दैनिक समाचार पत्रों का मुख्य पृष्ठ : तब और अब 

मुझे दैनिक समाचार पत्रों से जुड़े हुए 40 वर्ष हो गए हैं। 1984 में मेरे मित्र बरजिन्दर सिंह हमदर्द ने पंजाबी ट्रिब्यून का सम्पादन छोड़ कर अपने पिता जी द्वारा स्थापित ‘अजीत समाचार समूह’ की कमान सम्भालनी थी। तब मुझे सरकारी पत्रिकाओं के सम्पादकीय स्टाफ में कार्य करते 30 वर्ष हो गए थे, परन्तु दैनिक समाचार पत्रों की कार्य विधि से अनजान था। मुझे इस राह पर ले जाने वाले बरजिन्दर सिंह तथा ‘मेनस्ट्रीम’ के सम्पादक देस राज गोयल थे। 
जब मैंने पंजाबी ट्रिब्यून की सम्पादकीय सम्भाली तो ट्रिब्यून समाचार समूह का मुख्य सम्पादक उस समय का दबंग पत्रकार प्रेम भाटिया था। वह मुख्य पृष्ठ पर विज्ञापन नहीं प्रकाशित होने देता था। यदि कोई पीछे पड़ ही जाए तो मुख्य पृष्ठ के एक-चौथाई हिस्से से अधिक स्थान नहीं देता था। मेरे लिए यह पत्रकारी का पहला सबक था। 
आजकल दैनिक समाचार पत्रों की महानता पर हमला करने वाले बड़े पूंजीपति ही नहीं, कर्पोरेट के कर्ता-धर्ता भी हैं। वे मुख्य पृष्ठ को क्या अगले दो-तीन पृष्ठ भी खा जाते हैं। उन्हें अपनी कम्पनियों की प्रशंसा करने वाले विज्ञापनों के लिए स्थान चाहिए होता है। बड़े समाचार पत्र अपने ‘मास्ट हैडों’ की बलि नहीं देते, परन्तु छोटे एवं ज़रूरतमंद समाचार पत्र ऐसा करते समय भी नहीं कतराते। यदि विज्ञापन हिन्दी भाषा में हो तो ऐसे प्रतीत होता है जैसे पंजाबी पाठकों के घर गलती से हिन्दी समाचार पत्र आ गया है। ऐसा गलत काम करने वालों को विनती है कि ‘मास्ट हैट’ न हड़पने दें।  यह समाचार पत्र की कलगी होती है। हम चार पैसों के लिए अपनी कलगी की बलि न दें। पाठकों की लाज रखें और खुशी प्राप्त करें। 
मेरे हिस्से का हिमाचल तथा पर्वतीय ठिकाना
मेरी पहली पर्वत यात्रा 1958 की है। नई दिल्ली से रोहतांग दर्रे की। हमारे पास एक मोटरसाइकिल था, परन्तु यात्रा करने वाले हम चार थे। दो ड्राइवर तथा दो ड्राइवरी से अनजान। हमारी योजनाबंदी कमाल की थी। एक ड्राइवर तथा नान-ड्राइवर ने चारों का सामान लेकर बस से जाना और एक ड्राइवर तथा नान-ड्राइवर मोटरसाइकिल पर। मोटरसाइकिल  वालों के पास कैमरा होता था और वे छोटे-बड़े नज़ारों की तस्वीरें लेने के लिए निर्धारित मार्ग से इधर-उधर जाकर पर्वतों के मंज़र देख सकते थे और प्राकृतिक नज़ारे भी। 
हम सभी ने रात कहां व्यतीत करनी होती थी इसका फैसला निश्चित होता था। बस वाले यात्रियों ने तय ठिकाने पर पहुंच कर बस अड्डे के निकट दो कमरे ढूंढ कर बस वाला सामान लेकर रात को खाने का आर्डर देना होता था। कोई मुश्किल नहीं हुई। हम सभी भारतीय कृषि अनुसंधान कौंसिल के सम्पादकीय स्टाफ के सदस्य थे और इस नाते एक दूसरे के मित्र भी थे। मैं पंजाबी का काम देखता था, राज गिल अंग्रेज़ी का तथा दूसरे दोनों तकनीकी मामले। जहां तक ड्राइवरी का संबंध था, राज गिल तथा मैं ही जानते थे। दूसरे दो नहीं। हमारे कार्यालय का मुखी एस.एस. रंधावा था। 
हमने तीन दिन मनाली में रह कर रोहतांग का दर्रा भी देखा और ‘जौहर इन कश्मीर’ की शूटिंग भी। इस अद्वितीय यात्रा का याद आना भी एक सबब ही समझें। मैंने गर्मी की ऋतु में कुछ दिन पर्वतों की गोद का आनंद लेने के लिए कालका-शिमरा मार्ग पर धर्मपुर से सबाधु की ओर जाती कच्ची-पक्की सड़क पर दो कमरों का ठिकाना बना रखा है। पाइनलैंड रिज़ार्ट के माथे पर। वहां पहुंचने के लिए डेढ़ किलोमीटर कच्चा रास्ता है जिसके दाएं-बाएं ऊंचे-ऊंचे चील के पेड़ हैं और उनकी जड़ों में छोटे-बड़े फूल एवं पौधे। रिज़ार्ट का नाम देने वाले भी ये पेड़ ही हैं। 
खूबी यह है कि आज के दिन ऐसा ठिकाना मेरा अकेले का नहीं। इसके बिल्कुल पास मेरे भतीजे तथा उसके दो दोस्तों ने भी अपनी-अपनी तीन कुटिया बना ली हैं और मेरे पंजाब कृषि विश्वविद्यालय, लुधियाना की प्रोफैसर जगदीश कौर ने भी। अपनी वाली कुटिया में मेरे पढ़ने के लिए जो पुस्तकें हैं, उनमें से एक एम.एस. रंधावा रचित कांगड़ा की कला तथा गीतों को बयान करती पुस्तक भी है। 1963 में साहित्य अकादमी नई दिल्ली द्वारा प्रकाशित। तब इसकी तैयारी में मैंने भी रंधावा साहिब की सहायता की थी और इस पुस्तक पर बड़े प्यार से उनकी ओर से गुरमुखी लिपी में लिखी भेटा भी अंकित है, ‘गुलज़ार सिंह संधू को जिसने इस पुस्तक के लिखने में मेरी बड़ी मदद की।’
उनकी ओर से 60 वर्ष पहले दी इस भेटा ने मुझे 1958 वाली मनाली तथा रोहतांग की यात्रा ही याद नहीं करवाई, अब की कुटिया तथा इसके आगे तथा पीछे लहरा रहे चीलों ने हरे-भरे पेड़ों बारे लिखने के लिए भी प्रेरित किया है, जिन्हें जड़ों से उखाड़ कर दिल्ली दक्षिण के पूंजीपति बस्तियों का निर्माण कर रहे हैं। शुरू-शुरू में यहां के पैतृक निवासी इन पूंजीपतियों की आमद को नफरत करते थे और आजकल इनकी ओर से आवाजाही के लिए चौड़ी की गई सड़कों की बात करते समय यह भी कहते सुने जाते हैं, ‘यह सब कुछ बस्तीवादियों की देन है और उनकी बदौलत ही सब कुछ हो रहा है। जीवन के सिद्धांत बदल रहे हैं। नई सोच तथा नये निर्माण। 
अंतिका 
(एक पहाड़ी लोक गीत)
खूहे ऊपर खड़ोतिये मुटियारे नी
पानी का घुट्ट पिला बांकिये नारे नी
मेरी कच्छ घड़ा, दूजी कच्छ लोटकी सिपाहिया जी
आपूं डोलो आपूं पीओं असां तेरे महरम न हीं
भन्न घड़ा कर ठीकरी मुटियारे नी
तूं चल मेरे नाल पतलिये नारे नी
तेरे जिहे दो छोकरे सिपाहिया जी
साडे बापुए दे चोबेदार, जांदिआ राहीया जी