केवल विरोध की राह पर विपक्षी दल

राजनीति में पक्ष और विपक्ष दोनों का महत्वपूर्ण स्थान है क्योंकि विपक्ष में बैठे हुए लोग भी जन प्रतिनिधि हैं और उनका यह दायित्व भी है कि वे पक्ष के साथ तालमेल बनाते हुए जन कल्याणकारी मुद्दों अथवा योजनाओं पर सकारात्मक विचार रखते हुए आगे बढ़ें जिससे जनहित की पूर्ति हो सके। इसके अतिरिक्त विपक्ष विभिन्न मुद्दों पर रचनात्मक भूमिका निभाते हुए सत्ता में बैठी सरकार को जन-कल्याणकारी मुद्दों अथवा राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर योजना बनाने एवं कानून में बदलाव करने के लिए दिशा दिखा सकता है।
भारतीय राजनीति में स्वतंत्रता के बाद से ही प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष रूप से परिवारवाद का बोलबाला रहा है। कई राज्यों में भी ऐसी ही स्थिति बनती चली गई। जिसका परिणाम यह हुआ कि राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति हेतु ही व्यवस्थाओं का भरपूर दोहन किया गया। राष्ट्रीय विकास और जन-कल्याणकारी योजनाओं पर जिस तीव्रता एवं गम्भीरता से कार्य होना चाहिए था, वह नहीं हो पाया। भ्रष्टाचार का दीमक राजनीतिक संरक्षण में फलता-फूलता रहा और एक सामान्य व्यक्ति को मूलभूत सुविधाओं की उपलब्धता भी न हो सकी।
वर्ष 2014 में लम्बे समय के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई। राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के विषय एवं जन-कल्याणकारी योजनाओं पर भी तीव्रता से काम होने आरंभ हुए, लेकिन विपक्ष लगातार विरोधी बनता चला गया। किसी विषय की गम्भीरता को समझे अथवा बिना समझे ही केवल विरोध विपक्ष का लक्ष्य बन गया। राष्ट्रीय शिक्षा नीति, कृषि कानून, नागरिकता संशोधन कानून, कश्मीर से धारा 370 का हटाना, एक राष्ट्र-एक चुनाव का मुद्दा, तीन तलाक, बालाकोट स्ट्राइक, नए संसद भवन का निर्माण, राफेल, ईवीएम से चुनाव, सनातनता की चर्चा, राम मंदिर निर्माण, भ्रष्टाचारियों की गिरफ्तारी एवं सीबीआई और ईडी की कार्यवाही आदि अनेक ऐसे मुद्दे हैं जिन पर विपक्ष ने वजह-बेवजह खूब विरोध किया। संसद का समय महत्वपूर्ण कानून बनाने एवं निर्णय लेने में लगना चाहिए, लेकिन यह विडम्बना ही है कि अनेक बार संसद के सत्र कई-कई दिन अनावश्यक विरोध की भेंट चढ़े हैं। यह भी विडम्बना ही है कि विपक्ष में बैठे विपक्षी दलों के अनेक नुमाइंदों से जब किसी मंच पर विरोध का कारण पूछा जाता है तो वे उसका जवाब भी नहीं दे पाते। इससे यह स्पष्ट होता है कि विपक्ष के पास दिशा और दृष्टि समाप्त हो चुकी है और वे केवल विरोध व राजनीति में वापसी के भाव में ही लिप्त हो चुके हैं। छोटे-बड़े सभी विपक्षी दलों का भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व होता है। उनकी अपनी विचारधारा और कार्य प्रणाली होती है जो लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं को मजबूत करती है, लेकिन पिछले कई वर्षों से समूचा विपक्ष सभी वैचारिक और कार्य प्रणाली के भेद को भूलकर महागठबंधन के रूप में रूपांतरित हो चुका है। सत्ता सुख की मलाई सबको याद आ रही है। सत्ता से बाहर विपक्ष में बैठ कर रचनात्मक भूमिका निभाना विपक्षी दल भूल चुके हैं। अब तो स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि भाषा, जाति, संप्रदाय एवं क्षेत्रीयता के मुद्दों पर भी विपक्ष निहित स्वार्थ एवं विरोध की राजनीति कर रहा है। अनेक अवसरों पर प्रधानमंत्री अथवा सत्ता में बैठी भाजपा का विरोध करते-करते विपक्ष आस्था, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय महत्व के विषयों के साथ-साथ देश का ही विरोध करता दिखाई देता है। वर्ष 1999 में भी पोखरण परीक्षण के उपरांत विपक्ष की विरोधी प्रवृत्ति के कारण स्वर्गीय अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार गिराई गई थी। उस समय अटल जी ने संसद में कहा था—मुख्य प्रतिपक्ष ने कहा कि हम रचनात्मक विरोध करेंगे। हम किसी का साथ नहीं लेंगे, किसी के साथ नहीं जाएंगे, नए गठबंधन हो रहे हैं। यह आश्चर्य है कि परमाणु परीक्षण की भी आलोचना की गई। क्या आज भी कुछ वैसा ही सिलसिला जारी नहीं है? ध्यान रहे संसद की एक दिन की कार्यवाही में कई करोड़ रुपये का खर्च होता है। यह पैसा जनता का है, इसलिए क्या संसद में जन-कल्याण के कामों में विपक्ष को अपनी सकारात्मक भूमिका नहीं निभानी चाहिए?
वर्ष 2024 के लोकसभा चुनाव शुरू हो चुके हैं। पहला चरण सम्पन्न हो चुका है। समूचा विपक्ष सत्ता की इच्छा में एकजुट होकर सीटों की विभाजन भी कर चुका है। हार-जीत भविष्य का विषय है। लेकिन चुनाव आयोग की कार्यप्रणाली का विरोध और सीबीआई एवं ईडी की कार्यवाहियों का विरोध जारी है। भविष्य की योजनाओं के स्थान पर अभद्र भाषा एवं ओछी टीका-टिप्पणी जारी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रयासों से देश ‘विकसित भारत’ और ‘विश्व गुरु भारत’ के संकल्प के साथ आगे बढ़ रहा है, ऐसे में सभी का प्रयास  होना चाहिए कि राष्ट्र भाव को सर्वोपरि रखते हुए अंध-विरोध का मार्ग छोड़कर रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाए। (अदिति)