हरियाणा में भाजपा की हैट्रिक के मायने

हरियाणा में तमाम ज़मीनी रुझानों और एग्जिट पोल को गलत साबित करते हुए भाजपा ने चमत्कार किया और पिछले 52 साल के दौरान अप्रत्याशित हैट्रिक का रिकॉर्ड लगाया। ढाई बजे के रुझानों से तो ऐसा ही प्रतीत हो रहा था। लेकिन इसी समय के रुझानों के अनुसार जम्मू-कश्मीर में इंडिया-गठबंधन (नेशनल कांफ्रैंस, कांग्रेस व माकपा) सरकार बनाने की स्थिति में दिखायी दे रहा है। हालांकि हरियाणा में तमाम मुद्दे सत्तारूढ़ भाजपा के विरुद्ध थे- खेती किसानी, नशाखोरी, अग्निवीर, बेरोज़गारी, सत्ता विरोधी लहर आदि। लेकिन उसने कमाल का प्रदर्शन किया। इस उलटफेर का कारण क्या रहा, यह शोध का विषय है। सवाल यह है कि क्या खामोश मतदाताओं ने भाजपा को फिर से पसंद किया या कांग्रेस अपनी अंदरूनी कलह के चलते जीता हुआ चुनाव हारा? प्रश्न यह भी है कि छोटी पार्टियों, जो स्वयं तो कुछ खास न कर सकीं, लेकिन क्या हार जीत का अंतर बनीं? इन सभी सवालों का जवाब तो विस्तृत विश्लेषण से ही मिल सकेगा, लेकिन कांग्रेस ने इस संदर्भ में चुनाव आयोग पर गंभीर आरोप लगाये हैं।
बहरहाल, दोनों हरियाणा व जम्मू कश्मीर के चुनावी नतीजों का राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा पड़ेगा। लोकसभा चुनाव के बाद भाजपा व संघ परिवार के एक खेमे में यह चर्चा होने लगी थी कि मोदी-शाह की टीम अब भाजपा को चुनाव जिताने की पहली जैसी स्थिति में नहीं है। उन्हें बदलने की सुगबुगाहट भी होने लगी थी, विशेषकर इसलिए भी कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की आयु 75 वर्ष होने जा रही है और भाजपा ने स्वयं अपने नेताओं को 75 बरस का होने पर रिटायर करने का नियम बनाया था, जिसके तहत लालकृष्ण आडवानी, मुरली मनोहर जोशी आदि सरीखे नेताओं को रिटायर किया गया था। अब जो विधानसभा चुनावों के रुझान सामने आये हैं, उनसे मोदी-शाह की स्थिति अपनी पार्टी में अधिक मज़बूत होगी और यह भी संभव है कि भाजपा को उनकी पसंद का अध्यक्ष मिल जाये और वह अपनी पार्टी के संसदीय दल की बैठक भी आयोजित कर लें, जोकि लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद से अभी तक नहीं हुई है। गौरतलब है कि एनडीए की बैठक में नरेंद्र मोदी का चयन प्रधानमंत्री पद के लिए हुआ था। हरियाणा चुनाव ने महाराष्ट्र व झारखंड के आगामी विधानसभा चुनावों को भी दिलचस्प बना दिया है।   
जम्मू-कश्मीर में दस साल बाद विधानसभा चुनाव हुए, वह भी उसका राज्य का दर्जा समाप्त करने, लद्दाख को उससे अलग करने, धारा 370 समाप्त करने और सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद। इस केंद्र शासित प्रदेश में नया परिसीमन कराया गया था और 90 सीटों पर तीन चरणों में सफलतापूर्वक मतदान हुआ और बिना किसी अप्रिय घटना के बिना। यह कई अर्थों में एकदम नया चुनाव था कि जम्मू में सीटों को बढ़ाकर 43 किया गया और कश्मीर में एक सीट बढ़ाकर 47 किया गया और अनुसूचित जनजाति के लिए 9 सीट आरक्षित की गई। जम्मू-कश्मीर में दूरगामी परिवर्तन देखने को मिले कि जमात-ए-इस्लामी जो दशकों से चुनाव का बायकाट कर रही थी, उस पर प्रतिबंध भी लगा था, वह चुनावी मैदान में वापस लौटी। उसके प्रत्याशियों ने कश्मीर की 33 सीटों और जम्मू की एक सीट पर चुनाव लड़ा। यूएपीए के आरोपी इंजीनियर राशिद, जो बारामुला से लोकसभा सांसद चुने गये थे, की पार्टी भी चुनाव मैदान में थे। इनकी सामूहिक मौजूदगी ने सभी स्थापित राजनीतिक दलों- एनसी, पीडीपी, भाजपा, कांग्रेस को नया चुनावी मैदान पेश किया था। यह वास्तव में बहुआयामी चुनाव रहा। सबसे खास बात रही कि किसी भी संगठन ने चुनाव बायकाट की अपील नहीं की थी। 
सबसे कड़ी टक्कर कुलगाम में रही, जहां चार बार के लगातार विधायक माकपा के एम युसूफ तरिगामी को जमात समर्थित सयार अहमद रेशी ने हर गांव में पुस्तकालय का वायदा करके कड़ी टक्कर दी। पीडीपी की काफी वोट जमात की तरफ शिफ्ट हुईं। लेकिन नतीजों से इतर, जम्मू-कश्मीर में चुनाव भारत की चुनावी निष्ठा की स्वीकृति के रहे कि बदली हुई स्थितियों में अतिवादी गुटों ने भी बुलेट की जगह बैलट को प्राथमिकता देते हुए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अपनी मौजूदगी दर्ज की। राशिद की पार्टी व जमात के नुमाईंदों ने जो वोट शेयर हासिल किया है, वह एक बार फिर साबित करता है कि उन क्षेत्रों में भी संवैधानिक लोकतंत्र की शक्ति व आकर्षण है, जहां दशकों से टकराव की स्थिति देखने को मिल रही है। 
यह कोई विशिष्ट बात या अपवाद नहीं है। उत्तरी आयरलैंड में सिन्न फेन का सशस्त्र व चुनावी संघर्ष एक दशक तक एक साथ चलता रहा। नेपाल में यूसीपीएन (यूनिफाइड कम्युनिस्ट पार्टी ऑ़फ नेपाल) चुनावी मैदान में आयी और नेपाल की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। मिज़ोरम के पूर्व मुख्यमंत्री जोरमथंगा पूर्व गौरिल्ला हैं। निकारागुआ के सैंडइनइस्टास बुलेट से बैलट पर आये। सशस्त्र गुटों ने अल साल्वाडोर, मोजांबिक, यूगांडा आदि में यही किया। टकराव के बाद चुनाव से स्थिरता आ सकती है और नये राज्य भी बन सकते हैं जैसा कि नमिबिया में। लेकिन हर जगह यह सफलता नहीं होती है- हमेशा हमास भी कहीं होता है, जो उन्हीं लोगों को धोखा दे देता है, जो उसे चुनते हैं और हिंसा पर टिका रहता है। 2016 के अध्ययन ‘मिलिटेंट ग्रुप की चुनावों में हिस्सेदारी’ में पाया गया कि कम से कम 100 मिलिटेंट व पूर्व मिलिटेंट गुटों ने चुनाव लड़ने को वरीयता दी। बंदूक गिराने में कभी जल्दी नहीं होती। 
जम्मू-कश्मीर में चुनावी नतीजे तो आ गये हैं। लेकिन अब विवाद 5 नॉमिनेटेड विधायकों को लेकर है, जिनके बारे में केंद्र सरकार ने कहा है कि उन्हें नोमिनेट करने का अधिकार लेफ्टिनेंट गवर्नर को है। ज़ाहिर है अगर ऐसा होता है तो नॉमिनेटेड सदस्य भाजपा के पक्ष के होंगे। इसके विरुद्ध फारूक अब्दुल्लाह ने अदालत में जाने के लिए कहा है। उनके अनुसार नॉमिनेटेड सदस्यों की सिफारिश जम्मू-कश्मीर की चुनी हुई सरकार को करनी चाहिए। एक अन्य मुद्दा जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल करने का भी है, जिसके लिए सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की गई है कि दो माह के भीतर राज्य का दर्जा बहाल किया जाये। कुछ पार्टियों की तरफ से यह मांग भी उठी है कि जब तक राज्य का दर्जा न मिले तब तक जम्मू-कश्मीर में सरकार का गठन न किया जाये। बहरहाल, जम्मू-कश्मीर में जनता को लोकप्रिय सरकार मिलेगी, जिसे जनता चाहती थी और यह अटकलें भी बेकार हो गईं जो लगायी जा रही थीं कि 5 नॉमिनेटेड सदस्यों से खेल किया जायेगा। बहरहाल, जम्मू कश्मीर व हरियाणा के चुनावों से यह सबक अवश्य मिला है कि अपने देश में विविधता इतनी है कि एग्जिट पोल से सही निष्कर्ष निकाल पाना कठिन है या यह भी हो सकता है कि हमारे पास एग्जिट पोल कराने की सही व्यवस्था नहीं है। वैसे फिलहाल के लिए भाजपा  व इंडिया गठबंधन का स्कोर 1-1 हो गया है, अब यह देखना शेष है कि महाराष्ट्र व झारखंड में ऊंट किस करवट बैठता है। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर 

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