आग से दहकते पर्वतीय जंगल, ज़िम्मेदार कौन ?   

ग्लोबल वॉर्मिंग या कह लें मानवीय गलतियों की वजह से  पर्वतीय जंगलों में आग लगने की घटनाएं हो रही हैं। आईआईटी रुड़की के सेंटर ऑफ  एक्सीलेंस इन डिजास्टर मिटिगेशन एंड मैनेजमेंट विभाग के प्रोफेसर पीयूष श्रीवास्तव और  प्राइम मिनिस्टर रिसर्च फेलो आनंदू प्रभाकरन ने हाल ही में जंगलों की आग को लेकर विशेष अध्ययन किया है। प्रो. पीयूष बताते हैं कि सन् 2013 से सन् 2022 तक उत्तराखंड का करीब 23 हज़ार हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आया है। इसके पीछे बेहद जटिल भौगोलिक स्थितियां भी एक कारण रही हैं जैसे मिश्रित जंगलों का होना, सूखी पत्तियों और चीड़-देवदार के निडिल का ईंधन है जिन्हें ड्राई फ्यूल कंडिशन कहते हैं। इन्सानों द्वारा गलती से या जान बूझकर लगाई गई आग भी जंगलों की बर्बादी का कारण बन रही है। चीड़ की पत्तियां, जिन्हें पिरूल कहा जाता है, गर्मी होते ही हवा के साथ पेड़ों से झड़ने लगती हैं और इनसे आग बहुत तेज़ी से फैलती है। इसी तरह गर्मी के मौसम में चीड़ के जंगलों में लीसा निकालने का सीजन शुरू हो जाता है। इसका लीसा इतना ज्वलनशील होता है कि उसमें लगी आग पर काबू पाना बहुत मुश्किल हो जाता है।
इन दिनों भीषण गर्मी पड़ रही है, हीट वेव चल रही है। सर्दियों के मौसम में बारिश कम हुई है। सन् 2015-16 में भी ऐसी ही स्थिति बनी हुई  थी। तब यानी सन् 2016 में 4400 हेक्टेयर जंगल आग की चपेट में आए थे।  गर्मियों में लगने वाली आग की वजह से पहाड़ी मिट्टी और सतह कमजोर हो जाती है। इसके बाद बारिश आने पर लैंडस्लाइड होते रहते है। वैज्ञानिकों को आशंका है कि यह आग इन्सानों द्वारा गलती से या फिर जान बूझकर लगाई गई भी हो सकती है। जंगल की आग के 95 प्रतिशत मामलों में इन्सानी गतिविधियां ही मुख्य कारण हैं। किसी ने जलती बीड़ी पीकर फेंक दी, पत्ते या कूड़ा जला दिया, उसी से आग की घटनाएं बलवती हो जाती है। पहले बारिश, बर्फबारी और नमी की वजह से आग बुझ जाती थी, लेकिन अब ग्लोबल वॉर्मिंग की वजह से तापमान बढ़ता जा रहा है। इस कारण आग आसानी से बुझ नहीं पाती। अब ज़रा सी चिंगारी पूरे जंगल को खाक करने की ताकत रखती है।
अगर पहाड़ों पर मौजूद स्थानीय लोगों को मौसम से संबंधी सटीक जानकारी दी जाए, उन्हें यह बताया जाए कि यह मौसम आग लगने का है। कोई ऐसी गलती न करें जिससे जंगल में आग लगे, खास तौर पर ढलान वाले इलाके में आग न जलाई जाए, कूड़ा न जलाया जाएं, तभी आग के हादसे रोके जा सकते हैं। स्थानीय लोगों की जागरुकता ही जंगलों को जलने से बचा सकती है। जंगल की आग कब लग सकती है, कहां लग सकती है, इसे लेकर एक स्वदेशी अर्ली वॉर्निंग सिस्टम बनाया जा रहा है जो कि खास तरह का कम्प्यूटर मॉडल होगा, जो खास तापमान, मौसमी स्थितियों, भौगोलिक परिस्थ्तियों का ताज़ा डाटा डालने पर जंगल की आग की भविष्यवाणी कर सकेगा। इससे जंगलों को आग से बचाने की तैयारी पहले पूरी कर ली जाएगी। भविष्य में इसरो-नासा के नए सैटेलाइट निसार से भी इसमें मदद मिल सकती है।
उत्तराखंड के वन विभाग द्वारा जारी जानकारी के अनुसार 24 घंटों में राज्य के कुमाऊं क्षेत्र में जंगल में आग लगने की 26 घटनाएं हुईं जबकि गढ़वाल क्षेत्र में पांच घटनाएं हुईं जहां 33.34 हेक्टेयर वन क्षेत्र प्रभावित हुआ। उत्तराखंड में नवम्बर से अब तक 910 घटनाएं सामने आ चुकी हैं। प्रदेश में 1,145 हेक्टेयर से अधिक वन क्षेत्र में लगी आग ने अब तक पांच ज़िंदगियां लील ली हैं। पहली आग लगभग छह महीने पहले भड़की थी और अब तक फैल रही है। ऐसे में कहा जा सकता है कि उत्तराखंड की भयावहता भी कैलिफॉर्निया के जंगल की आग से अलग नहीं है। अमरीका हो या उत्तराखंड, जंगल में भड़की आग को  बुझाने में विज्ञान भी विफल हो गया है। उत्तराखंड में  जंगल धू-धूकर जल रहे हैं। उत्तराखंड में हर साल करीब 1,978 हेक्टेयर वन क्षेत्र आग से जल जाता है। इससे वनस्पति एवं जैविक सम्पदा का भारी नुकसान तो होता ही है, हिमालयी क्षेत्र का पर्यावरण भी बुरी तरह प्रभावित होता है।
उत्तराखंड के विभिन्न जंगलों में आग की कई घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। जंगल का इलाका ऊबड़-खाबड़ और खड़ी ढलान वाला है, जहां घनी वनस्पतियां हैं। इस कारण प्रभावित क्षेत्रों तक पहुंचने और वहां इधर से उधर आ-जा पाना आसान नहीं है। उत्तराखंड में कई वन क्षेत्रों की तरह अक्सर तेज हवाएं चलती हैं जो जंगल की आग को भड़काने का कारण बनती हैं। सूखी वनस्पति आग के लिए ईंधन का काम करती है, जबकि तज़ हवाएं लपटों और अंगारों को तेज़ी से आगे बढ़ाती हैं। उत्तराखंड के वन अधिकारियों ने भी आग के तेज़ी से फैलने का कारण तेज़ हवाओं को बताया (अदिति)