शहरीकरण के लिए गांवों को न उजाड़ा जाए

अब यह कहना लगभग बेमानी होगा कि देश की आत्मा गांवों में निवास करती है। जिस तरह से समूची दुनिया में शहरीकरण हो रहा है, शहरों की ओर पलायन हो रहा है, उससे अब हालात यह होते जा रहे हैं कि गांव तेज़ी से समाप्त लगे हैं। गांवों की तुलना में शहरी आबादी में तेज़ी से बढ़ोतरी हो रही है। मानव इतिहास में संभवत: यह पहला मौका होगा जब गांवों की तुलना में शहरों में निवास करने वालों की आबादी अधिक हो गई है। एक समय था जब देश के बारे में यह कहा जाता था कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है। आज दुनिया के देशों की कुल आबादी में से 56 फीसदी आबादी शहरों में रहने लगी है। 
शहरीकरण की कमोबेस यह स्थिति दुनिया के अधिकांश देशों में हो रही है। गांवों से शहरों की और पलायन से आज दुनिया का कोई देश अछूता नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शहरीकरण का पैमाना विकास को माना जाता है। आज वैश्विक आबादी 8.1 अरब हो गई है। इसमें से आधी से भी ज्यादा यानी कि लगभग 56 प्रतिशत आबादी शहरों में निवास करने लगी है। इसमें हमें स्वीकार करना ही होगा कि जब भी शहरों में कोई नई कालोनी विकसित होती है तो यह साफ हो जाता है कि किसी न किसी गांव की कुर्बानी उसमें छिपी होती है, कोई न कोई गांव उजड़ गया होगा। 
इसमें कोई दो राय नहीं कि शहरीकरण को विकास का पैमाना माना जाता है। शहरों में गांवों की तुलना में अधिक साधन, सुविधाएं, रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा दूसरे शब्दों में आधारभूत सुविधाएं अधिक होती है, परन्तु इसके साथ ही यह सुविधाएं उस मायने में सभी को नसीब भी नहीं होती। रोज़गार के लिए गांवों से शहरों में आने वाले बहुतायत में लोगों को कच्ची बस्तियों, चालों या एक से दो कमरे के मकानों में किराए पर रहने को बाध्य होना पड़ता है। शहरों में बुनियादी सुविधाएं तो बहुत होती हैं, परन्तु सामािजक और पर्यावरणीय क्षेत्र में खासा नकारात्मक प्रभाव देखा जा सकता है। देखा जाए तो लाख सुविधाओं के बावजूद बढ़ती जनसंख्या और अन्य कारणों से शहरों में रहना दूभर होता जा रहा है। कोरोना काल में शहरों से गांवों की और वापिसी हम देख चुके हैं और उस समय लगने लगा था कि कोरोना जैसी त्रासदी से जो हालात बने हैं, भविष्य में ऐसे हालात न बन सके, इसके लिए गांवों में आधारभूत सुविधाएं और गांव-कस्बों को बेहतर परिवहन सेवाओं से जोड़ने के ठोस प्रयास होंगे, परन्तु यह सब तो नहीं हुआ, लेकिन तेज़ी से हो रहा शहरीकरण देखने को मिलने लगा है। 
दरअसल शहरीकरण के समय अन्य पहलुओं की और ध्यान ही नहीं दिया जाता है। कालोनाइजर्स का एक ही उद्देश्य होता है, वह है अधिक से अधिक लाभ कमाना। जिस कारण उपलब्ध भूमि का अत्यधिक दोहन करने का प्रयास किया जाता है और परिणाम यह होता है कि उस क्षेत्र में उपलब्ध संसाधन लगभग नष्ट ही कर दिए जाते हैं। प्राकृतिक जल स्रोत समाप्त हो जाते हैं। पानी के संग्रहण के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। आबादी के घनत्व के कारण वातावरण प्रभावित हो रहा है। पर्यावरण संबंधी समास्याओं से दो-चार होना पड़ रहा है और मौसम में बदलाव देखा जा रहा है। कंक्रीट के जंगलों के कारण तापमान लगातार बढ़ रहा है। पेयजल की समस्या, प्रदूषित वायु, सड़कों पर आवागमन की समस्या, मॉल कल्चर के कारण छोटे दुकानदारों और फेरी वालों  के सामने रोज़गार की समस्या पैदा हो गई है। दरअसल शहरीकरण के कारण रिश्ते-नाते, खान-पान, रहन-सहन सब कुछ बदल गया है और उसके परिणाम सामने आने लगे हैं। 
यदि नियोजित तरीके से शहरीकरण होता है, शहरों का विस्तार होता है, आबादी के घनत्व को ध्यान में रखा जाता है, जहां नई कॉलोनी विकसित की जाती है वहां आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध कराई जाती है और प्राकृतिक स्रोतों को संरक्षित किया जाता है, तो समस्या का कुछ हद तक समाधान हो सकता है, पर ऐसा हो नहीं रहा है। प्रबुद्ध नागरिक इसको लेकर चिंतित रहते हैं और अनियोजित शहरी विकस को नियोजित विकास का रूप दिलाने के लिए न्यायालयों तक का दरबाजा खटखटाने लगे हैं। हालांकि आज ग्रामीण पर्यटन जैसे नए कंसेप्ट आने लगे हैं। लोग एकाध दिन गांवों में गुजारना चाहते हैं। ग्रामीण संस्कृति और रहन सहन से रुबरु होना चाहते हैं। इस दिशा में भी केवल व्यावसायिक दृष्टिकोण से आगे बढ़ने से परिणाम अपेक्षित प्राप्त होंगे, इस पर प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है। 
शहरीकरण के प्रतिकूल प्रभाव हमारे सामने आने लगे हैं। ऐसें में हमें गंभीर विचार करना होगा और इस तरह के प्रयास करने होंगे जिससे प्रकृति और विकास में समन्वय बना रह सके। विकास प्रकृति को विकृत करने का माध्यम न बन सके। नगर नियोजकों को इस ओर ध्यान देना ही होगा नहीं ंतो जिस प्रकार हम प्राकृतिक संसाधन खोते जा रहे हैं, उनके दुष्परिणाम भी हमारे सामने आने लगे हैं। समय रहते कोई कदम न उठाया गया तो भविष्य में हालात और अधिक गम्भीर हो जाएंगे।  

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