भयावह है यकायक और मूसलाधार बारिश का यह पैटर्न

कम समय में ज्यादा बारिश एक चिंतनीय वर्षा पैटर्न है। पर्यावरणविद और जलवायु वैज्ञानिकों का दावा है कि इनका दौर, संख्या और व्यापकता भविष्य में और बढ़ेगी। समस्या अधिक बढ़ जाए, इससे पहले ही सरकार को सचेत हो जाना चाहिए और पर्यावरण के प्रति लापरवाह आमजन को भी।
हीटवेव से हलकान और मानसून का इंतजार करने वाले लोग अचानक मानसून के आगमन से सहम गये हैं, क्योंकि मौसम विभाग के द्वारा दो दर्जन राज्यों में भारी बारिश का ऑरेंज अलर्ट और चेतावनियां जारी करने से पहले उत्तर भारत के कई शहर मूसलाधार बारिश के कहर का शिकार हो चुके हैं। देश के तमाम शहरों से मिले वर्षा संबंधी आंकड़ों को देखने से पता चलता है कि ज्यादातर के वहां महीने भर, साल भर की बारिश एक दिन, एक हफ्ते या कुछ घंटों में हो रही है। चैनलों और इंटरनेट पर हरिद्वार, दिल्ली, भागलपुर जैसे शहरों में पानी में बहती कारें देखी जा सकती हैं, तो कई राज्यों में महज कुछ घंटों में हुई बारिश के बाद का भयावह मंजर भी सामने आ जाते हैं। पिछले कुछ सालों से मानसून के दौरान कई जगहों पर वर्षा के दिनों में कमी तो कुछ जगहों पर इनकी संख्या अपेक्षा से ज्यादा है। बारिश का कहीं कम या ज्यादा होना पहले भी होता आया है लेकिन बेहद कम समय में अत्यधिक वर्षा एक नया मौसमी चलन है, जो इन दिनों बहुधा देखने में आ रहा है। 
सवाल यह है कि आखिर इस साल यह चलन क्यों कर आया, बारिश का पुराना पैटर्न बदलने का कारण क्या है? क्या यह मानव निर्मित है और उसके द्वारा इसे ठीक किया जा सकता है अथवा मानवीय नियंत्रण से बाहर पूर्णतया प्राकृतिक प्रक्रिया है? अतिवृष्टि से सबसे ज्यादा सामान्यजन ही प्रभावित होते हैं, लेकिन वे अलनीनो प्रभाव, वेस्टर्न डिस्टर्वेंस, साइक्लोनिक सर्क्युलेशन, मानसून टर्फ, ऑरोग्राफिक लिफ्ंिटग जैसे तमाम तकनीक कारकों को न जानते हैं, न उसकी तह में जाना चाहते हैं। जागरूकता के अभाव में उनके लिए यह बस मौसम की मज़र्ी है। 
जलवायु वैज्ञानिकों का दावा है कि भविष्य में वर्षा ऋतु में भारी वर्षा वाले दिन ज्यादा होंगे और इसका दौर साल दर साल बढ़ता जायेगा। ऐसे में इस अचानक और भारी वर्षा के पीछे क्या कारक हैं, उसके संभावित निवारक तत्व क्या हो सकते हैं और उससे उपजने वाली समस्याओं के समाधान हेतु भविष्य में क्या तैयारियां अपेक्षित हैं, जानना ज़रूरी होगा और सरकार तथा आमजन दोनों को अपने कार्य व्यवहार के लिए उसके अनुरूप छोटे तथा दीर्घावधि वाले लक्ष्य तय करने होंगे। जलवायु परिवर्तन पर अंतर-सरकारी पैनल की रिपोर्ट कहती है कि 1950 के दशक से विश्व भर में भारी वर्षा की घटनाएं बढ़ी हैं। देश के लोग तकरीबन तीस सालों से अनियमित मानसून पैटर्न के तहत कहीं अतिवृष्टि, कही अनावृष्टि की घटनाओं देख रहे हैं। हालांकि इस पर ज्यादा ध्यान बीते कुछ बरसों में ही दिया गया है। एक अध्ययन बताता है कि दक्षिण-पश्चिम मानसून के दौरान पिछले 10 वर्षों में भारत के 4,419 उपजिलों के 55 प्रतिशत में बारिश में वृद्धि दर्ज की गई जबकि 11 फीसदी उपजिलों में बारिश में कमी आयी है। पर्यावरणविदों के अनुसार कम समय में ज्यादा बारिश होने के अधिकांश कारण मानव-जनित जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग से जुड़े हुए हैं, जिस कारण वातावरण में नमी की मात्रा और वायुमंडलीय तापमान प्रभावित होता है, ज्यादा नमी और ठंडे वायुमंडलीय तापमान का मतलब है, भारी बारिश। 
नासा ने दो बरस पहले कहा था कि धरती के तापमान में हर एक डिग्री की बढ़त वायुमंडल में जलवाष्प की मात्रा लगभग 7 प्रतिशत बढ़ाती है। इससे थोड़े समय में भारी बारिश की आशंका बढ़ती है। पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के अनुसार वर्ष 1901-2018 के बीच देश में सतह की हवा का तापमान 0.7 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है, इसके कारण वायुमंडलीय नमी में भी बढ़ोत्तरी हुई है। 1951-2015 के दौरान हिंद महासागर में समुद्री सतह का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा है, गत कुछ वर्षों से समुद्री सतह के तापपान में तेज़ी से बढ़त जारी है। पहले मानसून के दौरान इसका तापमान गिरता था, लेकिन अब नहीं। अत: यह असामान्य ताप वृद्धि नमी में बढ़ोत्तरी कर मानसून का नियमित पैटर्न बिगाड़ देती है। पर्वतीय क्षेत्रों में ग्लोबल वॉर्मिंग के चलते वायुमंडल की नमी बढ़ती है, इस नम हवा को पहाड़ियां रोकती और उठाती हैं, इस ऑरोग्राफिक लिफ्टिंग के कारण पर्वतों में भारी बारिश, भूस्खलन के कारण भारी तबाही होती है। इसके अलावा जब ठंडी हवा वातावरण में ऊपर की तरफ जाती है तो साइक्लोनिक सर्कुलेशन की स्थिति बनती है और ज्यादा बारिश होती है, इसी तरह मानसून के दौरान कम दबाव वाले क्षेत्र में इकट्ठा हुई हवाएं मानसून टर्फ बना लेती हैं, पश्चिमी विक्षोभ से यह मानसून टर्फ टकराता है तो भीषण वर्षा होती है।
तापमान और नमी में वृद्धि के साथ-साथ अचानक भारी वर्षा का दौर लगातार बढ़ते जाने वाला है। इससे संबंधित बहुत-सी परिस्थितियों पर हमारा नियंत्रण नहीं है, परन्तु जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग को कम करने और इनकी वजह से गड़बड़ाए रेन पैटर्न के दुष्प्रभावों, समस्याओं से निपटने के उपाय अवश्य किए जा सकते हैं। बरसों से हो रहे अनियोजित विकास ने बारिश से होने वाली तबाही को रोकने वाली जिन प्राकृतिक सुरक्षा को नष्ट कर दिया है, उनको पुनर्जीवित करने का ज़रूरत है। बाढ़ और सूखे जैसी खतरनाक परिस्थितियों के शिकार होने से पहले नेतृत्व को सचेत होना होगा और देश को अपना हरितक्षेत्र बढ़ाने, हरित ईंधन पर ज़ोर देने के साथ-साथ उन सभी पर्यावरणीय नियमों, उपायों को अपनाना होगा जिससे पर्यावरण की रक्षा हो सके और धरती का तापमान न बढ़े। इसमें सरकार की सक्रियता, इच्छा व जनता का सहयोग बहुत ज़रूरी है।
 वर्षा के पैटर्न को सुरक्षित और स्थिर बनाने के लिये सरकार को जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना को पूरी ईमानदारी से लागू करना होगा, साथ ही अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी इसके लिये बेहतर प्रयास की आवश्यकता है। संबंधित विभाग द्वारा मौसम संबंधी अधिकतम आंकड़े एकत्र कर उनका विश्लेषण करना चाहिये ताकि मानसून के अनिश्चित व्यवहार के बारे में बेहतर समझ बने। पानी सर के ऊपर से गुजरे इससे पहले सरकार को सचेत होकर विकास के नाम पर वातावरण की उपेक्षा करने की बजाय इस आसन्न समस्या पर गंभीरता से विमर्श कर समाधान के व्यवहारिक उपाय तलाशने चाहिएं।          
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर