मामूली लोगों के जज़्बातों की बड़ी लेखिका - अरुंधति राय

अगर किसी सैमीनार में कोई बुलंद आवाज अमरीकी साम्राज्यवाद को ललकार रही हो, अगर कहीं कोई ऊंची आवाज में दुनिया में परमाणु हथियारों की होड़ को पागलपन करार दे रहा हो, अगर कहीं बड़े बांधों से विस्थापित मामूली लोगों की कोई लड़ाई लड़ रहा हो तो ध्यान से देखिएगा बहुत संभव है कि वह मशहूर लेखिका और आंदोलनकारी अरुंधति राय ही होंगी। दिल्ली की सत्ता से अकसर छत्तीस का आंकड़ा रखने वाली अरुंधति राय इन दिनों अचानक चर्चा में इसलिए आ गई हैं, क्योंकि उन्हें ब्रिटेन के मशहूर ‘पेन पिंटर अवॉर्ड’ देने की घोषणा हुई है। नोबेल सम्मान से सम्मानित ब्रिटिश नाटककार हेरोल्ड पिंटर की याद में दिया जाने वाला पेन पिंटर अवॉर्ड ऐसे साहसी लेखकों को दिया जाता है, जो अपनी सुरक्षा और आजादी को जोखिम में डालकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बचाने के लिए संघर्ष करते हैं। अरुंधति राय अपने ऐसे ही साहसी लेखन के लिए पूरी दुनिया में जानी जाती हैं। 
24 नवंबर 1961 को शिलांग में जन्मीं अरुंधति राय की मां मैरी राय केरल की सीरियन ईसाई हैं, जबकि उनके हिंदू पिता रंजीत राय कोलकत्ता के हैं, जब अरुंधति राय अभी महज दो वर्ष की थीं, तभी उनके माता-पिता के बीच डिवोर्स हो गया और वह अपनी मां तथा भाईयों के साथ केरल में आकर रहने लगीं। अरुंधति राय को बहुत कम उम्र से ही विपरीत स्थितियों को झेलना पड़ा है। जहां दो साल की उम्र में उनके माता-पिता के बीच तलाक हो गया, वहीं जब वह अभी किशोरावस्था में ही थीं कि उनकी मां को अपने भाईयों से पिता की संपत्ति में हिस्सा पाने के लिए लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी। 16 साल की उम्र में अरुंधति राय ने अपना घर छोड़ दिया और फिर अपनी जिंदगी को बनाने, संवारने और बचाने के लिए उन्हें वह सबकुछ करना पड़ा, जो किसी को भी इस नोचती, खसोटती दुनिया में करना पड़ता है। उन्होंने अपनी पढ़ाई के लिए खाली बोतलें बेंची, अनगिनत छोटी-छोटी नौकरियां की और फिर दिल्ली स्कूल ऑफ आर्किटेक्चर में दाखिला लिया। बचपन से ही तेज़ दिमाग की इस लड़की ने आर्किटेक्ट बनने के बाद लेखन और अभिनय की दुनिया की तरफ मुड़ गईं।
आर्किटेक्ट की पढ़ाई करने के बाद उनकी मुलाकात प्रदीप किशन से हुई, जो बाद में उनके दूसरे पति भी बने। प्रदीप किशन पेशे से फिल्मकार हैं इसलिए अरुंधति उनसे मुलाकात के बाद काफी हद तक फिल्मों की तरफ चली गईं। उन्होंने 1985 में अपने पति प्रदीप किशन की फिल्म ‘मैसी साहब’ में रघुवीर यादव के साथ मुख्य भूमिका निभायी। यह प्रदीप किशन की पहली फिल्म थी, जिन्होंने जॉयस कैरी के 1939 लिखे गये उपन्यास मिस्टर जॉनसन पर बनायी थी। मैसी साहब में लीड रोल निभाने के बाद उन्हें कई फिल्मों में हीरोइन के ऑफर आने लगे, लेकिन उन्होंने अभिनेत्री का रोल निभाने की जगह साल 1989 में ‘इन व्हिच एनी गिव्स इट दोज वंस’ के लिए स्क्रीन प्ले लिखा और साल 1992 में फिल्म इलेक्ट्रिक मून के लिए स्टोरी स्क्रीन प्ले और डायलॉग लिखा। उनकी इस पटकथा को भी खूब सरहाना मिली, लेकिन लम्बे समय तक वह फिल्मों की दुनिया में भी नहीं टिकीं। साल 1997 में उनका बहुचर्चित उपन्यास ‘द गॉड ऑफ स्मॉल थिंग्स’ आया, जिस पर उन्हें बुकर सम्मान मिला। लगभग 8 करोड़ रुपये की मिली रॉयलिटी को उन्होंने मानवाधिकारों के लिए काम कर रहे लोगाें में दान कर दिया।
जब वह फिल्मों में सक्रिय थीं, उसी दौरान 1994 में शेखर कपूर की आयी फिल्म ‘बैंडिट क्वीन’ की उन्होंने सार्वजनिक रूप से भर्त्सना की थी और शेखर कपूर पर आरोप लगाया था कि उन्होंने फूलन देवी के जीवन और उसके अर्थ दोनों को ही गलत तरीके से प्रस्तुत किया था। बहरहाल अरुंधति राय पूरी दुनिया में अपनी मानवाधिकारों की कट्टर पक्षधरता के लिए लिखी किताबों और निबंधों के लिए जानी जाती हैं। अपने इस लेखन के चलते उन्होंने दुनियाभर की ताकतवर सरकारों और लोगों को अपना दुश्मन बना लिया है। यह आश्चर्यजनक नहीं है कि जब अरुंधति राय के लिए पेन पिंटर जैसा सम्मानीय अवार्ड घोषित हुआ, उसके ठीक कुछ दिनों पहले दिल्ली के उप राज्यपाल वीके सक्सेना ने उन पर यूएपीए (गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम कानून) के तहत केस चलाने की अनुमति दी थी। उन पर यह मुकदमा साल 2010 में राजधानी दिल्ली में हुए एक संगोष्ठी में कश्मीर पर रखी गई अपनी राय के कारण चलाया जायेगा। 
21 अक्तूबर 2010 को दिल्ली के एलटीजी ऑडिटोरियल में हुए एक कार्यक्रम ‘आजादी द ओनली वे’ में उन्होंने अपनी राय रखते हुए कहा था कि कश्मीर कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था, उस पर भारत की सशस्त्र सेना ने जबरन कब्जा किया था। इस कार्यक्रम में उनके भाषण को लेकर सामाजिक कार्यकर्ता सुशील पंडित ने 28 अक्तूबर 2010 को पुलिस स्टेशन में एक शिकायत दर्ज करायी थी और फिर दिल्ली की एक अदालत ने केस दर्ज करने का आदेश दिया था। अरुंधति राय की लेखनशैली कितनी आकर्षक है कि उनका बुकर प्राइज से सम्मानित पहला उपन्यास मई 1997 में छपकर आया था और उसी साल जून तक ये विश्व के 18 देशों में करीब-करीब सारा बिक चुका था। इसी साल के अंत में टाइम पत्रिका ने उनके उपन्यास को दुनिया की सबसे ज्यादा बिकने वाली पांच किताबों में शामिल किया था। 
अरुंधति राय भले कम लिखती हों, लेकिन उनका लेखन हमेशा उत्तेजक और चर्चा में रहता है। साल 2009 में लिखी गई उनकी एक और किताब ‘इंडिया, लिसनिंग टू ग्रासहॉपर्स: फील्ड नोट्स ऑन डेमोक्रेसी’ खूब चर्चा में रही। यह किताब उनके ऐसे निबंधों का संग्रह है, जो समकालीन भारत में लोकतंत्र के अंधेरे हिस्सों की पड़ताल करते हैं। अरुंधति राय पोखरण परमाणु परीक्षण की भी प्रखर विरोधी रही हैं और साल 2002 में गुजरात में हुए साम्प्रदायिक दंगों का भी उन्होंने खुलकर विरोध किया था। 62 साल की अरुंधति राय इसके पहले की मनमोहन सरकार की भी आंख की किरकिरी थीं और मौजूदा मोदी सरकार को भी वह फूटी आंखों नहीं भातीं। शायद इसलिए क्याेंकि वह किसी का भी लिहाज नहीं करतीं, वह बहुत साहसी और अडिग लेखिका हैं और उनके लेखन में एक खास तरह का चुटीला तंज रहता है, जैसा कि इंग्लिश पेन की अध्यक्ष रूथ बार्थविक ने कहा है, ‘अरुंधति राय बहुत ही चुटीले अंदाज में सुंदरता के साथ अन्याय की ज़रूरी कहानियां लिखती हैं।’ पेन पिंटर अवॉर्ड उन्हें इसी साल अक्तूबर के महीने में दिया जायेगा।

-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर