बच्चों का सबसे बड़ा दुश्मन बन रहा मोबाइल 

आज घर घर में बच्चे धड़ल्ले से मोबाइल पर स्क्रीनिंग कर रहे हैं। उन्हें इस बात की कोई चिंता नहीं है की यह उनके स्वास्थ्य के लिए कितना खतरनाक है। मोबाइल आपका दोस्त है या दुश्मन, बिना विलम्ब किए इस पर गहनता से मंथन की ज़रुरत है। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। एक स्टडी रिपोर्ट में एक बार फिर मोबाइल के खतरे से सावचेत किया गया है। रिपोर्ट में बताया गया है माता-पिता बिना सोचे-समझे सिर्फ दो-अढ़ाई साल के बच्चों के हाथ में मोबाइल थमा देते हैं। इसके बाद बिना मोबाइल इस्तेमाल किए बच्चा खाना तक नहीं खाता है। हालांकि इंफॉर्मेशन, टेक्नॉलोजी और एआई के दौर में मोबाइल का इस्तेमाल ज़रूरी है, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों को मोबाइल देने की क्या ज़रूरत है? अगर आप भी मोबाइल एडिक्शन को गम्भीरता से नहीं ले रहे हैं, तो आपको बता दें कि सेलफोन आपके बच्चों का सबसे बड़ा दुश्मन बन रहा है। कच्ची उम्र में बच्चों को डिजिटल डिमेंशिया जैसी घातक बीमारी हो सकती है। ब्रिटेन में हुई स्टडी के मुताबिक दिन में 4 घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम से वैस्कुलर डिमेंशिया और अल्जाइमर का जोखिम बढ़ जाता है। 
फोन पर घंटो स्क्रॉल करने पर ढेरों फोटोज़, एप्स, वीडियोज़ सामने आते हैं जिससे आपके दिमाग के लिए सब कुछ याद रखना मुश्किल हो जाता है। परिणाम स्वरूप आपकी याद्दाश्त, एकागरता और सीखने की क्षमता पर बुरा असर पड़ता है।
एम्स के डॉक्टरों ने बच्चों में बढ़ते मायोपिया (दूर की चीजें साफ  न दिखना) की एक वजह बढ़ता स्क्रीन टाइम बताया है। एम्स की गाइडलाइंस के अनुसार एक दिन में अधिक से अधिक दो घंटे से ज्यादा स्क्रीन टाइम नहीं होना चाहिए। एम्स के डॉक्टरों ने चेताते हुए कहा कि यही स्थिति रही तो 2050 तक 40 से 45 प्रतिशत बच्चे मायोपिया के शिकार हो जाएंगे। इसके लिए एम्स की गाइडलाइंस का अनुसरण करना चाहिए। डॉक्टरों ने कहा कि मायोपिया में आंख की पुतली का साइज बढ़ जाता है और इसकी वजह से प्रतिबिंब रेटिना पर नहीं बनता है। 
स्क्रीन टाइम ज्यादा होने का सबसे पहला असर बच्चों की आंखों की रोशनी पर पड़ रहा है। स्क्रीन को नज़दीक और एकटक देखने से आंखें ड्राई होने लगती हैं यही हालात रहने पर आंखों की रोशनी कम होने लगती है। आजकल मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल बच्चों को इंटरनेट एडिक्शन की तरफ ले जा रहा है। इस तरह के एडिक्शन से मानसिक बीमारियां पैदा होती हैं और ऐसे में बच्चे कोई न कोई गलत कदम उठा लेते हैं। आजकल के बच्चे इंटरनेट लवर हो गए हैं। इनका बचपन रचनात्मक कार्यों की जगह डेटा के जंगल में गुम हो रहा है। पिछले कई सालों में सूचना तकनीक ने जिस तरह से तरक्की की है, इसने मानव जीवन पर न सिर्फ गहरा प्रभाव डाला है, बल्कि एक तरह से इसने जीवनशैली को ही बदल कर रख दिया है। बच्चे और युवा एक पल भी स्मार्टफोन से खुद को अलग रखना गंवारा नहीं समझते। इनमें हर समय एक तरह का नशा सा सवार रहता है। वैज्ञानिक भाषा में इसे इंटरनेट एडिक्शन डिस्ऑर्डर कहा गया है।
एक अभिभावक का कहना है उसका बेटा स्कूल से आते ही कंप्यूटर पर बैठ जाता है, कई आवाज़ लगाने पर भी हिलता तक नहीं। बाहर घूमने की जगह कंप्यूटर पर ही व्यस्त रहता है। अब उसके व्यवहार पर चिंता होने लगी है। वह किसी से बात करना तक पसंद नहीं करता, ज्यादा कुछ बोलों तो चिढ़ जाता है या चिल्लाकर जवाब देता है। एक दूसरा अभिभावक अपनी बेटी के व्यवहार से चिंतित है। वह कहती हैं कि अभी आठवीं कक्षा में ही है, लेकिन उसके अंदर इस उम्र के बच्चों सी चपलता और चंचलता नहीं है। काफी कम बोलती है। इंटरनेट सर्फिंग में उसका खाली समय बीतता है। जब से इंटरनेट हमारे जीवन में आया है तब से बच्चे से बुज़ुर्ग तक आभासी दुनियां में खो गए है। हम यहां बचपन की बात करना चाहते है। देखा जाता है पांच साल का बच्चा भी आंख खोलते ही मोबाइल पर लपकता है। पहले बड़े ऐसा करते थे। अब बच्चे भी इंटरनेट के शौकीन होते जा रहे हैं। बाज़ार ने उनके लिए भी इंटरनेट पर इतना कुछ दे दिया है कि वह पढ़ने के अलावा बहुत कुछ इंटरनेट पर करते रहे हैं। माता-पिता को बच्चों की ऐसी गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए और समय रहते उनकी ऐसी आदत को सकारात्मक तरीके से दूर करना चाहिए।  

-मो. 89495-19406