मुफ्त की रेवड़ियां और मासिक भत्ता रोज़गार का विकल्प नहीं

हाल ही में देश के प्रमुख अखबारों में यह खबर प्रकाशित हुई कि गुजरात के भरूच क्षेत्र झगडिया में स्थित एक केमिकल फर्म में पांच अलग-अलग पदों के लिए 10 पद भरने के लिए अंकलेश्वर के एक होटल में 2 जुलाई, 2024 को वॉक इन इंटरव्यू रखा गया। फर्म को अनुभवी प्रार्थियों की ज़रूरत थी, जिसे उसने अपने विज्ञापन में स्पष्ट कर दिया था कि शिफ्ट इनचार्ज के लिए योग्यता बीई केमिकल व अनुभव 6 से 10 साल, प्लांट ऑपरेटर के लिए योग्यता आईटीआई व अनुभव 3 से 8 साल, सुपरवाइजर के लिए योग्यता एमएससी, डिप्लोमा इन केमिकल व अनुभव 4 से 8 साल, मैकेनिकल फिल्टर के लिए योग्यता आईटीआई व अनुभव 3 से 8 साल और एग्ज़ीक्यूटिव पद के लिए योग्यता बीएससी या एमएससी व अनुभव 4 से 7 साल। इन मात्र 10 रिक्त स्थानों को भरने के लिए, जिनमें शैक्षिक योग्यता व अनुभव की स्पष्ट मांग रखी गई थी, लगभग 25,000 युवाओं की भीड़ एकत्र हो गई। ज़ाहिर है ये सभी विज्ञान के छात्र ही रहे होंगे। इतने अधिक प्रार्थियों के जमा होने से अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न हो गया, जिसे नियंत्रित करना भी कठिन था। हालात इतने बेकाबू हो गये कि होटल की रेलिंग भी टूट गई, कुछ उम्मीदवार जैसे तैसे कूद कर ख़ुद को सम्भाल पाये, लेकिन कुछ रेलिंग के साथ नीचे गिर गये। गनीमत रही कि रेलिंग ज़मीन से ज़्यादा ऊंचाई पर नहीं थी, वर्ना बहुत बड़ा हादसा हो जाता। 
बेरोज़गारी से संबंधित सरकारी या गैर-सरकारी डाटा पर फिलहाल के लिए बहस को अगर त्याग भी दें तो भी मात्र 10 पदों के लिए हज़ारों की भीड़ का उमड़ना इस बात का संकेत है कि अपने देश में बेरोज़गारी की स्थिति भयावह है। भरूच की इस घटना का वीडियो शेयर करते हुए सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने लिखा, ‘यह है झूठे विकास के गुजरात मॉडल का सच। भाजपा ने देशभर के युवाओं को अपनी नीतियों की वजह से बेरोज़गारी के दलदल में धकेल दिया है। विपक्ष का यह भी आरोप है कि यह नज़ारा खोखले गुजरात मॉडल को दिखाता है, जिसे अब पूरे भारत में देखा जा सकता है। विपक्ष के इन आरोपों को यह कह कर अनदेखा किया जा सकता है कि उसे तो सरकार की हर हाल में आलोचना करनी ही है, लेकिन इस बात का क्या किया जाये कि भरूच की घटना (जिसके लिए वीडियो वायरल होने के बाद 12 जुलाई, 2024 को संबंधित कम्पनी को नोटिस भी जारी किया गया है कि उसने ज़िला रोज़गार कार्यालय को सूचित किये बिना वैकेंसी कैसे निकली) के बाद 16 जुलाई, 2024 को बेरोज़गारी का ऐसा ही नज़ारा मुम्बई में भी देखने को मिला। 
जैसे ही यह मालूम हुआ कि मुम्बई हवाई अड्डे में लोडर पद के कुछ स्थान रिक्त हैं तो हज़ारों की संख्या में आवेदकों की भीड़ अपने आवेदन व दस्तावेज़ लेकर सहार कार्गो काम्प्लेक्स के पास गेट नंबर पांच पर जमा हो गई। भीड़ इतनी ज़्यादा थी कि हवाई अड्डे के पास भगदड़ जैसे हालात पैदा हो गये। बड़ी मुश्किल से स्थिति पर काबू पाया गया। स्थिति को नियंत्रण करने के लिए सभी आवेदकों से बायोडाटा, आवेदन-पत्र व अन्य दस्तावेज़ जमा करने के लिए कहा गया। हवाई अड्डे के अधिकारियों का कहना है कि अब सिर्फ 200 आवेदकों को साक्षात्कार के लिए बुलाया जायेगा। इस किस्म की अन्य अनेक घटनाएं हैं जो चीख-चीखकर कह रही हैं कि बेरोज़गारी बहुत बड़ी समस्या है। एक जुलाई 2024 को सीएमआईई ने अपने कांज्यूमर पिरामिडस हाउसहोल्ड सर्वे के नतीजे जारी किये, जिनसे मालूम होता है कि भारत की बेरोज़गारी दर में ज़बरदस्त इजाफा हुआ है, जो मई 2024 में 7 प्रतिशत थी, वह जून 2024 में बढ़कर 9.2 प्रतिशत हो गयी। बेरोज़गारी दर दोनों शहरी व ग्रामीण क्षेत्रों में बढ़ी है। ग्रामीण बेरोज़गारी दर जो मई 2024 में 6.3 प्रतिशत थी, जून 2024 में बढ़कर 9.3 प्रतिशत हो गई, जबकि इसी अवधि में शहरी बेरोज़गारी दर 8.6 प्रतिशत से बढ़कर 8.9 प्रतिशत हुई है। 
निश्चित रूप से यह चिंताजनक स्थिति है, लेकिन इससे निपटने के लिए सरकारों की प्रतिक्रिया या योजनाएं क्या हैं? अधिकतर मामलों में सरकारें वैल्फेयर स्कीम का नाम देकर मुफ्त की की रेवड़ियां बांटने लगती हैं, लेकिन यह नियमित रोज़गार का विकल्प नहीं है। सरकारों व राजनीतिक दलों को यह बात समझ में क्यों नहीं आती है। इस संदर्भ में महाराष्ट्र की मिसाल ही लेते हैं। महाराष्ट्र में एकनाथ शिंदे की सरकार ने 12वीं पास बेरोज़गार युवाओं को हर महीने 6000 रुपये, 12वीं के बाद डिप्लोमाधारियों को 8000 रुपये और बैचलर डिग्री वालों को प्रतिमाह 10,000 रुपये का बेरोज़गारी भत्ता देने का फैसला किया है। इसी क्रम में 21 से 65 वर्ष की गरीब महिलाओं (जिनकी वार्षिक पारिवारिक आय 2.5 लाख रुपये से कम है) को 1,500 रुपये मासिक दिये जाने की बात है। यह भत्ता पाने के लिए महिला का विवाहित, तलाकशुदा, विधवा, छोड़ी हुई या बेसहारा होना आवश्यक है और साथ ही प्रत्येक गरीब घर की एक सिंगल महिला के लिए भी यह योजना उपलब्ध रहेगी। इस मदद से एक बार फिर साबित होता है कि महिलाओं के बारे में किस किस्म का नज़रिया रखा जाता है। पुरुषों को 10,000 रुपये और महिलाओं को मात्र 1,500 रुपये! यह भेदभाव क्यों और किसलिए? 
वैसे भी निरन्तर बढ़ती महंगाई में 1,500 रुपये में क्या कोई महीना भर का खर्च चला सकता है? ज़ाहिर है, इससे किसी का भला नहीं होने वाला। राज्य सरकार चुनावी पायदा उठाने के उद्देश्य से मतदाताओं को रेवड़ियां बांट रही है। महिलाओं के लिए योजना में 46 हज़ार करोड़ रुपये का वार्षिक खर्च आयेगा और पुरुषों के लिए यह खर्च 10 हज़ार करोड़ रुपये प्रति वर्ष होगा। घोषणा के मात्र 2 सप्ताह के भीतर महिला योजना में 44 लाख आवेदन आएं। सरकार 31 अगस्त तक एक करोड़ आवेदनों की उम्मीद कर रही है, लेकिन इन मुफ्त की रेवड़ियों की असल कहानी तो इनकी ज़रूरत में है। एकनाथ शिंदे का कहना है कि पुरुषों के लिए योजना उनके बेरोज़गारी समस्याओं का ‘समाधान’ है। राज्य सरकार का मानना है कि इस तरह उसने रोज़गार संकट को दूर किया है। बेरोज़गारी लोकसभा चुनाव के दौरान मुद्दा था और आगामी विधानसभा चुनाव में भी रहेगा। राज्य सरकार को यह समझना चाहिए कि रेवड़ियां बांटने से न तो रोज़गार के संकट पर विराम लगेगा और न ही उस पर पर्दा पड़ेगा; क्योंकि भत्ता कभी भी वेतन का विकल्प नहीं हो सकता। 
नेताओं को मालूम होना चाहिए कि 2018 में रेलवे में 26,502 पदों के लिए एक लेवल (लोको-पायलट्स व तकनीशियन) के लिए 47.6 लाख आवेदन आये थे और दूसरे लेवल (असिस्टेंट्स हेल्पर्स) की 62,907 वैकेंसी के लिए 1.9 करोड़ आवेदन थे। भारत की आधे से अधिक जनसंख्या सरकार के मुफ्त अनाज पर निर्भर करती है। बेरोज़गारी समस्या का समाधान तभी हो सकता है जब सरकारें स्वीकार कर लें कि बेरोज़गारी समस्या है।
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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