देश की राजनीति में सिख क्यों पिछड़े ?

ये ज़रद पत्तों की बारिश मेरा जवाल नहीं,
किसी ने कत्ल किया है ये इन्तकाल नहीं। 
(बशीर बदर)
जब सिख राजनीति की ओर नज़र डालते हैं तो नये उतार-चढ़ाव दिखाई देते हैं। वैसे तो पहले गुरु साहिब श्री गुरु नानक देव जी ही वक्त की राजनीति बारे बहुत सचेत थे तथा उन्होंने ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ बोलने से गुरेज़ नहीं किया था, परन्तु छठे गुरु साहिब श्री गुरु हरगोबिन्द साहिब के समय तो सिख कौम ने अपने कदम बाकायदा रूप में ही राजनीति में रख लिये थे। बेशक 10वें पातशाह साहिब श्री गुरु गोबिन्द सिंह जी ने बाकायदा कोई राज्य या स्टेट नहीं घोषित की थीं, परन्तु श्री आनंदपुर साहिब के किले का निर्माण अपने-आप में सिख राज का पहला चिन्ह था जिसकी चढ़त से डरते पहाड़ी राजाओं ने अपना ज़ोर न चलता देख कर म़ुगल हुकूमत को सिखों के खात्मे के लिए चढ़ा लिया था, परन्तु उसके बाद भी सिखों ने इतने उतार-चढ़ाव देखे हैं कि कई बार तो इतिहास स्वयं भी कांप जाता होगा। स्वतंत्र भारत में सिख कौम के लिए बड़े शानदार समय भी आए ओर बड़े खतरनाक भी। विशेषकर 1984 का आप्रेशन दरबार साहिब (ब्लू स्टार) तथा 1984 का सिख कत्लेआम स्वतंत्रता के बाद का सबसे बड़ा घल्लूघारा था, परन्तु इसके बावजूद सिख राजनीति कई उपलब्धियां प्राप्त करती रही। इससे पहले भी और बाद भी सिख राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सेना प्रमुख, सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, बड़े मंत्रालयों के मंत्री बनते रहे। केन्द्रीय सचिवालय में आधा-आधा दर्जन बड़े सिख अधिकारी, राज्यपाल तथा राजदूत बनते रहे। देश के भिन्न-भिन्न राज्यों मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, हरियाणा, झारखंड, दिल्ली तथा कई अन्य राज्यों में अलग-अलग समय पर सिख बड़ी पार्टियों के लोकसभा तथा विधानसभा के उम्मीदवार ही नहीं बने अपितु कई बार विजयी भी होते रहे, परन्तु शायद स्वतंत्र भारत के इतिहास में इस बार यह पहली बार है कि पंजाब से बाहर किसी भी बड़ी पार्टी ने किसी भी सिख को उम्मीदवार नहीं बनाया। इस प्रकार प्रतीत होता है कि देश में सिख राजनीति इस समय सबसे निम्न दौर से गुज़र रही है। हालांकि इसके विपरीत विश्व भर की राजनीति में भिन्न-भिन्न देशों में सिखों का बोलबाला बढ़ रहा है। कनाडा में तो एक राष्ट्रीय पार्टी का प्रमुख ही एक सिख है। कितने केन्द्रीय मंत्री तथा सांसद सिख हैं। ब्रिटेन (यू.के.) की राजनीति में भी सिखों की चढ़त बढ़ रही है। सम्भावित रूप में अगली सरकार में तनमनजीत सिंह ढेसी ब्रिटेन के प्रमुख मंत्री होंगे। आस्ट्रेलिया तथा न्यूज़ीलैंड की राजनीति में भी सिख तरक्की कर रहे हैं। यूरोप के कुछ देशों में भी सिख लॉबी मज़बूत हो रही है। सिंगापुर में तो विपक्ष का नेता ही एक सिख परिवार का व्यक्ति है। सिंगापुर का मुख्य न्यायाधीश एक सिख रहा है। कई सांसद रहे। वहां की नौसेना तथा सेना के प्रमुख भी सिख रहे। अमरीका में भी सिख लॉबी मज़बूत हो रही है। मलेशिया में भी कई सांसद सिख रहे हैं। अब भी सिखों की राजनीतिक लॉबी काफी मज़बूत है। यूगांडा में सिख अच्छी स्थिति में रहे हैं। और तो और अभी-अभी पाकिस्तान के पंजाब प्रांत का अल्पसंख्यक मामलों संबंधी एक मंत्री रमेश सिंह बना है। अफगानिस्तान की संसद में सिख सदस्य रहे हैं। अब फिर चाहे इस समय अफगानिस्तान में रहते सिखों की संख्या 100 भी नहीं रही, परन्तु वहां की अफगान सरकार द्वारा सिखों को वापस बुलाने के लिए कोशिशें की जा रही हैं और चर्चा है कि किसी सिख को सांसद नामज़द किया जा सकता है। बेशक अब मोदी सरकार ने भी एक सिख को नामज़द कर राज्यसभा सदस्य बनाया है, परन्तु वह भी पंजाब का निवासी है। बात तो पंजाब से बाहर रहते सिखों की देश की राजनीति पर कम होती पकड़ की है। सोचने वाली बात है कि सिख विश्व भर के देशों की राजनीति में तो एक ताकत के रूप में उभर रहे हैं, फिर भारत में ही सिख राजनीति में क्यों पिछड़ रहे हैं? इसके सैकड़ों और कारण होंगे, परन्तु हमें याद है कि मास्टर तारा सिंह के नेतृत्व के समय वह अलग-अलग राज्यों के सिखों को अपने-अपने राज्य की राजनीतिक स्थिति के  अनुसार चलने के लिए कहा करते थे तथा स्थानीय हालात के अनुसार ही फैसले लेने के लिए उत्साहित करते थे। सो, समझ में आता है कि सिख वहां की स्थितियों के अनुसार राजनीति अपनाते रहे हैं, परन्तु 1984 के बाद सिखों के पंजाब के नेतृत्व ने जैसे पूरे देश की सिख राजनीति को नियंत्रित करने की कोशिश की थी, तथा उन्हें पंजाब के अनुसार चलने के लिए कहा, जिसका परिणाम सार्थक नहीं निकला। फिर पंजाब में भी सिख राजनीति का जवाल उनके लिए घातक सिद्ध हुआ जबकि भाजपा की बहुलतावाद की राजनीति ने भी सिखों की राजनीति में पकड़ को कमज़ोर किया है। चाहे मोदी सरकार सिखों के प्रति मौखिक जमा-खर्च तो बहुत करती है, कुछ अच्छे कार्य भी किये गए हैं, जिनकी प्रशंसा करनी बनती है, परन्तु सिखों की पंजाब से बाहर की राजनीतिक स्थिति समाप्त करने में उसकी भी अपनी भूमिका है, चाहे वह सचेत भूमिका न भी हो। 
सिख क्या करें?
सोचने वाली बात है कि पंजाब से बाहरी सिख अपने-अपने राज्यों में तथा देश की राजनीति में प्रासंगिक होने के लिए क्या करें? हम समझते हैं कि एक तो वे अपने प्रदेश स्तरीय गैर-राजनीतिक संगठन बनाएं जो धार्मिक एवं सामाजिक कार्य करें, परन्तु अवसर मिलने पर सिख लॉबी की भांति दबाव ग्रुप के रूप में कार्य कर सकें और सबसे बड़ी तथा ज़रूरी बात कि वे यू.पी.एस.सी. (यूनियन पब्लिक सर्विस कमिशन) तथा राज्यों के सर्विस सिलेक्शन बोर्डों की परीक्षाओं के लिए सिख बच्चों को तैयार करने के लिए शानदार तथा परिणाम देने वाले कोचिंग सैंटर बनाएं। बेशक समय लगेगा, परन्तु यदि सिख आई.ए.एस., आई.पी.एस. तथा ऐसे अन्य पदों पर बड़ी संख्या में तैनात हो जाएं तो उन्हें पुन: राजनीति में प्रभावशाली भूमिका निभाने से कोई ताकत नहीं रोक सकेगी। वैसे विश्व की प्रत्येक कौम उतार-चढ़ाव में से गुज़रती है। जो सचेत कौमें होती हैं, वे गिर-गिर कर भी फिर उठ पड़ती हैं। जो सचेत नहीं होतीं, वे खत्म हो जाती हैं। सिख तो पहले भी खात्मे के निकट जाकर भी उठते रहे हैं। अभी तो बहुत ताकत है देश के सिखों के पास। 
किस कौम के दिल में नहीं जज़्बात-ए-तरक्की,
किस कौम को उतराअ से गुज़रना नहीं पड़ता?
(लाल फिरोज़पुरी)
डा. मनमोहन सिंह की पारी का खात्मा
पूर्व प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह 33 वर्ष बाद राज्यसभा से स्थायी रूप में सेवानिवृत्त हो गए हैं। उनकी ओर से किये गये कार्य सदैव याद रहेंगे। वह कीचड़ में कमल की भांति निर्लिप्त रहे। राजनीति में आने से पहले ही वह अर्थ शास्त्र में अपनी विशेष पहचान बना चुके थे। 1966 में वह संयुक्त राष्ट्र संघ की एक इकाई व्यापार विंग के प्रमुख बने। 1971 में वह भारत के विदेशी व्यापार मामलों के सलाहकार बने। 1976 में रिज़र्व बैंक तथा आई.डी.बी.आई. के निदेशक तथा इस मध्य ही वह एशियन डिवैल्पमैंट बैंक मनीला के बोर्ड आफ गवर्नर्स में शामिल हुए।  1977 में भारत के वित्त मंत्रालय के सचिव तथा 1982 में रिज़र्व बैंक के पहले सिख गवर्नर भी बने। 1985 में भारतीय योजना आयोग के डिप्टी चेयरमैन तथा 1990 में भारत के प्रधानमंत्री के  आर्थिक सलाहकार बन गये। 
21 जून, 1991 को जब वह भारत के वित्त मंत्री बने तो वह प्रत्यक्ष रूप में राजनीति के क्षेत्र में दाखिल हो गए। अक्तूबर 1991 को राज्यसभा सदस्य बन गये। 1998 में वह राज्यसभा में विपक्ष के नेता चुने गये। 22 मई, 2004 को वह भारत के पहले सिख प्रधानमंत्री बने। 10 वर्ष लगातार उन्होंने जो कार्य किये, वे भारत के इतिहास विशेषकर भारत की आर्थिक तरक्की के इतिहास में सदैव याद रखे जाएंगे। खिराज-ए-अ़कीदत लफ्ज़ आम तौर पर किसी व्यक्ति के चले जाने के बाद इस्तेमाल किया जाता है कि यह श्रद्धा के फूलों पर उस व्यक्ति का अधिकार है, परन्तु हम समझते हैं कि डा. मनमोहन सिंह भारतीय राजनीति तथा भारतीय आर्थिकता के साथ-साथ अपनी ईमानदारी, सूझबूझ तथा अपनी नम्रता के कारण जीवित रहते ही एक लीजैंड (दिव्य चरित्र या दंत कथाओं का नायक) बन चुके हैं। इसलिए उनके राज्यसभा के सदस्य के रूप में सफर समाप्त होने के अवसर पर उन्हें हार्दिक अ़कीदत भेंट करते हुए यह बात याद कर रहे हैं कि उन्होंने 10 वर्ष प्रधानमंत्री होते हुए कभी यह भ्रम नहीं पाला कि वह वक्त के भगवान बन गये हैं या अहंकार में आ गये हैं। इस अवसर पर उनके लिए लिखा गया अपना एक शे’अर समर्पित कर रहा हूं :
हो त़ख्त पे हर श़ख्स को, 
वहम-ए-़खुदाई बारहा।
सद शुक्र कि हम ने नहीं
इस त़ख्त पे पाली अना।  
-मो. 92168-60000