रोज़गार देने में असमर्थ है देश की अर्थ-व्यवस्था

क्या ऐसा हो सकता है कि किसी देश में बेरोज़गारी की समस्या हो, और उसकी सरकारें नौकरियां देने के लिए तैयार न हों? हाँ, ऐसा हो सकता है। दरअसल, ऐसा भारत में ही हो रहा है। पूरे देश में इस समय एक करोड़ से कुछ ज्यादा सरकारी पद खाली पड़े हुए हैं। लेकिन जनता से किये गये वायदे के बावजूद सरकारें इन पदों को भरने के लिए तैयार नहीं हैं। क्यों? वे पूछती हैं कि तनख्वाहों के लिए पैसे कहां से आएंगे? अगर इस देश की केंद्र सरकार 2019 में निजी क्षेत्र को करीब डेढ़ लाख करोड़ का टैक्स होलीडे दे सकती है तो जनता की सेवा करने वाले सरकारी नौकरों को वेतन क्यों नहीं दे सकती? भारत में कुल रोज़गारशुदा लोगों में सरकारी क्षेत्र में रोज़गार पाने वालों का प्रतिशत केवल दो से ढाई प्रतिशत ही है। रोज़गार के लिए सारे देश में हल्लाबोल आंदोलन चलाने वाले अनुपम के अनुसार अगर दूसरे देशों के अनुभव पर ़गौर किया जाए तो दुनिया में तरह-तरह की अर्थ-व्यवस्थाएं अपने 6 से 12 प्रतिशत रोज़गार सरकारी क्षेत्र से ही देती हैं। फिर भारत की सरकार इतने कम रोज़गार क्यों देती है? हमें पता है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा ने 2017 में चुनाव जीतने के लिए वायदा किया था कि वह सरकार में आते ही सभी खाली पदों को भरने की प्रक्रिया शुरू कर देगी। लेकिन आज सात साल बाद भी उत्तर प्रदेश इस वायदे के तहत एक भी नौकरी पाने का इंतज़ार कर रहा है। 
हरियाणा में चुनाव होने वाले हैं और राज्य में बेरोज़गारी के बेतहाशा बढ़े हुए सिर चकरा देने वाले आंकड़े (37 प्रतिशत से ज्यादा) वहां की बहसों के केंद्र में आ चुके हैं। बेरोज़गारी के मुद्दे ने ताज़ा लोकसभा चुनावों को भी काफी प्रभावित किया था। ऐसा लग रहा है कि निकट भविष्य में यह प्रश्न राजनीति के दायरे में सर्वाधिक चर्चित रहने वाला है। ज़ाहिर है कि सरकारें कभी यह मानने के लिए तैयार नहीं होंगी कि उनके शासनकाल में बेरोज़गारी बढ़ी है, और सरकारों के आलोचक उन्हें चौंकाने वाले आंकड़े पेश करते रहेंगे। जो भी हो, अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष की उप प्रबंध निदेशक गीता गोपीनाथ ने करीब हफ्ते भर पहले ही दिल्ली में भाषण देते हुए कहा है कि 2030 तक यानी केवल अगले छह साल के बेहद कम समय में भारत को कम से कम छह करोड़ अतिरिक्त रोज़गार तो पैदा करने ही होंगे। कुछ अर्थशास्त्री तो इस अवधि में दस करोड़ रोज़गारों की ज़रूरत पर बल दे रहे हैं। ज़ाहिर है कि अगर भारतीय अर्थतंत्र ऐसा नहीं कर पाया तो पूरी व्यवस्था, समग्र लोकतंत्र और उसे चलाने वाली सरकारों को एक बड़े संकट का सामना करना पड़ सकता है।   
हाल ही में देश के तीन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्रियों (विजय महाजन, अरुण कुमार व संतोष महरोत्रा) ने बेरोज़गारी की असलियत एक सरलता से समझ में आ सकने वाले परिप्रेक्ष्य के तहत पेश की है। विजय महाजन ने बताया है कि देश की 140 करोड़ जमसंख्या में से केवल 52 करोड़ लोग ऐसे हैं जो अर्थ-व्यवस्था में विभिन्न तरह के श्रमिकों के रूप में भागीदारी कर रहे हैं। मोटे तौर पर इनमें 47 करोड़ लोगों के पास कोई न कोई काम है, लेकिन पांच करोड़ लोग काम की तलाश में विफल हैं। रोज़गार की तलबगारों की इस संख्या में हर साल तकरीबन एक करोड़ लोगों की बढ़ोतरी हो जाती है। ये तथ्य बताते हैं कि भारत का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट (एलएफपीआर) दूसरी अर्थव्यवस्थाओं के मुकाबले बहुत कम है। खास कर अगर स्त्रियों के संदर्भ में देखा जाए तो अर्थ-व्यवस्था में रोज़गारशुदा नागरिकों के तौर पर उनकी भागीदारी और भी घटी हुई दिखती है। 
दूसरी सबसे बड़ी समस्या यह है कि जिन्हें रोज़गार मिला हुआ भी है, राष्ट्रीय औसत के मुताबिक उनकी आमदनी किसी उज्ज्वल भविष्य की ओर संकेत नहीं करती। इनमें केवल चार करोड़ रोज़गारशुदा ऐसे हैं जिन्हें नियमित वेतनभोगी की श्रेणी में रखा जा सकता है। बाकी सभी वर्किंग पुअर या गरीब श्रमजीवी की श्रेणी में आते हैं। इनकी हालत का अंदाज़ा इससे लगाया जा सकता है कि मनरेगा के तहत रोज़गार पाने वालों की औसत आमदनी केवल 3,915 रुपए है। कैज़ुअल या अस्थायी श्रमिकों की कमाई का औसत 7,254 रुपए है। स्वरोज़गार से कमाई करने वाले केवल 13,339 रुपए ही औसतन कमा पाते हैं। जो नियमित वेतनभोगी की आकर्षक प्रतीत होने वाली श्रेणी में आते हैं वे ज्यादा से ज्यादा औसतन 20,049 रुपए कमाते हैं। इन वेतनभोगियों में दो से ढाई प्रतिशत ही सरकारी क्षेत्र में हैं।
 अर्थशास्त्री अरुण कुमार ने बेरोज़गारी की किस्मों पर रोशनी डाली है। उनके मुताबिक देश में चार तरह के बेरोज़गार हैं। एक वे जिनके पास तलाशने के बावजूद रोज़गार नहीं है। यानी उन्हें बिना किसी शक के बेरोज़गार माना जा सकता है। दूसरे वे जिन्हें हफ्ते में 24 घंटे से भी कम का रोज़गार मिल पाता है। अरुण कुमार के अनुसार ऐसे लोगों की संख्या करीब 8 प्रतिशत है, और हफ्ते में 36 घंटे से भी कम का रोज़गार पाने वाले करीब 16 प्रतिशत हैं। तीसरे वे जिन्हें रोज़गारशुदा तो मान लिया जाता है, पर वास्तव में रोज़गार उनके पास होता नहीं है। इनमें वे मज़दूर और किसान आते हैं जो खेत पर या दुकान पर काम करने जाते हैं पर उन्हें बेकार बैठना पड़ता है। चौथे वे हैं जिन्होंने लगातार नाकामी से निराश हो कर रोज़गार तलाश करना बंद कर दिया है। यानी, जो रोज़गार के बाज़ार से बाहर चले गए हैं। 
अर्थशास्त्री संतोष महरोत्रा ने बजट में किये जाने वाले इस दावे का खंडन किया है कि सरकार द्वारा किये जाने वाले सार्वजनिक निवेश से रोज़गार बढ़ सकता है। वे तो यह तक कहते हैं कि दरअसल सरकारी निवेश में विशुद्ध बढ़ोतरी ही नहीं हो रही है। पहले राज्य सरकारें ऐसा निवेश करती थीं, और पब्लिक सेक्टर की कम्पनियों की भी निवेश में भागीदारी होती थी। अब राज्यों को मिलने वाले 17 टैक्स जीएसटी में समा गये हैं। इससे राज्य सरकारों की आमदनी घट गयी है। इसी तरह पब्लिक सेक्टर के डिविडेंट भी केंद्र सरकार के पास चले गए हैं। जो निवेश यहां से होता था, वह केंद्र सरकार के खाते में दिखा कर श्रेय ले लिया जाता है। महरोत्रा ने स्वरोज़गार के लिए चलायी गयी मुद्रा स्कीम के बारे में कहा है कि उसके 65 प्रतिशत कज़र् 27,000 रुपए वाले हैं। इतने छोटे कज़र् से व्यक्ति केवल एक ठेला या रेहड़ी ही खरीद कर उसे एक-दो बार सब्ज़ियों या फलों से भरा जा सकता है।
 विजय महाजन के अनुसार हमारी इकॉनॉमी केवल 30-40 लाख रोज़गार ही हर साल पैदा कर सकती है। न तो पर्याप्त रोज़गार पैदा हो रहे हैं, और जो रोज़गार हैं भी उनकी गुणवत्ता बहुत कम है। कुल मिला कर छह साल के छोटे से समय में 6 से 10 करोड़ रोज़गार पैदा करने की चुनौती दुनिया की किसी भी अर्थ-व्यवस्था के लिए बहुत बड़ी है। ऊपर जिन तथ्यों की चर्चा की गई है, उनकी रोशनी में भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए तो यह लक्ष्य वेधना और भी मुश्किल है। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।