महंगाई पर नियंत्रण सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए
रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) इस बार रेपो दर 6.5 फीसदी पर स्थिर रखा। इसके पीछे मुख्य कारण यह था कि अक्तूबर-दिसम्बर तिमाही में खाद्य महंगाई सीमा से अधिक बनी रही। अनुमान के अनुसार खाद्य महंगाई में कमी केवल अगले साल की शुरुआत में दिखाई देगी। महंगाई में वृद्धि का असर जनता की खरीदने की शक्ति पर पड़ता है। यदि इसे समय पर नियंत्रित न किया जाए, तो इससे अर्थव्यवस्था की नींव हिलने लगती है। आरबीआई को ऐतिहासिक रूप से 11वीं बार रेपो रेट स्थिर रखना शायद इसी बात का संकेत है। ऐसे में अगर महंगाई को लेकर आरबीआई के पूर्व गवर्नर शक्तिकांत दास ने दो केन्द्रीय मंत्री सीतारमण और पीयूष गोयल के अनुरोध को दर किनार कर रेपो रेट स्थिर रखा तो इस बारे में सरकार को भी अब गम्भीरता से विचार करना चाहिए। सरकार को अब इस बात पर गौर करना चाहिए कि स्थिर और सीमित आय में जीवन-यापन कर रही देश की 70 से 80 प्रतिशत आबादी का जीवन बद से बद्तर स्थिति की ओर अग्रसर है। किसानों के प्रति हमदर्दी जताते हुए भले ही आरबीआई ने दो लाख तक कज़र् बिना गारन्टी कर दिया हो लेकिन इस महंगाई में किसान उसे चुकाऐगा कैसे, इस पर भी गहन विचार किया जाना चाहिएं।
यह 11वीं बार है, जब रेपो दर यथावत रखा गया। यह पिछले वर्ष की फरवरी से साढ़े छह फीसदी पर बना हुआ है। इसका बोझ सबसे अधिक घर और वाहन के लिए कज़र् लेने वाले मध्यवित्त वर्ग को उठाना पड़ रहा है। इसलिए वे उम्मीद लगाए हुए थे कि अगर रेपो दर में कमी की जाएगी तो उनके कर्ज पर किस्तें कुछ कम होंगी। मगर महंगाई के ऊपर की तरफ बने हुए रुख दो देखते हुए रिज़र्व बैंक ने फिलहाल इसमें किसी तरह का बदलाव करना उचित नहीं समझा। रेपो दर वह ब्याज दर है, जिस पर बैंक रिज़र्व बैंक से कज़र् लेते हैं। ज़ाहिर है, उससे अधिक दर पर वे अपने ग्राहकों को कज़र् देते हैं। पिछले वर्ष रेपो दर में बढ़ोतरी का कुछ असर महंगाई पर देखा भी गया था। मगर इतनी लम्बी अवधि का अनुभव यही है कि रेपो दर ऊंची रखने से महंगाई पर कोई बहुत असर नहीं पड़ रहा।
बैंकों के कारोबार पर पड़ते नकारात्मक प्रभाव को कम करने के मकसद से सीआरआर (नकद आरक्षित अनुपात) में पचास आधार अंक की कटौती कर दी गई है। सीआरआर यानी जो रकम बैंकों को हमेशा अपने पास आरक्षित रखनी पड़ती है। मगर इससे बैंकों को कितनी मदद मिलेगी, दावा करना मुश्किल है। अब अर्थव्यवस्था की विकास दर में कई विसंगतियां नज़र आने लगी हैं। चालू वित्त वर्ष की दूसरी तिमाही की विकास दर सरकार के लिए गम्भीर चेतावनी की तरह आई है। ऊपर से महंगाई बेलगाम बनी हुई है। डालर के मुकाबले रुपये की कीमत चिंताजनक स्तर गिर चुकी है। विनिर्माण क्षेत्र हिचकोले खा रहा है। ऐसे में रेपो दर को यथावत रख कर महंगाई और विकास दर के बीच कैसे संतुलन बिठाया जा सकेगा, समझ से परे है। लम्बे समय से लोगों की क्रयशक्ति बढ़ाने के व्यावहारिक उपाय आज़माने पर बल दिया जा रहा है, मगर सरकार तमाम दावों और वादों के बावजूद रोज़गार सृजन और आय में विषमता के मोर्चे पर कोई ठोस उपाय नहीं जुटा पा रही है।
जबकि आरबीआई ने मौद्रिक समीक्षा में नीतिगत ब्याज दरों को जिस प्रकार यथावत रखा है उससे यही संकेत मिलते हैं कि विकास की परवाह करने के साथ ही महंगाई को काबू में रखना रिज़र्व बैंक की सबसे बड़ी प्राथमिकता बनी हुई है। जीडीपी की तस्वीर आरबीआई, बाज़ार का आकलन करने वाले विश्लेषकों से लेकर बाज़ार में सक्रिय तत्वों के अनुमानों से भी विपरीत रही। अर्थव्यवस्था की गति धीमी पड़ने के संकेत तो पहले से ही दिखने लगे थे, लेकिन 5.4 प्रतिशत की वृद्धि कई संकेत देने वाली है। यह अर्थव्यवस्था में स्थायित्व को भी रेखांकित करती है। इस धीमेपन के कारणों की पड़ताल की जाए तो नीतिगत ब्याज दरों को 21 महीने से यथावत बनाए रखने वाला आरबीआई का रुख भी इसके लिए एक हद तक ज़िम्मेदार है। इसे लेकर कई स्तरों पर आवाज़ उठती रहती है। औद्योगिक गतिविधियों को गति देने के लिए ब्याज दरों में कमी की आवश्यकता को लेकर बहस लम्बे समय से जारी है। कई पहलुओं को देखते हुए आरबीआई अभी भी ब्याज दरें घटाने को लेकर संकोच कर रहा है, क्योंकि वह नहीं चाहता कि किसी भी प्रकार की मौद्रिक नरमी से स्थितियां हाथ से निकलें।
फिर वही सवाल कि महंगाई से राहत कैसे मिले? ऐसा नहीं है कि महंगाई पर काबू पाने के लिए सरकार के पास कोई उपाय बचे नहीं हैं। लम्बे समय से यह मांग उठ रही है कि केंद्र और राज्य सरकारें पेट्रोल और डीज़ल पर वसूले जाने कर को घटाएं। इससे इन उत्पादों के दाम नीचे आएंगे और फिर प्रत्येक वस्तु के दाम पर उसका असर दिखना शुरू होगा। महंगाई को लेकर रिज़र्व बैंक पहले ही चिंता जता चुका है और वह भी सरकार को पेट्रोल, डीज़ल पर लगने वाले करों में कटौती का सुझाव दे चुका है। हाल में रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति ने भी पेट्रोलियम उत्पादों पर लग वाले कर में कटौती की ज़रूरत बताई है। हालांकि सरकार का तर्क है कि पेट्रोल-डीज़ल पर वसूले जा रहे कर से जो पैसा आ रहा है, उसी से गरीबों के लिए कल्याणकारी योजनाएं चल रही हैं। लेकिन सवाल है कि अभी लोगों को महंगाई की और मार से कैसे बचाया जाए? आम लोगों पर महंगाई की मार के दूरगामी असर होते हैं, जो उन्हें गरीबी की ओर धकेलते हैं। इसलिए महंगाई काबू करना सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए, जो लम्बे समय से नहीं दिख रही।