पंडित नेहरू की लोकप्रियता

इस माह के प्रिंट मीडिया ने बाल दिवस के प्रसंग में पंडित जवाहर लाल नेहरू तथा उनके परिवार को बहुत याद किया है। ‘द ट्रिब्यून’ ने अपने समाचार पत्र की सौ वर्ष पहले वाली वह टिप्पणी चुनी जिसमें 25 अक्तूबर, 1924 को ब्रिटिश शासकों द्वारा अराजकतावादी कह कर गिरफ्तार किए 72 स्वतंत्रता सेनानियों का ज़िक्र था। उस समय के प्रसिद्ध वकील पंडित मोती लाल नेहरू ने 72 में से 60 को अपनी तेजस्वी दलीलों से पक्के स्वतंत्रता सेनानी सिद्ध किया था और उनकी पूरे हिन्दुस्तान में प्रशंसा हो गई थी। 
सेवामुक्त एयर वाइस मार्शल मनमोहन बहादुर की टिप्पणी इससे भी भावपूर्ण है। नौ वर्ष का मनमोहन अपने हमउम्र बच्चों के साथ आंगन में खेल रहा था कि आकाशवाणी से पंडित नेहरू के निधन की खबर सुन कर उसके दादा, दादी तथा उनके साथी फूट-फूट कर रोने लग पड़े थे। इतने कि मनमोहन बहादुर के साथी शोर बंद करके एक-दूसरे के चेहरे देखने लग पड़े थे। उन्हें उस समय बड़े विछोह की समझ नहीं आ रही थी। 
एयर मार्शल ने 1962 के भारत चीन युद्ध का हवाला देकर यह भी लिखा था कि इस युद्ध ने पंडित जवाहर लाल नेहरू को भीतर से तोड़ दिया था। इतना अधिक कि उनका बचना मुश्किल था। घर में यह बात आम ही होती रहती थी। फिर भी उनका चले जाना सहन नहीं हो रहा था। मेरे लिए एयर मार्शल के शब्द इतने प्रभावी थे कि मुझे भी उस दिन का पूरा वृत्तांत याद आ गया। 27 मई, 1964 का। मेरी याद का संबंध भाषा विभाग पटियाला के एक समागम से है। मैं पटियाला से डीलक्स बस से दिल्ली जा रहा था कि राजपुरा के बस अड्डे पर एक टिकट चैकर ने बस सीटी बजा कर रोकी और अंदर आकर कंडक्टर से झगड़ पड़ा। कोई पिछले दिन का विवाद था। चैकर इसने गुस्से में था कि कंडक्टर को बोलने नहीं दे रहा था। 
मेरा तथा अन्य यात्रियों का ख्याल था कि चैकर ने अम्बाला उतर जाना है, परन्तु हमारी सोच के विपरीत उनका विवाद पहले की तरह ही चलता रहा। बस के चल पड़ने के बाद शाहबाद पहुंच कर दोनों चुप हो गए। शायद थक गए थे या समझौता हो गया था। फिर भी आपस में नहीं बोल रहे थे। जैसे दोनों की दलीलें खत्म हो गई हों। यात्री भी चुप थे और वे भी। अंत में चैकर के शब्द सुनाई दिए, कंडक्टर को सुना कर कहा, ‘तुम्हें पता है! पंडित नेहरू का निधन हो गया है?’
कंडक्टर तो कुछ नहीं बोला, परन्तु जब ये शब्द चालक के कानों में पड़े तो पहले उसने गति कम की और पूरा विश्वास होते ही बस को सड़क से उतार कर बाएं हाथ खड़ा कर लिया। उसका चेहरा तो हमें दिखाई नहीं दे रहा था परन्तु उसने चार-पांच मिनट अपना सिर झुकाए रखा और चैकर या कंडक्टर के इशारे के बिना ही बस पहले की तरह ही चला ली। 
यात्री चुप थे या किसी न किसी रूप में बिछुड़ी रूह का गुणगान कर रहे थे, चीनियों की ज़्यादतियों सहित जिन्होंने पंडित नेहरू की ‘हिन्दी चीनी भाई-भाई’ वाली धारणा का मूल्य नहीं पाया था। इतनी सुच्ची बुद्धिमान हस्ती की कमर तोड़ दी थी।    
 चैकर ने समाचार की व्याख्या की। पंडित जी सुबह से ही बेहोश थे। गुर्दों में नुकस था। शरीर का एक हिस्सा बिल्कुल ही सो गया था। एक बार बेहोश होने के बाद पुन: होश नहीं आया था। सब को यकीन हो गया था। समाचार सच्चा था। पंडित नेहरू जा चुके थे। सबके चेहरों पर पसीने की बूंदें थीं। बाहर भी बहुत धूप थी। मई माह की धूप, परन्तु नेहरू के निधन के समाचार ने धूप की चुभन खत्म करके सभी को बोलने पर मजबूर कर दिया, ‘बड़ी अकल का मालिक था। खुदी का कद्रदान। रूस तथा अमरीका को संतुलित तोलने वाला, कोई नहीं जन्मा था उनके बिना।’ बस का प्रत्येक यात्री नपे-तुले शब्द बोल रहा था। उनके शब्दों में सच था और गले में गच्च।
पंडित नेहरू की विनम्रता की बात चली तो एक गणमान्य ने चीन के हमले की बात शुरू कर ली, हालत इतनी बुरी थी कि बुद्धिजीवि एवं राजनीतिज्ञ असम को भी चीन के कब्ज़े में आया तय करके बैठे थे। अनेक का विचार था कि नेहरू को इस्तीफा दे देना चाहिए था। 
परन्तु नेहरू जी थे कि टस से मस नहीं हुए थे। उनके बयानों में दु:ख था, मन पर चीनी हमले का बोझ था, परन्तु शब्दों में विनम्रता थी। उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा था कि चीन ने ठीक नहीं किया था और भारतीय सेना पूरा मुकाबला कर रही थी। नेहरू जी ने भारतीयों को भेदभाव छोड़ कर एकजुट रहने की अपील की। एकजुट रहने की अपील करते रहे। धीरे-धीरे हालात काबू में आ गए। नेहरू जी प्रधानमंत्री बने रहे। उनमें बड़ा हौसला था। बात अभी पूरी भी नहीं हुई थी कि हमारी बस को लोगों की बहुत बड़ी भीड़ ने रोक लिया। मैंने बाहर देखा तो हम शाहबाद में से गुज़र रहे थे। बहुत-से लोग जुलूस के रूप में सड़क पर चल रहे थे। बस पहले ही लेट थी। चालक अधिक लेट नहीं करना चाहता था। उस भीड़ को हटाने के लिए हॉर्न बजाया, परन्तु भीड़ ने यह बात पसंद नहीं की थी। उन्होंने मिल कर बस रोक ली।
‘नेहरू जी मर गए, तूं हारन बजा रहा है।’ सारी भीड़ सिख चालक के गले पड़ गई। चालक हॉर्न बजाने का कारण समझाने का यत्न कर रहा था, परन्तु कोई सुनता दिखाई नहीं देता था। कुछ हाथ तथा बाजू चालक की सीट के निकट पहुंच कर चालक को नीचे उतारने का यत्न करने लग पड़े। 
हम हरियाणा में से गुज़र रहे थे। पंजाबी सूबा अभी नहीं बना था, परन्तु पंजाबी तथा हिन्दी भाषी क्षेत्रों में तनाव ज़ोरों पर था। हिन्दी भाषी क्षेत्र सिखों को देख कर खुश नहीं थे। इस क्षेत्र में बैठे सिख पाकिस्तान से बेघर होकर आए थे। वे पुन: बेघर नहीं होना चाहते थे। उन्होंने पहले ही बहुत जान तथा माल का नुकसान सहन किया था। वे पंजाबी सूबे से बाहर नहीं रहना चाहते थे। 
इस तनाव के कारण हरियाणा के जाट तथा हिन्दू सिखों के साथ झगड़ा करने के लिए सदैव तैयार रहते थे। उनका विचार था कि सिख लोक-बोली के बहाने हरियाणा वालों को निगल जाना चाहते थे। क्षेत्रवासी सिख चालक को हॉर्न बजाने के दोष में नीचे उतारने की चुनौती दे रहे थे। देश का रक्षक मर गया था और यह चालक हॉर्न बजा कर मातमी जुलूस में विघ्न डाल रहा था, वे कह रहे थे। बस में 4-6 सिख थे। कैसे बचा सकते थे, परन्तु गलत बात होती देख भीतर बैठे रहना भी ज़ुल्म था। विशेषकर तब जब मैं सिख चालक का नेहरू की मौत के समाचार के बाद स्वाभाविक ही बस खड़ा करने वाला सम्मान तथा दु:ख भरा अमल देख चुका था। 
जुलूस में कुछ सिख भी थे। उनसे हौसला लेकर मैं नीचे उतर कर चालक की सीट की ओर बढ़ा। क्या देखता हूं कि सिख चालक से टक्कर ले रही भीड़ का नेता स्वयं सिख था। उसे मातमी जुलूस की मौन यात्रा में हमारी बस के हॉर्न का विघ्न ठीक नहीं लगा था। 
‘ऐसे संकट के समय हॉर्न का क्या काम?’ वह भीड़ को अपने गुस्से का कारण समझाता हुआ चालक को नीचे की ओर खींच रहा था। यह बात उसके मन में भी नहीं प्रतीत होती थी कि उसने देश के विभाजन के दिनों में इतना नुकसान सहन किया था। उसे विभाजन के दु:ख भूल चुके थे तथा आज़ादी की हवा का स्वाद पड़ चुका था। स्वतंत्रता की हवा ने उसे सभी दु:ख भुला दिए थे और पंडित नेहरू स्वतंत्रता के स्तम्भ थे। आज वह स्तम्भ गिर गया था।  यहां एक तरफ का पक्ष लेने की ज़रूरत नहीं थी। गुंजाइश भी नहीं, तथा न ही किसी अनहोनी घटना का डर। दोनों पक्षों का गुस्सा कम हो रहा था। मैं उसी समय अपनी सीट पर वापिस आ गया। 
मेरी बात तो जबरन आगे आ गई है। ट्रिब्यून अखबार की भी मजबूरी थी कि उन्होंने सौ वर्ष पहले का अपना समाचार चमकाना था, परन्तु मेरे देश का मौजूदा प्रधानमंत्री ‘पूरी विनम्रता’ से अपने प्रत्येक भाषण में नेहरू खानदान को शाही परिवार तथा राहुल गांधी को शहज़ादा कह कर ‘नवाज़ता’ आ रहा है। 

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