द़ागी नेताओं को चुनाव लड़ने के अयोग्य घोषित क्यों नहीं किया जाता ?

अपने देश की जनता और परिवारों को सुरक्षित रखने के लिए, लूटपाट से बचाने के लिए, उनके जीवन की रक्षा के लिए सरकारी आदेश और निर्देश यह रहता है कि जब भी अपने घर, दुकान या संस्थान में कोई नया कर्मचारी रखें अथवा किराएदार रखें तो पुलिस को विशेषकर अपने क्षेत्र के पुलिस स्टेशन को उसकी जानकारी देनी चाहिए। जब पुलिस यह निश्चित कर दे कि उस व्यक्ति का कोई आपराधिक रिकार्ड नहीं है, तभी उसे किराएदार या कर्मचारी के रूप में रखा जाए। सरकारी नौकरी में भी जो व्यक्ति चुना जाता है, उसकी पहले पुलिस वैरिफिकेशन करवाई जाती है, उसके बाद ही उसे सरकार द्वारा नियुक्ति पत्र मिलता है अथवा नियुक्ति पत्र देने के बाद भी काम करने के पहले दो महीनों में ही पुलिस से जांच आवश्यक कही गई है, परन्तु अब यह प्रश्न पैदा होता है कि जब सरकारी कर्मचारी के लिए नौकरी में आने से पहले पुलिस वैरिफिकेशन ज़रूरी है तो सरकार के लिए क्यों नहीं। 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले इतना ज्यादा दल-बदल हुआ, जिसने पुराने सारे रिकार्ड तोड़ दिए। साठ के दशक के ‘आया राम गया राम’ से लेकर 2023 में दल बदलने वाले नेताओं की चर्चा खूब रही। 2024 के चुनावों में बहुत-से राजनीतिक दलों ने दूसरी पार्टियों के बागी या निकाले गए नेताओं को अपनी पार्टी में शामिल ही नहीं किया, अपितु उनको लोकसभा के लिए प्रत्याशी भी बनाया। कुछ ऐसे नेता भी एक दल से दूसरे दल में गए अथवा बुलाए गए, जिनका अतीत अपराध, भ्रष्टाचार और घोटालों से भरा था।
महाराष्ट्र के तो कुछ ऐसे भी प्रसंग सुनने को मिले कि जो नेता सत्ता पक्ष की शरण में आ गए। उन पर अरबों के घोटालों की गाज गिरने वाली थी, परन्तु उन्होंने सत्ता पक्ष का अभेद्य कवच ओढ़ लिया। भारत की जनता का तो धन्यवाद कि जागरूक मतदाताओं ने अधिकतर दल बदलुओं को हराया। सरकारों से यह प्रश्न करना बनता है कि जब पुलिस यह आदेश या निर्देश देती है कि कोई नया व्यक्ति घर में, व्यापार में, उद्योग में जोड़ने से पहले उसकी पृष्ठभूमि की पुलिस से जांच करवाई जाए, तो ये जो बड़े-बड़े नेता दल बदल कर दूसरी पार्टी में जाते हैं, उन पार्टियों ने कभी इस नियम का पालन किया जो आम जनता के लिए है?
वास्तविकता तो यह है कि राजनेताओं के अपराध या उनकी आपराधिक पृष्ठभूमि किसी से छुपी नहीं होती। फिर भी देश का बड़े से बड़ा नेता सत्ता के लालच में उन्हें गले लगा लेता है। दिल मिले या न मिले, हाथ मिला लिया जाता है। 
अपने राजनीतिक लाभ को देखते हुए मौका पाकर दल बदल लेना बहुत-से नेताओं के लिए सामान्य बात हो गई है।  चुनाव से पूर्व सभी प्रत्याशी चुनाव आयोग को यह जानकारी देते हैं कि उनको ऊपर किस किस अपराध में मुकद्दमें चल रहे हैं या उनको दंड देने का अदालत ने निर्णय कर लिया है। फिर भी उनको चुनाव लड़ने की इजाज़त क्यों मिल जाती है? एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भी जिन अपराधों के कारण सरकारी नौकरी के अयोग्य करार दे दिया जाता है, उन्हीं अपराधों को या आपराधिक पृष्ठभूमि को स्वीकार करते हुए चुनावी प्रत्याशी चुनाव लड़ने की आज्ञा पा लेता है। आखिर ऐसा क्यों होता है?
एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म (एडीआर) की रिपोर्ट के अनुसार 18वीं लोकसभा के लिए जो 543 सांसद चुने गए उनमें से 251 अर्थात 46 प्रतिशत पर आपराधिक मामले दर्ज हैं। इनमें से 27 सांसदों को अलग-अलग अदालतों द्वारा दोषी करार दिया जा चुका है। एडीआर की रिपोर्ट के अनुसार दागी सांसदों का यह अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है। इससे पहले 2019 में आपराधिक मामलों वाले 233 अर्थात 43 प्रतिशत सांसद लोकसभा में पहुंचे थे। भारत के मतदाताओं को यह गंभीरता से सोचना चाहिए कि यह संख्या बढ़ती क्यों जा रही है? 2009 में 162, 2014 में 185, 2019 में 233 दागी छवि वाले या बहुत-से गंभीर अपराध करने वाले संसद में पहुंचे थे। दुनिया भर की सुख सुविधाएं उनको मिल गईं। आजीवन पेंशन, मुफ्त रेल यात्राएं, आरक्षण की सुविधा सब कुछ उनको मिल गया जो दागी, परन्तु सांसद थे। अब 2009 से 2024 तक गंभीर आपराधिक मामलों वाले सांसदों की संख्या 124 प्रतिशत बढ़ गई है। क्या देश का चुनाव आयोग, देश की लोकसभा यह नियम नहीं बना सकती कि आपराधिक छवि वाले नेताओं को चुनाव लड़ने से अयोग्य घोषित किया जाए।