कानों में रस घोलता निंदा राय
व्यंग्य-सुधाकर आशावादी
कानों में जो रस निंदा रस घोलता है, उतना रस किसी अन्य विधा में नहीं मिलता। जैसे ही कहीं निंदा रस की वर्षा प्रारम्भ होती है, बिना किसी प्रयास के कान उसी ओर उन्मुख हो जाते हैं तथा श्रवण कौशल का आभास कराने लगते हैं। चर्चा ज्वलंत समस्याओं पर होनी हो, विदेश नीति पर होनी हो या देश के बजट पर, किन्तु विषय कब परिवर्तित होकर निंदा रस के आनंद की अनुभूति कराने लगे, पता ही नहीं चलता। विषय चाहे कोई भी हो, आदमी अपने स्वार्थ की भाषा अधिक बोलता है। कई बार आदमी का ध्यान राष्ट्रवादी मुद्दों से हटकर भौतिक संसाधनों पर ही अटक कर रह जाता है। इस ध्यानाकर्षण में मुख्य भूमिका ई मीडिया की ही रहती है। किसी गरीब ने कोई सूट पहन लिया तो उसी पर चर्चा होनी शुरू हो गई। चाय की चर्चा सूट चर्चा में बदल गई। सूट और गरीब की झोपड़ी में सहसंबंध स्थापित करने के लिए सांख्यिकीय सूत्र तलाशे जाने लगे।
मीडिया ने सूट चर्चा को हाथोहाथ लिया। सूट पर राष्ट्रव्यापी बहस आयोजित की जाने लगी। सरकारें भी सूट-बूट की कहलाई जाने लगी। दृश्य बदला। एक सज्जन जैकेट पहन कर भ्रमण के लिए निकले। स्वाभाविक था, सर्दी लगेगी तो कोई फटी जेब का कुर्ता पजामा पहन कर तो सड़क पर निकलेगा नहीं। बुरा हो बुरी नज़र वालों का, उनकी नज़र जैकेट के ब्रांड पर जा टिकी। यहीं से शुरू हो गई जैकेट चर्चा। चाय चर्चा सब भूल गये। गूगल पर सर्च ऑपरेशन चला। जैकेट से संबंधित अधिकाधिक जानकारियां जुटाई जाने लगीं। जैकेट की कीमत पर जाकर सर्च रुक गई। फिर क्या था, जैकेट की कीमत पर ही घमासान शुरू हो गया। कोई अपने दु:ख से दुखी नहीं रहा।
दूसरे की जैकेट देखकर सूट-बूट वाले भी सवाल करने लगे। इतनी महंगी जैकेट। वो भी दरिद्रनारायण ने पहनी, उस दरिद्रनारायण ने जिनकी जेब ही फटी हुई थी, जो जगह-जगह अपनी फटी जेब दिखाते हुए घूम रहे थे, जिनके पास घर खर्च के लिए भी पैसे नहीं थे, जो बैंक की कतार में लग कर और बड़ी मशक्कत करके अपने परिवार के लिए चार हजार रुपये जुटा सके थे। जीवन में दुर्दिन देखने वाला यदि महंगी जैकेट पहन ले, तो बात बनाने वाले तो बनायेंगे ही। चांदी का चम्मच लेकर पैदा होने वाले यदि कुर्ते की फटी जेब का प्रदर्शन करने के लिए विवश हो जाएं, तो अच्छे दिन की कल्पना संभव नहीं होती। रही सही कसर जैकेटधारी की सहज सरल बातों ने पूरी कर दी।
बात का बतंगड़ बनाने वालों के पास कोई दूसरा काम नहीं होता। कहो कुछ, मतलब कुछ और निकाल लेते हैं। उन्होंने मजाक मजाक में कह दिया कि अमुक सज्जन के साथ हमने किसी नारी को नहीं देखा। नारियों के साथ के बाद समानता और नारी सम्मान की कल्पना भी भला कैसे की जा सकती है। यदि बिना नारी के कोई अपने धर्म कर्म को निभाना चाहे तो इसका मतलब निकालने वाले कह सकते हैं कि वे नारियों का सम्मान नहीं, अपमान करते हैं। ऐसे में बातों की खाल से खाल निकालने वाले भला चुप कैसे रह सकते थे। वे नारी सम्मान और दिशा-नायक विषय पर खासा शोध करने लगते हैं। अगली पिछली कलई खोलनी शुरू कर देते हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ ही यही है कि जो चाहे बोलो, कोई किसी के मुंह पर टेप नहीं चिपका सकता। एक सायं मुझे लगा कि ज्ञान में वृद्धि करने के लिए कुछ विचारकों की बहस सुन ली जाए। यूँ तो नित्य ही मीडिया की बहस चिर-परिचित अंदाज में होती रहती है। वक्ता पूर्व निर्धारित रहते हैं और उनका दृष्टिकोण भी सभी जानते हैं कि किसी से कहा जायेगा, वन्दे मातरम बोलो, किसी से कहा जायेगा, भारत माता की जय बोलो, किन्तु वह बात को घुमायेगा। जो उसे कहना है कहेगा, तर्क-कुतर्क में वह सतर्क रहेगा। कहीं गलती से भी कोई ऐसी बात मुंह से न निकल जाए, जिससे उसे उसकी पार्टी में ही अपनी किरकिरी कराने के लिए विवश होना पड़े।
बहरहाल, सब चलता है। मसले चाहे कुछ भी हों, किन्तु बहस में राय सुनिश्चित होती है। समय मीडिया को भी व्यतीत करना है और दर्शकों को भी। मसले कहां से लाएं। बजट कोई मसला नहीं रह गया है। ज़रूरी नहीं कि महंगाई बढ़ाने के लिए बजट में किसी प्राविधान की आवश्यकता हो। चर्चा बजट की होनी थी। होने लगी, एक करोड़ के सूट और सत्तर हजार की जैकेट की। चर्चा करने वाले भी जानते हैं कि जनता को कैसे बहकाया जा सकता है। जनता निरीह, धैर्यशील व सहनशील है।
महंगाई कितनी भी बढ़े, कभी उ़फ तक नहीं करती। हां, जाति धर्म के नाम पर उससे कभी भी सड़कों पर ढोल नगाड़े और झांकियों से भरी यात्रायें निकलवाई जा सकती हैं। वह आश्वासन के पुलाव खाकर ही अपनी भूख शांत कर लेती है। आश्वासन के कम्बल ओढ़ कर सोने में देर नहीं लगाती। आश्वासन की चादर पर विश्राम करने में उसे आनंद की अनुभूति होती है। मोबाइल पर गेम खेलने से बेहतर उसके लिए समय काटने का कोई और अच्छा साधन नहीं है। इसलिए असल मुद्दे पीछे छोड़ कर सूट और जैकेट पर बहस सुनने में भी उसे आनन्द मिलता है। बजट तो हर बरस आता ही है, किन्तु चटखारेदार सूट और जैकेट चर्चा तो कभी-कभी ही कानों में निन्दा-रस घोलती है।

