कश्मीरी जनादेश में मतदाताओं की बढ़ती भागीदारी

संसद के जरिए 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद 370 निरस्त किया गया। उसके बाद का यह पहला लोकसभा चुनाव है। जम्मू-कश्मीर की श्रीनगर सीट पर आम चुनाव के चौथे चरण में करीब 38 फीसदी मतदान हुआ। यह 1996 के बाद सर्वाधिक मतदान है। तब 40.9 फीसदी वोट डाले गए थे। राष्ट्रीय संदर्भ में यह बहुत कम मतदान लग सकता है, लेकिन कश्मीर के नाज़ुक हालात के मद्देनज़र यह ऐतिहासिक और उत्साही मतदान है। 1998 के 30 फीसदी मतदान का भी रिकॉर्ड टूट गया है। पिछले आम चुनाव 2019 में, अनुच्छेद 370 को निरस्त करने से पहले, श्रीनगर सीट पर मात्र 14 फीसदी मतदान हुआ था।
चुनावी लोकतंत्र और कश्मीरी जनादेश को मतदाताओं की ऐसी भागीदारी से ताकत मिलेगी। हालांकि अमन-चौन और सम्पूर्ण सामान्य हालात बनना फिलहाल एक लम्बी प्रक्रिया है, लेकिन कश्मीर बदला है और बदल रहा है। कश्मीरी घाटी में मतदान के ऐसे रुझानों को पढ़ना और समझना बेहद मुश्किल और पेचीदा है। मतदान पर दमन और दबाव के आरोप लगते रहे हैं। मतदान से पहले सुरक्षा-व्यवस्था सबसे अहम सरोकार था, क्योंकि 4 मई को भारतीय वायुसेना के काफिले पर आतंकी हमला किया गया था। 
पुंछ इलाके के उस हमले में हमारा एक जांबाज सैनिक ‘शहीद’ हुआ और 4 सैनिक घायल हुए थे। कश्मीर में ऐसा टुकड़े-टुकड़े आतंकवाद आज भी मौजूद है। कश्मीर का राजधानी शहर श्रीनगर आज चहल-पहल में डूबा है। लोग पार्क में बैठे पार्टियां कर रहे हैं। श्रीनगर में चुनाव के वक्त इसकी कल्पना भी नहीं की जाती थी। लोग प्रधानमंत्री मोदी और उनके बदलावों की भी चर्चा कर रहे थे।
श्रीनगर सीट पर फारूक अब्दुल्ला की ‘नेशनल कॉन्फ्रैंस’ और महबूबा मुफ्ती की ‘पीडीपी’ ने एक-दूसरे के खिलाफ प्रत्याशी उतारे थे, हालांकि दोनों ही ‘इंडिया’ गठबंधन के घटक हैं। वे इतने मतदान को अनुच्छेद 370 निरस्त करने के खिलाफ कश्मीरियों का गुस्सा करार देते हैं। अभी जम्मू-कश्मीर की शेष सीटों पर मतदान होना है, लेकिन भाजपा का मानना है कि अनुच्छेद 370 कोई मुद्दा ही नहीं रहा। भाजपा के लिए यह ऐतिहासिक इसलिए है, क्योंकि डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने ‘एक विधान, एक निशान, एक प्रधान’ के लिए लम्बा संघर्ष किया था। उनकी शहादत आज भी एक रहस्य है। 
अनुच्छेद 370 ‘जनसंघ’ के दौर से एक वैचारिक और सैद्धांतिक एजेंडा रहा है। मोदी सरकार ने अगस्त, 2019 में संसद के जरिए इसे निरस्त किया और उसके बाद आम कश्मीरी आंदोलित भी नहीं हुआ। कश्मीर में तिरंगा फहराया जा रहा है। भारत का संविधान और तमाम कानून कश्मीर में भी प्रभावी हो गए हैं। आरक्षण की व्यवस्था भी लागू कर दी गई है। गैर-कश्मीरी भी ज़मीन खरीद कर अपना कारोबार कर रहे हैं। कश्मीरी महिलाओं के पारिवारिक और वैवाहिक हक शेष भारत की तरह लागू कर दिए गए हैं। 
कश्मीर बदल गया है, इसका पुख्ता सबूत यह है कि आम चुनाव के जरिए जनादेश भी शांति और सद्भाव से दर्ज करा दिया गया है। यकीनन यह बदले हुए और नए कश्मीर का पहला जनादेश है। 
बहरहाल, जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटने के बाद हुए पहले मतदान में प्रतिशत का अधिक रहना सुखद ही है। जो घाटी के लोगों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में विश्वास बढ़ने को दर्शाता है। यह चुनाव इस केंद्र शासित प्रदेश को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाने और यथाशीघ्र विधानसभा चुनाव करवाने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा। बहरहाल, पूरे देश में चुनाव प्रतिशत में कमी के रुझान पर चुनाव आयोग को भी गंभीर मंथन करना चाहिए कि मतदान बढ़ाने के लिये देशव्यापी अभियान चलाने के बावजूद वोटिंग अपेक्षाओं के अनुरूप क्यों नहीं हो पायी। वहीं राजनीतिक दलों को भी आत्म-मंथन करना चाहिए कि मतदाता के मोहभंग की वास्तविक वजह क्या है। उन्हें अपनी रीतियों-नीतियों तथा घोषणा-पत्रों की हकीकत को महसूस करना होगा। यह भी कि जनता में यह धारणा क्यों बन रही है कि वायदे सिर्फ वायदे बनकर ही रह जाते हैं। 
अनुच्छेद 370 हटाए जाने से पहले जम्मू-कश्मीर में लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के तहत ही चुनाव होते थे। तब लोकसभा में तो यहां के वाल्मीकि समाज, गोरखा समाज और पश्चिमी पाकिस्तान से आए रिफ्यूजी वोट डाल सकते थे, मगर विधानसभा के चुनाव में नहीं। 370 हटाए जाने के बाद अब वे विधानसभा के चुनावों में भी वोट डाल सकते हैं क्योंकि उन्हें भी जम्मू-कश्मीर का स्टेट सब्जेक्ट या नागरिक मान लिया गया है। जम्मू-कश्मीर चुनाव विभाग के अधिकारियों का कहना है कि मतदाता सूची में इन लोगों के नाम लोकसभा के लिए तो हैं, मगर विधानसभा में नहीं। अब इनको भी सूची में शामिल कर लिया गया है। इससे भी स्थिति में सुधार हुआ है, स्थानीय नागरिकों में लोकतंत्र और संविधान के प्रति विश्वास पहले से ज्यादा दृढ़ हुआ है। 
आम चुनाव के ऐसे मतदान ने उम्मीदें भी जगा दी हैं कि जम्मू-कश्मीर का राज्यत्व भी बहाल होगा और विधानसभा चुनाव भी ऐसे ही सुकून के साथ होंगे।