अवसाद की देवी लीला चिटनिस के अनसुने किस्से 

भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान महिलाओं की शिक्षा मुख्यधारा में नहीं थी, लेकिन इसके बावजूद लीला चिटनिस भारत की पहली शिक्षित अभिनेत्री के तौर पर विख्यात हुईं। वह शोहरत की बुलंदी पर पहुंची और लग्ज़री सोप ब्रांड का पहला भारतीय चेहरा बनकर बॉलीवुड स्टारडम की अगली पीढ़ियों के लिए मिसाल स्थापित की। धारवाड़, जो उस समय बॉम्बे प्रेसीडेंसी का हिस्सा था, में जन्मीं लीला ने अपना कॅरियर थिएटर एक्टर के रूप में आरंभ किया। वह बॉम्बे स्थित अवंत-ग्रेड थिएटर कम्पनी नाट्मानवांतर के लिए काम करती थीं। उन्होंने अपना भी एक थिएटर ग्रुप नाट्साधना स्थापित किया, लेकिन जल्द ही बॉलीवुड की फिल्मों में बतौर एक्स्ट्रा काम करने लगीं। 
लीला ने फिल्मोद्योग में प्रवेश 1935 में किया था, लेकिन उनकी पहचान 1937 की फिल्म ‘जेंटलमैन डाकू’ से बनी, जिसमें उन्हें मूंछों के साथ पुरुषों के कपड़ों में पेश किया गया था। इस फिल्म का विज्ञापन इस तरह से किया गया था- ‘जिसमें हैं लीला चिटनिस, बीए। स्क्रीन पर पहली सोसाइटी लेडी ग्रेजुएट, महाराष्ट्र से।’ लीला ने अंग्रेज़ी में डिस्टिंक्शन के साथ बीए किया था, लेकिन उनका दिल तो अभिनय में था। कुछ समय अध्यापिका रहने के बाद उन्होंने अपने परिवार का खर्च उठाने के लिए एक्टिंग की ओर रुख किया। अपना अभिनय कॅरियर आरंभ करने के समय वह सिंगल मदर थीं, क्योंकि वह अपने पति डा. गजानन यशवंत चिटनिस से अलग हो गईं थीं, जिनसे उन्होंने अपनी किशोरावस्था में विवाह किया था। वह फिल्मोद्योग में न केवल गिनी चुनी तलाकशुदा अभिनेत्रियों में से एक थीं बल्कि लीड रोल करने वाली गिनती की मांओं में से भी एक थीं।
लीला की प्रमुख फिल्में 1930 के दशक में आयीं, जब वह बॉम्बे टॉकीज़ सहित प्रमुख प्रोडक्शन हाउसेस में काम करती थीं। वह उन सामाजिक फिल्मों में अपने सशक्त अभिनय के लिए अधिक विख्यात थीं, जिनमें भारतीय समाज के मुद्दों को संबोधित किया जाता और संदेश दिया जाता था। हालांकि वह अक्सर ‘अच्छी लड़की’ की भूमिका में होती थीं, लेकिन उन्होंने बदनाम लड़की के भी रोल किये, मसलन, ‘द बेटर हाफ’ (1940) में उन्हें स्क्रीन पर धुम्रपान हुए दिखाया गया, जोकि स्क्रीन पर दिखाना सामान्य बात तो हो गई थी, लेकिन लीला से यह उम्मीद नहीं थी क्योंकि उन्होंने अपनी एक अलग छवि, रुतबा व मकाम बनाया हुआ था। बहरहाल, ‘जेलर’ (1938), ‘बंधन’ (1940), ‘आज़ाद’ (1940) आदि सफल फिल्मों के कारण आलोचक उनकी प्रशंसा करते थे और दर्शक उनके दीवाने थे। अशोक कुमार के साथ उनकी जोड़ी ‘स्टार पेअर’ थी और अपने कॅरियर के चरम पर लीला को ‘द स्टार ऑ़फ द ईयर’ घोषित किया गया।
लेकिन सुंदरता की प्रतीक लीला के लिए सुंदरता ही उनके पतन का कारण बनी। वह अपनी परम्परागत ख़ूबसूरती के लिए विख्यात थीं और कहा जाता था कि बढ़ती उम्र के साथ वह अधिक सुंदर होती जा रही हैं। 1941 में वह एक सोप के लिए एम्बेसडर बनीं और इस भूमिका में वह पहली भारतीय अभिनेत्री थीं। इससे उनकी छवि ‘स्टारडम के डिसप्ले’ की बनी कि आदर्श सुंदरता का यह मानक है। नतीजतन उनकी अभिनय क्षमता (जिसकी बदौलत उन्होंने खुद को स्थापित किया था) की बजाय उनकी लुक्स पर अधिक फोकस किया जाने लगा। आलोचक उनकी लिपस्टिक, स्किन टोन, नाक के आकार आदि पर अधिक फोकस करते और उनकी परफॉर्मेंस पर कमेंट करने की बजाय अक्सर उनके मेकअप के कम या ज्यादा होने पर कलम चलाते। लीला के साथी पुरुष एक्टर्स की तो परफॉर्मेंस पर लिखा जाता, लेकिन उनके मेकअप पर ही फिल्म की समीक्षा खत्म कर दी जाती। ‘बंधन’ उनकी हिट फिल्म थी, लेकिन इसकी समीक्षा के कई पैराग्राफ में आलोचकों ने उनके मेकअप की खामियां निकालीं, जबकि अशोक कुमार के परफॉर्मेंस का ज़िक्र किया गया। लीला सुंदरता की मिसाल अवश्य थीं, लेकिन बढ़ती उम्र उनमें एंग्जायटी उत्पन्न करने लगी थी।
‘फिल्म इंडिया’ के जून 1941 के अंक में कहा गया, ‘कॉलेज की हर सुंदर लड़की अब चिटनिस है, हर मुस्कान में चिटनिस की चमक है और हर गाल पर चिटनिस का रंग है।’ लेकिन इस तारीफ के बाद इसी लेख में सवाल उठाया गया, ‘क्या चैंपियन मां सपने देखने वाले युवा के लिए हीरोइन हो सकती है? और किसे हीरोइन के रूप में मां चाहिए। निश्चितरूप से कॉलेज के लड़कों को तो नहीं?’ इस तरह लीला के अविश्वसनीय वैभव को ध्वस्त कर दिया गया। उनकी छवि को बाहर के पुरुष नियंत्रित करने लगे। ‘घर घर की कहानी’ की एक समीक्षा में तो यहां तक कहा गया कि ‘फिल्म में वह हीरो की मां लग रही थीं’, जबकि उस समय लीला ने अपने जीवन के 30 बसंत ही पार किये थे। नतीजतन बॉक्स ऑफिस पर उनकी फिल्में खराब प्रदर्शन करने लगीं। उसी दौरान उन्होंने निर्माता सी.आर. ग्वलानी से विवाह कर लिया, जिससे उनकी स्टार की इमेज अतिरिक्त प्रभावित हुई। 
बहरहाल, लीला ने हार नहीं मानी, वह काम करती रहीं। वह निर्माता (किसी से न कहना) भी बनीं और अपने बैनर ‘लीला चिटनिस प्रोडक्शंस’ के तहत निर्देशन (आज की बात) भी किया। लेकिन तब तक फिल्मोद्योग ने उन्हें ‘समर्पित बीमार मां’ की भूमिकाओं में कैद कर दिया था, जबकि वह मात्र 39 वर्ष की थीं। अपनी इस नई भूमिका यानी ‘रोती, उदास, बीमार मां’ में भी उन्होंने अपने अभिनय से प्रभावित किया, विशेषकर ‘शहीद’ (1948), ‘आवारा’ (1951), ‘गंगा जमुना’ (1961) और ‘गाइड’ (1965) में। उनकी अंतिम फिल्म 1987 में ‘दिल तुझको दिया’ थी। इसके बाद वह अमरीका चली गईं और 2003 में 94 वर्ष की आयु में वहीं उनका निधन हो गया। न्यूयॉर्क टाइम्स ने उनकी याद में एक लेख प्रकाशित किया और उनकी मां की भूमिकाओं का संज्ञान लेते हुए उन्हें ‘अवसाद की देवी’ कहा।
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