मृत्यु के समय क्या सोचता है इन्सान ?

मृत्यु के समय मनुष्य कैसा महसूस करता है, इस बारे में कोई एक निश्चित तथ्य नहीं है। वैज्ञानिकों और मानसिक स्थिति के बारे में शोध कर रहे विशेषज्ञों का अलग-अलग मत है। सब अपने-अपने ढंग से इसकी व्याख्या करते हैं। कोई कहता है कि जब अंतिम सांस लेने का समय आता है तो व्यक्ति अपने जीवन में घटी सभी अच्छी बुरी घटनाओं को एक रील की तरह चलते हुए देखता है। कुछ लोग मरने से पहले अपने दोस्तों, मिलने-जुलने वालों और सगे संबंधियों से मिलने निकल जाते हैं। यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार न हों और स्वास्थ्य ठीकठाक रहता हो और लगे कि अब बहुत हुआ, चलने की तैयारी हो जाये तो ऐसे लोग बहुत सहज भाव से स्वयं को सब भौतिक चीज़ों से अलग करने में लग जाते हैं। 
अर्नेस्ट हेमिंगवे जब एक बम विस्फोट में बुरी तरह घायल हो गये थे और मौत नज़र आ रही थी, उस क्षण का वर्णन बाद में एक पत्र में इस तरह किया ‘मौत बहुत मामूली चीज़ है। मैंने मौत को देखा और उसकी असलियत समझ में आ गई। मरना मेरे लिए बहुत आसान था। जो कुछ अब तक मैंने किया, उस सब से आसान।’ मृत्यु के अपने अनुभव पर उन्होंने कई बढ़िया कहानियां लिखी हैं। ‘आत्मा शरीर से बाहर जा रही है, उड़ान भर रही है और फिर लौट रही है।’ 
मृत्यु का आभास जब होने लगता है तो सामने एक प्रकाश पुंज का निर्माण होता दिखाई पड़ने लगता है। अलौकिक ऊर्जा से संचालित अनोखी चमक लिए एक रौशनी दिखाई देती है। प्रतीत होता है कि सब सुख-दु:ख समाप्त हो गये हैं, सांसारिक वस्तुओं से संबंध तोड़कर आत्मा इस प्रकाश में विलीन होने जा रही है। कुछ लोगों ने अंत काल को एक सुरंग में प्रवेश करने जैसा वर्णन किया है। एक दिव्य दृश्य की कल्पना जिसमें दिवंगत आत्माओं से मिलना, उनके साथ अपनी स्मृतियों को साझा करना और फिर अनंत की यात्रा पर चल पड़ना। 
कर्मों का लेखा जोखा : यह शरीर तो मिट्टी में मिल ही जायेगा लेकिन हमारे जो कर्म हैं, उनका फल तो अवश्य ही मिलेगा। कह सकते हैं कि जब मर ही गए तो क्या लेना और क्या देना, सब कुछ यहीं रहेगा। इसी के आधार पर स्वर्ग और नरक की कल्पना की गई। कुछ लोग जो मृत्यु के अनुभव के बाद जीवित पाये गये, उनका कहना है कि उन्हें अपने बचपन, जवानी और अब तक की सभी घटनाएं याद आती गयीं और अब जब कभी उस अनुभव के बारे में बात करते हैं तो एक तरह का मानसिक तनाव हो जाता है। वे उसे शब्दों में बयान कर पाने में असमर्थ हैं, उसका कोई तरीका भी नहीं है। कोई यदि तैरते हुए डूबने लगे, लंबी सीढ़ी से नीचे गिरते समय या फिर आप फोन पर व्यस्त हैं और सामने से कोई गाड़ी टक्कर मार दे तो दिमाग की हालत बता पाना आसान नहीं है। 
मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जिस भी व्यक्ति को ये अनुभव होते हैं, उन्हें वैसा ही मान लेना चाहिए जैसा किसी भुक्तभोगी ने उनका वर्णन किया है। यह एक मानसिक क्रिया है, यदि इसे न समझ कर उस व्यक्ति से बहुत अधिक सवाल-जवाब किए गए तो उसका मानसिक संतुलन बिगड़ सकता है। यह एक गंभीर रोग में बदल सकता है। इसकी चिकित्सा भी नहीं है सिवाय इसके कि नींद की दवाईयां दे दी जायें। इसमें बातचीत के माध्यम से ही कुछ सुधार हो सकता है। यह एक थेरेपी की तरह है जिसमें मृत्यु के अनुभव को भुलाने में मदद मिल सकती है। कई बार ये अनुभव व्यक्ति का पीछा नहीं छोड़ते और वह उनका गुलाम बनने लगता है। जिस तरह जंगल में किसी हाथी या किसी हिंसक पशु अथवा घरों में पालतू जानवरों की आदतों को बदला जाता है, उसी तरह मृत्यु के अनुभवों से पीछा छुड़ाया जा सकता है। उदाहरण के लिए हाथी के शिशु को पैदा होते ही एक ज़ंजीर से बांध दिया जाता है अर्थात् उसका एक दायरा तय कर दिया कि जहां तक ज़ंजीर जाएगी, वहीं तक ही दुनिया है। अब जब वह बड़ा हो जाता है तो स्वयं अपना पैर ज़ंजीर बांधे जाने के लिए बढ़ा देता है। अब महावत उसे जैसे चाहे और जहां चाहे ले जा सकता है। मानसिक स्थिति भी इसी तरह से बनती है। मनुष्य के पास सोचने समझने की शक्ति है जो पशुओं में नहीं, इसलिए उनके लिए किसी पुरानी और दु:खद स्मृति से बाहर निकलना आसान है। 
पवन, अग्नि, जल, पृथ्वी और आकाश हमारे प्राकृतिक तत्व हैं। इनका उपयोग किसी भी स्थिति से उबरने के लिए होता है। अब क्योंकि न तो मनुष्य ने इनका निर्माण किया और न ही वह इनका संचालक है, इसलिए इन तत्वों से छेड़छाड़ करने का उसका कोई अधिकार नहीं है। जीवन हो या मृत्यु, इन्हीं पर आधारित है। इन तत्वों के साथ सहयोग करते हुए इन्हें अपने अनुकूल तो बनाया जा सकता है, लेकिन इनके साथ खिलवाड़ करना अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है। मनुष्य का जीवन आवागमन के चक्र से बंधा है लेकिन प्रकृति कभी परिवर्तित नहीं होती। इसी तरह हमारे कर्म ही निर्णायक हैं और उनका फल मिलना अवश्यंभावी है।