अनसुनी बातों का एक नया ग्रन्थ

आजकल इसकी चिन्ता कोई नहीं करता कि जीवन में से क्या भला खो गया। बस इसी दौड़ में मगन रहते हैं कि हमने इस अन्धी दौड़ में क्या पा लिया। वैसे पाने के नाम पर है भी यहां क्या? चन्द स्वनाम-धन्य लोगों के साथ खड़े होकर चित्र खिंचवा लेना। अपना पैसा लगा कर पुस्तक छपवा लेना। किसी धंधेबाज आयोजक के यहां गोष्ठी करवा लेना या अपने द्वारा प्रेरित अमर लेखकों की सूची में अपना नाम डलवा लेना, हर वर्ष नाम का दर्जा बढ़वा लेना।
अभिनंदन से लेकर पुरस्कार तक आज-कल जुगाड़ से लिये जाते हैं। उन लोगों से लिये जाते हैं, जिनको स्वयं कभी जीवन में न कभी अभिनंदन मिला न पुरस्कार। आजकल गड़े मुर्दे की तरह अनजान लोगों को सम्मान दे इनका मन गहगहा उठता है। इनकी उपकार की भावना जागती है। लेकिन यह तो इस बदलती सदी का चलन है, जिसके बारे में पहले सोचना भी अपराध था, आज वही इस भेड़िया धसान भरी ज़िन्दगी में लोगों की मंज़िल बन गया।
आपने मिलन कक्ष में चन्द अभ्यर्थना करते निर्जीव पुतलों के अट््टहास को खो दिया। उन्हें संगत वह पसन्द है जो आपका अभिनंदन कर सके। मौसम वह अच्छा लगता है जो आपकी चिरौरी कर सके। मुंह पर साफ बात कह देने वाले लोग उन्हें अच्छे नहीं लगते। उन्होंने उन्हें कोष्ठकों में डाल दिया। एक वह कोष्ठक जो उनके पीछे-पीछे उनका जयघोष करता हुआ जीता है, और वह दुत्कारा हुआ कोष्ठक जो अन्धों के शहर में आइने बेचने का प्रयास करता है। देखते ही देखते इस जीवन से कितना कुछ गायब हो गया। इस सिद्धांत विकृत होकर सबसे मुंह चुराने लगे। प्रेम रस की जगह स्वार्थ रस ने ले ली है जो बनावटी संवादों की नींव पर खड़ा है, उसके बेवफा होते हुए देर नहीं लगती।
कभी करुणा रस की बात सुनते थे। किसी के जीवन की त्रासदी देख आंखों से आंसू बहते थे इस रस के कारण तब आंसू बहाने वाले के मन में संकल्प जाग उठता कि यह सब ऐसे नहीं चलने देना है। इसे बदल देने के लिए वे अपनी ज़िन्दगी कुर्बान कर देते।  फांसी के फंदे को चूम लेते। इतिहास के पन्नों में अमर हो जाते! लेकिन आज वह इतिहास बेदखल हो गया। उसकी जगह ले ली हमारे मनभाते चुनिन्दा इतिहास ने। कुछ नायक अनायक बन गये, जो उनसे असहमत लोगों को भाते हैं। कुछ अनायकों को नायक बना दिया क्योंकि वह उनकी अन्धी दौड़ या उखाड़ पछाड़ कर आगे बढ़ जाने वाली ज़िन्दगी को उचित ठहराते हैं।
जानते हो आजकल वीभत्स रस बेपरवाह लोगों का मनभाता रस बन गया है। अन्याय और क्रूरता के साथ किसी पिटते या मौत के हवाले होते व्यक्ति को देख कर उसे बचाते नहीं, केवल जेब से मोबाइल निकाल उसकी वीडियो फिल्म बनाते हैं।
दूसरे घर में आग लगे तो उसे बुझाने के लिए भाग-दौड़ नहीं करते। सर्दी बहुत है कह कर उसे नापने चले जाते हैं। जीवन जीने के अन्दाड़ बदल गये हैं, जिन्हें पहले साहित्य में विकृत कह कर नकारा जाता था, आज वही चरम सत्य बन गया। कुछ भी अघटनीय घट जाये, वे उससे चौंकते नहीं, ‘सब चलता है’ के नारे लगा उसे स्वीकार कर लेते हैं।
क्या-क्या नहीं स्वीकारा जाने लगा। आज मां-बाप से स्नेह पाने का अग्रह नहीं, उनकी सम्पदा पर नज़र लग गई। बड़े भाई ने अपना पेट काट-काट कर उन्हें पढ़ाया, तो समय पड़ने पर उसकी अवहेलना करके कह दिया, ‘यह उसका अपना चुनाव था। मेरे कृतज्ञत होने का काम क्या?’ हां जी कृतज्ञता, संवेदना भावुकता आदि शब्द ज़िन्दगी से गायब हो गये। अब जगह ली है निष्ठुरता ने, अलगलाव ने। आपका रथ धरती से चार इंच ऊपर चले, यह एहसास सदा बना रहा चाहिए। हम अपने से नीचे की ओर क्यों झांके, वह कहीं हमारे गुज़रे ज़माने की याद न दिला दे। हमें बीते कल को साथ लेकर सब जैसा बन कर नहीं चलना है। उस कल के लिए जीना है जिसमें हम अपने आज के साथियों को पीछे छोड़ कर कहीं आगे निकल जाएगा। उन चरगाहों में जिनमें हमारा कभी प्रवेश नहीं रहा घुस जाएंगे। अब हम अपने पीछे भारी पीढ़ी का इनमें प्रवेश निषेध करेंगे, और उनके हाथों में चुंवर बांट देंगे, ताकि वे हमारी शोभायात्रा निकाल उसे झुलाते हुए चले, और समाजवाद का नारा लगाये।
ये नई सदी के नये सच हैं बन्धु, जिन्हें अंगीकार करते हुए कोई हैरान नहीं होता। बल्कि इस सदी में प्रेम भी निवेदन करता है, तो आजकल की बदली हुई भाषा में। यहां नाभिकायें अपने नायकों के साथ सात जन्म तो क्या एक जन्म भी साथ गुज़ारने का प्रण नहीं करती। ज़माना तो हर चाह के पानी के बुलबुले-सा फूट जाने का है। चिरन्तन नहीं क्षरण भंगुर हो जाने का है। तभी तो आजकल शादियों के सपने नहीं, लिव इन रिलेशन के वायदे किये जाते हैं। प्रियतम, नहीं उसका भूतपूर्व हो जाना अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया है। लोग बूढ़ी उम्र में भी एक दूसरे को तलाक दे जाने का नया फैशन ले आये हैं, और इसे प्रौढ़ रंगत के अलग-अलग हो जाने का नया चलन कहते हैं।
परन्तु शादियों का लम्बा चौड़ा व्यवसाय चलता है इस देश में। उससे करोड़ों कमाने वाले चिन्तित हो रहे थे, कि नौजवान लोग शादी नहीं करेंगे, लिव इन के रातों के हिसाब से समझौते करेंगे, तो हमारे धंधे का क्या होगा? लेकिन बदलती सदी है साहिब। अब बूढ़े जोड़े ऊब कर एक दूसरे को तलाक देने लगे, तो बूढ़ों की दूसरी तीसरी शादियों का चलन भी बढ़ा। शादियों का धंधा बिखरने से पहले ही सुरक्षित हो गया। जीते रहें दादा-दादी, हमारे चाचा0मामा, जो संयुक्त परिवार का ़फातिमा पढ़ते हुए नये संग साथ की तलाश में निकले हैं। देश का शादियों का बड़ा धंधा बच गया। जो न बदल जाये वही थोड़ा। तभी तो अपने शरीर को कष्ट न देते हुए कृत्रिम गर्भादान का चलन बढ़ा है, और लोग जन्मोत्सवों की जगह किटी पार्टियां कर रहे हैं, तम्बोला खेल रहे हैं।

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