाथ में है जो चुनाव के बाद सामने आएगा।