आर्थिक असमानता से उपजा है मौजूदा आरक्षण असंतोष

भारत में आर्थिक असमानता को लेकर न केवल कई गैर सरकारी राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियां की तरफ से प्रतिकूल रिपोर्टें आ रही हैं बल्कि सरकारी एजेंसियां और नीति आयोग भी इस तथ्य को भलीभांति स्वीकार कर रही हैं। लिहाजा भारत में अपेक्षित आर्थिक प्रगति के बावजूद असमानता बड़े अनपेक्षित ढंग से बढ़ती गई है। आरक्षण को लेकर मौजूदा असंतोष इसी बढ़ती असमानता से उपजा है। एक आंकड़ा जो सबका ध्यान बरबस खींचता है, वह यह है कि हाल के सालों में देश के एक प्रतिशत अमीरों की संपत्ति में 65 प्रतिशत बढ़ोत्तरी हुई, जबकि दूसरी तरफ 65 प्रतिशत  आबादी की दौलत में महज एक प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई। इससे साफ पता चलता है कि अमीर लोगों की अमीरी रॉकेट की रफ्तार बढ़ी है, तो बहुसंखयक निर्धनों की दौलत बैलगाड़ी की रफ्तार से ही बढ़ी है। 
परंतु विडंबना ये है कि असमानता को लेकर हो रहे विमर्श संपूर्ण समाधानपरक न होकर एकांगी हैं और अलग अलग लोगों द्वारा अपने-अपने नज़रिये से परोसे जा रहे हैं। वैसे भारत में सामाजिक आर्थिक संरचना इस तरह की रही है, जिसमें उच्चवर्ग की संपत्ति व आय में बढ़ोत्तरी की रफ्तार व निचले पायदान पर स्थित निम्न व मध्यवर्ग की आय संपत्ति की रफ्तार में हमेशा ही जमीन आसमान का फर्क रहा है। अलबत्ता नई आर्थिक नीति के बाद यह फर्क और बढ़ा है। यह अंतर हमें ऊंची जाति व निचली जातियों के बीच, कृषि व उद्योग के बीच, शहरी व ग्रामीण आबादी के बीच, संगठित वर्ग व असंगठित वर्ग के बीच आसानी से दिखाई पड़ता है। इसके बावजूद सच्चाई यह भी है कि कि पिछली सदी के 90 के दशक के पहले जहां अमीर वर्ग की आय बहुत कम पड़ रही थी, वहीं निम्न वर्ग की आय तो बिल्कुल नहीं बढ़ रही थी। 
इस दौरान पिछले तीन दशकों में देश में अर्थव्यवस्था को जो नया परिवेश हासिल हुआ है, उसमें उच्च व धनाड्य वर्ग की आय व संपत्ति को पर लग गए हैं जबकि निम्न वर्ग तक विकास रिस रिसकर पहुंचा है। मौजूदा असमानता को लेकर कई अर्थशास्त्रियों द्वारा एक यह व्याख्या सामने आ रही है कि चीन जैसे साम्यवादी देश में पिछले चार दशकों के दौरान हुए तीव्र आर्थिक विकास में गैरबराबरी तेज़ी से बढ़ी है। इसी तरह ब्राजील में भी गैरबराबरी की रफ्तार इसी कालक्रम में भारत से ज्यादा बढ़ी है। ऐसे में भारत में तीव्र आर्थिक प्रगति के दौर में असमानता का बढ़ना अस्वाभाविक नहीं है। अर्थशास्त्रियों की दूसरी व्याख्या यह परोसी जा रही है कि भारत में करों की हिस्सेदारी पहले की तुलना में काफी प्रगतिशील हुई है। इस क्रम में यह कहा जा रहा है कि 90 के दशक के पूर्व देश में सकल घरेलू उत्पाद में कर का योगदान कम था, इस वजह से निर्धनता निवारण व जनकल्याण कार्यक्रमों के प्रति सरकारी आबंटन बहुत अपर्याप्त था। लेकिन नियोजित अर्थव्यवस्था को स्थानापन्न कर चुकी बाज़ार अर्थव्यवस्था का यह फंडा ज्यादा परिणाममूलक माना गया है, जिसकी वजह से सरकारें अपने विकास दर को तेजी से बढ़ाने का काम करती रही है। 
दूसरी बात यह है कि वर्ष 2000 तक अर्थशास्त्री ये भी मानते थे कि करों में अप्रत्यक्ष करों की प्रत्यक्ष कर की तुलना में ज्यादा हिस्सेदारी होना असमानता मूलक अर्थव्यवस्था को प्रोत्साहित करता है। लेकिन अभी दोनों मानकों पर भारत की मौजूदा कर अर्थव्यवस्था ज्यादा प्रगतिशील हुई है। भारत के सकल घरलू उत्पाद में करों की हिस्सेदारी 1990 के दशक तक 12 प्रतिशत के आसपास थी, जोकि अब बढ़कर विकसित देशों के समान यानी 17 से 18 प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है। दूसरी बात यह हुई है कि सकल कर आय में प्रत्यक्ष करों की हिस्सेदारी इस दौरान जो 45-48 प्रतिशत हुआ करती थी, वह अब नये बजट में दिये आंकड़े के मुताबिक 58 प्रतिशत पर पहुंच गई है। जबकि प्रत्यक्ष करों की बात करें तो इसमें समतामूलक आयकर का योगदान सर्वाधिक 36 प्रतिशत हो गया है। ये बात अलग है कि यह स्थिति इस बात से उत्पन्न हुई कि कर दर को कम करने और करदाताओं का आधार ज्यादा विस्तृत करने की नीति अपनायी गई। इस वजह से देश में आयकर रिटर्न भरने वालों की संख्या पिछले एक दशक में दोगुनी हो गई है। एक नये आंकड़े के मुताबिक भारत में सरकारी नौकरी का अनुपात अमरीका के 77 प्रति हजार और चीन के 57 प्रति हजार के मुकाबले सिर्फ 16 है, बाकी स्वरोज़गार या निजी क्षेत्र के जरिये रोज़गार प्राप्त हैं। इस बाबत सरकार ने आगामी वर्षों में कौशल विकास, कंपनी इंटर्नशिप व भविष्य निधि के सरकारी योगदान के जरिये देश के निजी क्षेत्र में करीब चार करोड़ रोज़गार प्रदान करने की एक पंचवर्षीय योजना बनायी है। ऐसे में पता चलता है कि आरक्षण के इस शक्तिशाली राजनीतिक ब्रह्मास्त्र को सरकारी के साथ उस विशाल निजी क्षेत्र में भी लाने की फौरी ज़रूरत है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर