समान नागरिक संहिता—उत्तराखंड से मिलेगा उत्तर
उत्तराखंड में कॉमन सिविल कोड के शीघ्र लागू होने की संभावना बन रही है और उसके बाद गुजरात में। मध्यप्रदेश में भाजपा की सरकार बची रही तो 2024 से पहले इसे लागू करने की कोशिश वहां भी होगी। इसके लिए बनी समितियां अपनी रिपोर्टों साथ सरकार के इशारे के लिए तैयार हैं। जहां तक उत्तराखंड की बात है तो यहां समान नागरिकता संहिता लागू करने की तेज़ हुई कवायद कोई आकस्मिक घटना नहीं है, सो इस कवायद को तात्कालिक और चुनावी लाभ से प्रेरित कहना ठीक नहीं। हां, यह कह सकते हैं कि यह कदम भाजपा की दूरगामी रणनीति का हिस्सा है, जिसे वह पूरी तैयारी के बाद लागू करवाने में सफलता के इतने समीप पहुंची है। इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि इसके राजनीतिक निहितार्थ हैं और उसके गुण-दोष और लाभ-हानि भी। यह विशुद्ध रूप से सामाजिक और न्यायिक मुद्दा नहीं है। आरंभ से ही विवादित विषय रहे समान नागरिक संहिता के मुद्दे को अपार जनसमर्थन मिला है तो इसका पर्याप्त विरोध भी हुआ है।
उत्तराखंड के यूसीसी लागू करने के बाद गुजरात और मध्य प्रदेश में यूसीसी के लागू कराने में सफलता मिलेगी ही, इसमें कोई विशेष अड़चन नहीं दिखती। इन उदाहरणों के बाद यदि कोई बड़ी अशांति नहीं फैली, कोई राजनीतिक वितंडा न खड़ा हो, जिसकी आशंका न्यून ही है, तो माहौल को भांपकर उत्तराखंड तथा गुजरात में समान नागरिक संहिता लागू करने के बाद कई दूसरे राज्य अपनी राजनीतिक गणित के अनुसार कॉमन सिविल कोड लागू करने के लिये आगे आयेंगे या अपने मतदाताओं से वादा करेंगे कि इस दिशा में वे तेज़ी से आगे बढेंगे। इस बीच उत्तरपूर्व के ही नहीं कई दक्षिणी और उत्तरी भारत के राज्यों से भी इसके विरुद्ध विरोध के स्वर उठेंगे। यदि सरकार प्रचार के माध्यम से यह जनमत बनाने में सफल रही कि यह बहुसंख्यकों, हिंदुओं के हित में है, यह राष्ट्र को जोड़ने, एक करने के लिए है और इसका विरोध करने वाले हिंदुत्व, हिंदू, समाज और देश के द्रोही हैं तो बेशक यह ध्रुवीकरण आम चुनावों में उसे अखिल भारतीय स्तर पर व्यापक लाभ दे सकता है, भारी संख्या में वोट उपजा सकता है। लेकिन यह तय मानना चाहिये कि भाजपा की राजनीतिक रणनीति इसके पीछे नहीं है, यह उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू होने के बाद उपजने वाले सामान्य सामयिक राजनीतिक समीकरण होंगे जो आम चुनावों में भाजपा को लाभ दिला सकते हैं।
उपरोक्त के संदर्भ में विधि आयोग सलाह-मशविरे की प्रक्रिया तेज़ है, पर उत्तराखंड सरकार को अभी इस पूरी कवायद में थोड़ी देर लगेगी। उसकी राह मुश्किल नहीं इसलिए संभव है कि यह अपेक्षाकृत शीघ्र हो जायेगा। उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू करना है, इस बात का वादा भाजपा ने न सिर्फ पहले ही कर रखा था बल्कि यहां इसे मुख्य चुनावी मुद्दा भी बनाया था। पुष्कर सिंह धामी ने 27 मई 2022 को समान नागरिक संहिता का नया खाका बनाने के लिए सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति रंजना देसाई की नेतृत्व में एक विशेषज्ञ समिति बनाई बाद में जिसके सदस्यों की संख्या और कार्यकाल में बढ़ोत्तरी की गई। इसके बारे में धामी ने ऐलान किया कि कमेटी की रिपोर्ट आते ही उत्तराखंड में यूनिफॉर्म सिविल कोड लागू कर दिया जाएगा। हालांकि यह इतना भी आसान नहीं था पर राजनीतिक बयानों की शैली ऐसी ही होती है।
विशेषज्ञ समिति ने अपने कार्यकाल के दौरान तकरीबन 60 बैठकें की और ढाई लाख से अधिक सुझावों पर गौर करने के पश्चात रिपोर्ट बनाई जिसके आधार पर राज्य सरकार अपने यूनिफॉर्म सिविल कोड का मसौदा तैयार करेगी, उस पर विधानसभा में बहस होगी। बहस के लिए विधानसभा का विशेष सत्र बुलाए जाने में नियमत: थोड़ा समय लगेगा पर सरकार स्पष्ट बहुमत में है तथा विधानसभा में किंचित विरोध के बाद भी प्रस्ताव के गिरने की कोई आशंका नहीं है, इसलिए यह मान लिया जाना चाहिए कि विभिन्न धर्मों, समुदायों, जनजातियों के प्रतिनिधियों के अलावा प्रदेश के विभिन्न हिस्सों में कार्यकर्ताओं को भेज स्थानीय व्यक्तियों के साथ प्रवासियों से भी सुझाव लेकर, विभिन्न संस्थाओं, राजनीतिक दलों से सैद्धांतिक राय मशविरे के बाद बनाया यह प्रस्ताव बिना ज्यादा संशोधनों के पास हो जायेगा।
सदन में संख्याबल से विपक्ष की आवाज़ भले ही दबा दी जाए, लेकिन उसके तार्किक प्रश्नों का उत्तर कठिन होगा। ये प्रश्न सदन के बाहर गूंजेंगे। अब चूंकि समान नागरिक संहिता के बारे में यह धारणा बद्धमूल है कि यह बहुसंख्यक हिंदुओं के हित में है अथवा इससे अल्पसंख्यक वर्ग सांसत में आ सकता है। यदि संदर्भित राज्यों में एक बहुत बड़ा मतदाता वर्ग विशेष इसका भरपूर समर्थन कर रहा होगा, तो ऐसे में विपक्ष को भी इसके समर्थन और विरोध के मामले में बहुत सोच समझकर कदम उठाना होगा। भाजपा शासित गुजरात में हिंदुओं की आबादी कुल आबादी के 89 प्रतिशत है, जबकि मुस्लिम तकरीबन दस प्रतिशत। उत्तराखंड में 83 प्रतिशत हिंदू हैं तो लगभग 14 प्रतिशत मुसलमान। मध्यप्रदेश में 91 प्रतिशत हिंदू हैं तो तकरीबन 7 प्रतिशत मुसलमान। इस तरह के हिंदू बाहुल राज्यों में इसे लागू करना आसान होगा और यहां विपक्षी भी इसके विरुद्ध बहुत मुखर हुए तो उन्हें नुकसान उठाना होगा। वहीं लक्षद्वीप 93 प्रतिशत से ज्यादा, जम्मू और कश्मीर में 68 प्रतिशत से अधिक या फिर असम जहां 35 प्रतिशत, पश्चिम बंगाल 28 प्रतिशत तो केरल 28 प्रतिशत मुसलमान हैं, वहां की सरकारें इसे कैसे लागू करा सकेंगी, जब तक कि केंद्र सरकार उन्हें मज़बूर न करे। दक्षिण के राज्यों में आपसी रिश्तों में विवाह का प्रचलन रुकने से बहुसंख्यकों द्वारा ही इसका विरोध संभव है। देश के कई राज्यों में आदिवासी बड़ी संख्या में हैं, जिनके शादी और तलाक सरीखे तमाम सामाजिक नियम उनकी अपनी अलिखित परंपरा से निर्देशित होते हैं, वे इनके प्रति बहुत दृढ़ हैं, इसके तहत उन्हें टैक्स देनदारियों में कुछ छूट भी मिलती है।
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