पूसा-44 बनाम पी.आर.-126—समाधान क्या है?
राजमोहन सिंह कालेका अपने बिशनपुर छन्ना (पटियाला) गांव की ज़मीन पर विगत 25 वर्षों से लगातार धान की पूसा-44 किस्म लगा रहे हैं। उनका 20 एकड़ का फार्म है और वह सारे रकबे पर ही यह किस्म लगाते हैं। वह कहते हैं कि मैं क्यों न पूसा-44 किस्म के धान की काश्त करूं, मुझे इस किस्म ने एकड़ में लगभग 40 क्ंिवटल प्रति वर्ष उत्पादन दिया है और इसी किस्म के कारण मुझे खरीफ 2017 के मौसम में धान का राज्य में सबसे अधिक उत्पादन प्राप्त करने के लिए 17 मार्च, 2018 को पंजाब सरकार के साथ भारत सरकार से ‘कृषि कर्मन पुरस्कार’ मिला था।
आई.सी.ए.आर.-इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट नई दिल्ली द्वारा विकसित किसानों के खेतों में काश्त करने के लिए वर्ष 1993 में रिलीज़ की गई पूसा-44 किस्म पौध सहित पकने में 145-150 दिन लेती है। चाहे कहा यह जाता है कि यह किस्म 155 दिन में पौध से लेकर फसल काटने तक पक कर तैयार होती है, परन्तु कालेका कहते हैं कि इस किस्म ने उनके खेत में 145-150 दिन से अधिक समय नहीं लिया। अब उन्होंने अपने पूरे 20 एकड़ के रकबे में 21 जून को पूसा-44 किस्म लगाई थी, जिसकी कटाई उन्होंने 15 अक्तूबर को की। कालेका ने पूसा-44 के अवशेष को आग कभी नहीं लगाई। वह सुपर सीडर से उसे ज़मीन में मिला कर एक बार में गेहूं की बिजाई कर लेते हैं। इससे भूमि की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है और गेहूं का उत्पादन भी अधिक प्राप्त होता है। इसी प्रकार गहलां गांव (संगरूर) के प्रगतिशील किसान गुरमेल सिंह ने 22 एकड़ रकबे पर पूसा-44 किस्म लगाई हुई है। 25 एकड़ में से उसने सिर्फ 3 एकड़ पर पी.आर.-131 किस्म की काश्त की हुई है। उन्होंने 15 से 21 जून तक पूसा-44 लगा ली थी, जिसकी वह इसी सप्ताह कटाई कर लेंगे। वह भी अवशेष को आग नहीं लगाते।
इस प्रकार प्रति एकड़ उत्पादन अधिक होने के कारण पूसा-44 किस्म पहले कई वर्ष पंजाब में 70 प्रतिशत से भी अधिक रकबे पर लगाई जाती रही है। पंजाब सरकार द्वारा इस किस्म की बिजाई पर गत वर्ष पाबंदी लगाने के बावजूद इस वर्ष काफी रकबे पर इसकी काश्त की गई है। आई.सी.ए.आर.-इंडियन एग्रीकल्चरल रिसर्च इंस्टीच्यूट ने भी इस किस्म का ब्रीडर सीड बनाना बंद कर दिया है, जिसके बाद किसानों को भविष्य में इस किस्म का प्रमाणित बीज नहीं मिल सकेगा। आई.ए.आर.आई. द्वारा पूसा-2090 तथा पूसा-1824 किस्में विकसित की गई हैं। जो पौध सहित पकने को क्रमश: 123-130 दिन तथा 120-125 दिन लेती हैं। पूसा-2090 किस्म का उत्पादन 89 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर तथा पूसा-1824 किस्म का 96 क्ंिवटल प्रति हैक्टेयर तक है। ये दोनों किस्में लगभग पूसा-44 का विकल्प हैं। ये कम समय में तैयार होकर अधिक उत्पादन देती हैं और इनकी पानी की ज़रूरत भी पूसा-44 से कम है। ये किस्में पंजाब में इस वर्ष टैस्ट की जा रही हैं।
कालेका कहते हैं कि जब तक पंजाब में पूसा के विकल्प के रूप में कोई ऐसी किस्म नहीं दी जाती, जो पकने को कम समय लेती हो और जिसे सिंचाई की ज़रूरत न हो, परन्तु उसका उत्पादन पूसा-44 के लगभग हो, किसान जो पूसा-44 किस्म लगा रहे हैं, वे यह किस्म अभी भी लगाएंगे। आई.सी.ए.आर.-आई.ए.आर.आई. के जैनेटिक्स डिवीज़न के प्रमुख गोपालन कृष्णन एस. कहते हैं कि जल्दी ही संस्थान द्वारा ऐसी किस्म जो पूसा-44 का विकल्प हो ‘पूसा-44 इम्प्रूवड’ किसानों को उपलब्ध की जाएगी। कम समय में पकने वाली पी.आर.-126 किस्म जो पानी की बचत के पक्ष से पंजाब कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सिफारिश की जा रही है, कालेका कहते हैं कि उसकी पानी की खपत पूसा-44 किस्म से कम नहीं। जो किसान पी.आर.-126 किस्म लगाते हैं, वे उसके बाद आलू की फसल लेंगे तथा फिर मक्की की। मक्की की फसल 20 से अधिक सिंचाई लेती है। इस प्रकार पी.आर.-126 की पानी की खपत पूसा-44 से बढ़ जाती है। फिर पी.आर.-126 किस्म में चावल की वसूली 62-63 प्रतिशत है, जबकि सरकार अपने धान में 67 प्रतिशत तक चावल मांगती है। 20 एकड़ पर धान की काश्त करने वाले कणकवाल भंगुआं (संगरूर) के किसान सुखजीत सिंह जो ए-1 ब्रांड के अधीन बीज भी बेचते हैं, कहते हैं कि पूसा-2090 किस्म पूसा-44 तथा पी.आर.-126 किस्म का लाभदायक विकल्प है, जो पी.आर.-126 की भांति पकने को कम समय लेती है और 35 क्ंिवटल प्रति एकड़ तक उत्पादन देती है। इसका नाड़ पूसा-44 किस्म जैसा मज़बूत है, जिस कारण यह अधिक यूरिया डालने पर गिरती नहीं।