महत्वपूर्ण हैं सुप्रीम कोर्ट की म़ुफ्तखोरी संबंधी टिप्पणियां
मान लो कि म़ुफ्त में कुछ भी नहीं मिलता कभी,
भीख की कीमत सदा सम्मान से तौली गई।
यह बहुत ही अच्छी बात हुई है कि देश के सर्वोच्च न्यायालय ने मुफ्त बांटी जा रही सुविधाओं, जो अप्रत्यक्ष रूप में वोट लेने के लिए या लाभपात्रियों का वोट बैंक खड़ा करने की नीयत से दी जा रही हैं, बारे गम्भीर सवाल खड़ा कर दिया है कि क्या हम ‘रेवड़ियां’ देकर लोगों को मुख्यधारा में लाने की बजाय ‘पर-जीवी’ तो नहीं बना रहे? बहुत ही सख्त लफ्ज़ है ‘पर-जीवी’, क्योंकि पर-जीवी ऐसे जीवों को कहा जाता है जो स्वयं जीवित रहने के लिए किसी अन्य जीवित शरीर पर या शरीर के भीतर पलते हैं। वे अपना सारा भोजन दूसरे जीव के शरीर से ही लेते हैं और उसे लगातार नुकसान पहुंचाते रहते हैं। उन्हें अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए जिस मेज़बान शरीर पर वे रहते हैं, उसकी उन्हें सदैव ज़रूरत होती है। हम उम्मीद करते हैं कि इसके सार्थक नतीजे निकलेंगे और हो सकता है कि चुनावों से पहले इन ‘रेवड़ियों’ को रिश्वत मान कर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इन पर रोक लगाने कोई फैसला हो जाए। वैसे सच्चाई यही है कि इस मुफ्तखोरी ने देश के बहुत-से लोगों को काम करने के योग्य नहीं छोड़ा या उन्हें काम करने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा है कि लोग काम करने के लिए तैयार नहीं, क्योंकि उन्हें मुफ्त राशन तथा पैसा मिल रहा है। वैसे बात यहां तक ही सीमित नहीं, अपितु ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह रोटी-रोज़ी की बेफिक्री युवाओं को नशे तथा अपराध की ओर भी धकेल रही है। एक ओर उनका सम्मान खत्म हो रहा है और दूसरी ओर उनके मन में एक विशेष प्रकार का अहंकार भी पैदा हो रहा है। यदि इस स्थिति को समझना है तो अमरीका जैसे देश के असल निवासियों जिन्हें ‘रैड इंडियन’ कहा जाता है, के जीवन स्तर एवं जीवनशैली का मुकाबला वहां रहते एवं शासन करते यूरोपीय तथा अन्य लोगों के जीवन स्तर एवं जीवनशैली से करके समझा जा सकता है कि मुफ्त की चीज़ों के आदी लोग कहां खड़े हैं और मेहनती लोग कहां पहुंच चुके हैं।
खूं के बदले में आज़ादी की बातें अब मत सोचो,
वोट बेचो और मुफ्त में जीने की ़गुलामी ले लो।
-लाल फिरोज़पुरी
70 वर्ष से शुरू है मुफ्त की रेवड़ियों की प्रथा
यदि इतिहास पर नज़र डालें तो वोटों के लिए ‘मुफ्त की रेवड़ियों’ की प्रथा भारत में 70 वर्षों से शुरू है। इसकी शुरुआत के. कामराज ने मद्रास के मुख्यमंत्री के रूप में 1954-1963 के बीच की थी। उन्होंने विद्यार्थियों के लिए मुफ्त शिक्षा एवं मुफ्त भोजन की योजना शुरू की थी। ़खैर, यह किसी सीमा तक मुफ्तखोरी से अच्छे भविष्य की योजना समझी जानी चाहिए, परन्तु असली मुफ्तखोरी 1967 में डी.एम.के. के संस्थापक सी.एन. अन्नादुराई ने शुरू की जब उन्होंने चुनावों में एक रुपये में साढ़े चार किलो चावल देने जैसे वादे किए। 1980 में आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री एन.टी. रामाराव ने 2 रुपये में चावल देने की योजना लागू की थी। 1990 में तो हद ही हो गई जब एक ओर ए.आई.ए.डी.एम.के. की नेता जय ललिता ने चुनावों में मुफ्त साड़ी, प्रैशर कुकर, टैलीविज़न तथा वाशिंग मशीन देने जैसे वादे किए और दूसरी ओर पंजाब में स. प्रकाश सिंह बादल ने 1997 में देश में सबसे पहले मुफ्त बिजली देनी शुरू की। 2006 में डी.एम.के. ने मतदाताओं को रंगीन टीवी मुफ्त देने का वादा किया। 2015 में आम आदमी पार्टी ने (आप) मुफ्त बिजली, पानी के वादे से दिल्ली की सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया। पंजाब में 2017 में मुफ्त मोबाइल फोन तथा अन्य वादों से कांग्रेस काबिज़ हो गई। 2022 में ‘आप’ पंजाब में तथा कांग्रेस हिमाचल प्रदेश में मुफ्त बिजली तथा अन्य सुविधाओं के वादों से सत्ता में आईं। हालांकि पंजाब में महिलाओं को प्रत्येक माह मुफ्त 1000 रुपये देने का वादा अभी पूरा नहीं हुआ। यहां तक कि दिल्ली में एक बोतल शराब के साथ एक एक बोतल शराब मुफ्त की योजना भी चर्चा में रही।
पंजाब की दयनीय अर्थ-व्यवस्था
हां समुन्द विच उतर, पर बच के निकलन दी वी सोच,
छाल तों पहलां ज़रा पानी दी गहराई वी माप।
-लाल
अफसोस की बात है कि पंजाब में म़ुफ्तखोरी करवाने वाली किसी भी सरकार ने पंजाब की अर्थव्यवस्था की गहराई नहीं मापी कि वह कितना बोझ सहन कर सकती है। परिणामस्वरूप पंजाब पर 2027 तक ऋण 5 लाख 50 हज़ार करोड़ रुपये होने का अनुमान लगाया जा रहा है। वास्तव में पंजाब पर ऋण 1984 के काले दौर के दौरान प्रदेश में भेजे गए केन्द्रीय सुरक्षा बलों के खर्च के कारण चढ़ना शुरू हुआ था। वर्ष 2000 में पंजाब पर सिर्फ 8500 करोड़ रुपये का ऋण था जिसे माफ करने की घोषणा तत्कालीन पंजाबी प्रधानमंत्री आई.के. गुजराल ने की थी और कुछ किश्तें माफ भी हुई थीं, परन्तु मुफ्तखोरी की योजनाएं शुरू होने के कारण वर्ष 2006-07 में पंजाब पर ऋण 40 हज़ार करोड़ रुपये हो गया। 2009-10 में यह ऋण 53 हज़ार करोड़ पार कर गया। 2014-15 में यह ऋण 88818 करोड़ रुपये था, 2019-20 में 2 लाख, 29 हज़ार 354 करोड़ रुपये हो गया। 2021-22 में 2 लाख, 61 हज़ार करोड़ रुपये, अब 2024-25 में 3 लाख, 53 हज़ार करोड़ से पार हो चुका है। अभी महिलाओं को प्रत्येक माह 1000 रुपये देने की शुरुआत होनी है।
इसलिए यदि पंजाब की अर्थव्यवस्था को बचाना है तो पैसा मुफ्त की योजनाओं में नहीं, उत्पादन कार्यों में लगाने के इंकलाबी कदमों की ज़रूरत है। सब्सिडियों को तर्कसंगत बनाना ज़रूरी है, नहीं तो इतिहास किसी को माफ नहीं करेगा। ज़रूरी नहीं कि वक्त के नायक इतिहास के भी नायक हों। इतिहास के नायक बनने के लिए ़खतरे का सामना करके भी नई बात तथा नया इंकलाब लाना पड़ता है।
इतिहास दा जे नायक बनना है तां है ज़रूरी,
कुझ बात नवीं कहिना, कोई इंकलाब करना।
सिखों के कई मामलों का एकमात्र समाधान
श्री अकाल तख्त साहिब के पूर्व कार्यकारी एवं तख्त श्री दमदमा साहिब के जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह की शिरोमणि कमेटी द्वारा की बर्खास्तगी ने एक बार फिर बहस शुरू कर दी है कि सभी तख्त साहिबान के जत्थेदारों की नियुक्ति की शर्तें, हटाने की विधि तथा उनके कार्य क्षेत्र निश्चित किए जाएं। हम समझते हैं कि विगत समय में शिरोमणि कमेटी की कम हुई ताकत ने सिखों को प्रत्येक क्षेत्र में कमज़ोर किया है। सिखों के बहुत-से मामले सिर्फ इस बात से ही हल हो सकते हैं, यदि शिरोमणि कमेटी एक ताकतवर एवं प्रतिष्ठित संस्था हो। इसका एकमात्र समाधान यही दिखाई देता है कि सिख आल इंडिया गुरुद्वारा एक्ट बनाने की ओर ध्यान दें। नि:संदेह वर्तमान राजनीतिक हालातों तथा सत्तारूढ़ पार्टी की सोच के कारण यह कोई आसान कार्य नहीं है, परन्तु असंभव भी तो नहीं? आल इंडिया गुरुद्वारा एक्ट के कई प्रारूप बन चुके हैं और इसे बनने से रोकने के लिए अकाली दल के सिख नेताओं की दिलचस्पी न होना और उनके अपने हित भी अधिक ज़िम्मेदार हैं। सबसे अंतिम प्रारूप शायद जस्टिस के.एस. टिवाना के नेतृत्व वाले 7 सदस्यीय पैनल ने बनाया था। यह भी ठीक है कि यह प्रारूप अब समयानुसार नहीं रहा होगा। अब ज़रूरत है कि प्रत्येक राज्य की अलग गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी हो और उन राज्यों के सिखों की संख्या के अनुसार उन प्रादेशिक गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटियों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की एक संयुक्त शिरोमणि कमेटी बने। हो सके तो शेष देशों जहां सिखों की भारी संख्या रहती है, को भी किसी वैधानिक तरीके से इसमें दर्शकों के रूप में प्रतिनिधित्व दिया जाए और इसका प्रारूप पूरी तरह फैडरल (संघीय) बनाया जाए। इस बारे सभी सिख संस्थाओं, गुरुद्वारा कमेटियों, सिख चिन्तकों, प्रमुख सिख वकीलों तथा सेवामुक्त जजों एवं सिख विद्वानों की सलाह ली जा सकती है और समयानुसार नया प्रारूप पेश किया जा सकता है। ऐसी नई व्यवस्था में ही तख्त साहिबान के जत्थेदारों की नियुक्ति की शर्तों, तरीके, योग्यता के अतिरिक्त उनके कार्यक्षेत्र, अधिकार, फज़र्, ताकतों तथा उन्हें पद से हटाने का विधि-विधान शामिल किया जा सकता है। इस संबंधी ईसाई कौम के पोप के लिए बनाए गए विधि-विधान को ज़रूर देखा जाए, बेशक सिख धर्म एवं ईसाई धर्म के सिद्धांतों में बहुत अंतर है, परन्तु पोप के चुनाव की प्रक्रिया एवं योग्यताओं को देखना एक दिशा लेने के लिए अच्छा हो सकता है, जो हमारे धर्म के अनुकूल हो और एक बढ़िया सिस्टम बनाने में सहायक हो, वह अपनाया जा सकता है।
जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह के आगामी कदम?
हालांकि बर्खास्त जत्थेदार ज्ञानी हरप्रीत सिंह अभी अपनी भविष्य की रणनीति बारे स्पष्ट रूप में कुछ भी नहीं बता रहे, परन्तु हमारी जानकारी एवं समझ के अनुसार वह भविष्य में त्रिकोणीय रणनीति अपनाते प्रतीत हो रहे हैं। पहली बात तो उन्होंने शुरू कर भी दी है, वह है उनका पंजाब भर के धार्मिक क्षेत्र में विचरण करना। वह अपने राजनीतिक विरोधियों पर सख्ती से हमलावर भी हो रहे हैं। दूसरी सम्भावना यह है कि वह स्वयं तो अदालत का दरवाज़ा नहीं खटखटाएंगे, परन्तु उनकी बर्खास्तगी को उनके समर्थकों द्वारा अदालत में चुनौती भी दी जा सकती है। इस बात की पूरी-पूरी सम्भावना है कि वह शिरोमणि कमेटी के आम चुनाव से पहले-पहले किसी राजनीतिक या धार्मिक संगठन का नेतृत्व संभाल लें। इस समय की जानकारी के अनुसार अधिकतर बादल विरोधी नेता, जिनमें अकाली दल सुधार लहर के नेता तथा भाई अमृतपाल सिंह खालसा के समर्थकों के अतिरिक्त अन्य बहुत-से नेता भी शामिल हैं, उनके सम्पर्क में बताए जाते हैं और उन्हें नेतृत्व करने के लिए कह रहे हैं।
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