आदर्श लोकतंत्र का तकाज़ा है बदलाखोरी रहित राजनीतिक प्रक्रिया

देश में आम चुनावों के दौरान प्रमुख विपक्षी नेताओं की भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तारियां, भारत के लोकतंत्र की गर्वित पहचान तो नहीं हो सकती। इन गिरफ्तारियों के पीछे केंद्रीय एवं राज्य सरकारों द्वारा सत्ता के दुरुपयोग के आरोप चिंताजनक हैं। सरकारी एजेंसियों द्वारा सत्ता विरोधियों पर राजनीतिक दबाव बनाना, जांच एजेंसियों का पक्षपातपूर्ण रवैया, नागरिकों के मूलभूत मानवीय अधिकारों का हनन और संवैधानिक संस्थाओं की उदासीनता से जुड़े सवाल उठ रहे हैं। दार्शनिकों का यह मानना है और एतिहास की गवाही भी है, कि अनर्गल राजनीतिक व प्रशासनिक शक्ति का दुरुपयोग ऐतिहासिक सच्चाई है जिसकी पुष्टि समय-समय पर हम अपने देश में देख चुके हैं, सरकारें चाहे किसी भी दल की हों।
वर्तमान में महाराष्ट्र, बंगाल, आंध्र प्रदेश, पंजाब, दिल्ली, हरियाणा, छत्तीसगढ़, झारखंड इत्यादि राज्यों में भी सत्ताधारी पार्टियों ने राजनीतिक विरोधियों पर कानूनी शिकंजा कसने के प्रयास किए हैं। नौकरशाही पर अपने व्यापक अधिकारों के दुरुपयोग के आरोप पहले कभी इतने तीखे न थे। जिनसे न्याय की अपेक्षा है, वही आज कठघरे में हैं। मशहूर शायर ़फैज़ अहमद ़फैज़ ने ऐसी व्यथा का ज़ोरदार वर्णन इन पंक्तियों में किया है : 
‘बने है अहल-ए-हवस मुद्दई भी, मुन्स़िफ भी,
किसे वकील करें, किस से मुंसाफी चाहें’
बिना आरोप सिद्ध हुए पीएमएलए जैसे कठोर कूनून के तहत लम्बे समय तक आरोपियों को हिरासत में रखना, लोकतांत्रिक और स्वतंत्रतावादी संविधान के दर्शन के अनुरूप तो नहीं है। बेशक, कानून की नज़र में सभी समान हैं और राजनीतिक नेताओं से उच्च आदर्शों तथा कानून का पालन करने की अपेक्षा रहती है। देश में ऐसी भावना नहीं बननी चाहिए कि प्रमुख विपक्षी नेताओं पर आयद अपराध के आरोप राजनीति से प्रेरित हों। खासतौर पर जब देश की न्याय प्रक्रिया अपने आप में एक बड़ी सज़ा है और कि सदा न्याय संगत नहीं होती। इस क्रम में न केवल आरोपी पिसता है, अपितु उसके समस्त परिवार का भी कई तरह से उत्पीड़न होता है। यहां तक कि बच्चों पर भी तन्ज़ कसे जाते हैं। आरोपी अपने आप को शून्य महसूस करने लगता है और टूट जाता है। क्या यह आदर्श लोकतांत्रिक व्यवस्था की पहचान या राजनीतिक प्रतिस्पर्धा की कीमत हो सकते हैं?
कानूनी दांव-पेच बेगुनाहों को भी अपराधी साबित कर देते हैं। अमरीका के एक प्रसिद्ध वकील एफ. ली. बायली अपनी किताब ‘द डिफैंस नेवर रेस्ट्स’ में लिखते हैं कि कानूनी प्रक्रिया की चक्की में जब पिसाई होती है, तो अभियुक्त की बेगुनाही अप्रासंगिक हो जाती है। इस सच्चाई को सुप्रीम कोर्ट ने भी अपने एक निर्णय (गंगाबाई बनाम संभाजी, 2008)  में दोहराते हुए कानूनी प्रक्रिया के भंवर में न्याय की हत्या के प्रति सचेत किया है। देशवासियों की अपेक्षा है कि पीएमएलए जैसे कठोर कानून के प्रावधानों का पालन, संविधान के अनुच्छेद 21, जो प्रत्येक व्यक्ति की आज़ादी और सम्मान के अधिकार को मान्यता देता है, की मर्यादाओं की लक्ष्मण रेखा के भीतर होना चाहिए। राजनीतिज्ञों के विरुद्ध प्रत्येक मुकद्दमा ‘मीडिया ट्रायल’ का रूप धारण कर लेता है, जिसके कारण जांच से लेकर अदालत के अंतिम निर्णय तक आरोपी के सम्मान एवं आज़ादी का हनन होता रहता है। 
राजनीतिक नैतिकता, संवैधानिक मर्यादा, संवेदनशील न्यायिक प्रक्रिया एवं राष्ट्रीय गरिमा का अभिन्न संबंध है। इनका तकाज़ा है कि प्रत्येक व्यक्ति को कानून के मुताबिक सौम्य न्याय मिले। यही एक आदर्श लोकतंत्र की पहचान है। इतिहास साक्षी है कि अन्याय का एहसास सामाजिक और राजनीतिक उथल-पुथल का कारण बनता है। इस संदर्भ में राजनीतिक दलों को स्वीकार करना  होगा कि विरोधियों के प्रति अभद्र भाषा और अत्याचार का रवैया कभी न मिटने वाली व्यक्तिगत शत्रुता और चुभन को जन्म देते हैं, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था को दूषित करते हैं। 
आज देश में तनाव का वातावरण है जिसकी जवाबदेही किसी एक दल अथवा व्यक्ति की नहीं। कुछ नेता, जो आज अपने आप को पीड़ित महसूस कर रहे हैं, उन्होंने भी अतीत में राजनीतिक मर्यादाओं को नहीं निभाया। अतीत की गलतियों की झलक आज नज़र आ रही है। राजनीतिक प्रतिस्पर्धा देश मैं बिखराव और तनाव का कारण न बने, इसकी ज़िम्मेदारी सभी राजनीतिक दलों पर है। देश में सौहार्द सुनिश्चित करने के लिए संवैधानिक मर्यादाओं की लक्ष्मण-रेखा का आदर करना अनिवार्य है। इससे पहले कि सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अन्याय के एहसास के कारण देशवासियों के सब्र का पैमाना छलक जाये, हमें सत्ता और राजनीति के स्तर को पुन: परखना होगा। साहिर लुधियानवी का यह ़ख्याल प्रासंगिक है।
‘नेक मादाम, बहुत जल्द वह दौर आएगा,
जब हमें ज़ीस्त (जीवन) के 
अदवार (पैमाने) परखने होंगे
अपनी ज़िल्लत की कसम,
 आपकी अज़मत (इज़्ज़त) की कसम,
हमको ताज़ीम (आदर) के मय्यार परखने होंगे।’
जहां तक राजनीतिक भ्रष्टाचार का प्रश्न है, इसका स्थायी समाधान व्यापक चुनावी सुधार हैं, जिसके द्वारा चुनावी प्रक्रिया में धन और बल के दुरुपयोग को समाप्त किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट का चुनावी बॉण्ड संबंधी फैसला, जिसको आम तौर पर सराहा गया है, का एक नतीजा यह भी है कि चुनावों में एक बार फिर ‘कैश’ और काले धन का बोलबाला होगा। ऐसी स्थिति से जल्द जूझना ज़रूरी है, जिसके लिए अविलम्भ आम राय बनाने का दायित्व भी राजनीतिक दलों पर है। आदर्श लोकतंत्र के प्रति आशावादी राष्ट्रीय एहसास को पहनावा देने का समय आ गया है, जिसके लिए द्वेष और घृणा-युक्त राजनीतिक व्यवहार सभी को मिलकर समाप्त करना होगा। इसके लिए दलगत राजनीति से ऊपर उठकर जनता को दबाव बनाना होगा।
राजनीतिक प्रतिशोध मानवीय गरिमा व लोकतांत्रिक आदर्शों के लिए घातक है। जिस देश की आत्मा मानवीय सम्मान, संवाद, सौहार्द और स्वतंत्र विचारों द्वारा परिभाषित है, ऐसे देश में किसी भी व्यक्ति के सम्मान और स्वतंत्रता पर प्रहार असह्य है। हम इतिहास के इस सबक को नहीं भुला सकते कि ज़ंजीरों के हटने और ज़ख्मों के मिटने के बाद भी उनके निशान रह जाते हैं और दर्द व निराशा की यादें, खुशी और आशा का प़ैगाम भी लाती हैं। 
इस लेख को राष्ट्र कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की इन प्रेरणा-स्त्रोत पंक्तियों से विराम दे रहा हूं।
‘हो तिमिर कितना भी गहरा,
हो रोशनी पर लाख पहरा,
सूर्य को उगना पड़ेगा,
फूल को खिलना पड़ेगा।’


(विचार व्यक्तिगत हैं)
-वरिष्ठ अधिवक्ता एवं पूर्व केन्द्रीय विधि व न्याय मंत्री