लाल गालीचा बिछने का इंतज़ार

चुनाव करीब हैं और नेता जी अपने शासनकाल की सफलता का लेखा-जोखा करने चले हैं। पिछली बार जब चुनाव जीते थे, उन्होंने वायदों के लाल गालीचे बिछा दिये थे। कहा था, वायदे का पक्का हूं, अपने शासनकाल में एक भी आदमी भूख से मरने नहीं दूंगा। एक भी बेकार को नौकरी के लिए छटपटाने नहीं दूंगा। लोगों के दफतरी काम चौबीस घंटे में करवा देने का वायदा तो पुरानी बात है, अब नई बात यह कि सरकारी कारिंदा आपके घर से आपके काम की गुज़ारिश नहीं, आप से काम का हुक्म लेकर जाएगा, और काम पूरा करने की सूचना सरकारी हस्ताक्षर सहित आपके घर पहुंचा कर दम लेगा। यह वायदा केवल एक सूबे से नहीं मिला था, जहां-जहां जिस सूबे में नये चुनाव दुंदुभि बजी, वहां-वहां बेचारे लोगों (जो अब चुनाव के करीब जनता जनार्दन कहलाये जा रहे थे) ने पाया कि लगभग हर चुनाव में उतरने सूबे के गद्दीधारकों ने कम-ज़्यादा ऐसे ही वचन देकर पिछली चुनावी महाभारत जीती थी। अब फिर जीतना चाहते थे।
जब चुनावों का इन सब राज्यों में प्रचार भोंपू बजा तो गद्दी के अहलकारों ने फरमाया कि ‘भाई जान, हमारा शासक उम्मीद से अधिक कामयाब रहा है। सरकार बहादुर ने गद्दी पर बैठते हुए जो वायदे किये थे, इनमें से पच्चासी प्रतिशत पूरे कर दिये हैं, जो बाकी पन्द्रह प्रतिशत रह गये थे, वे वोट पड़ने में जो बाकी दिन रह गये हैं, उनमें पूरे कर दिये जायेंगे।’ इसलिए आप पिछले वायदे पूरे हुए कि नहीं, इसकी चिन्ता छोड़िये। हमारे लेखे-जोखे सब पूरे हुए। यह मान लोगे तभी तो हमें नये सोनपंखी वायवीय वचनों के लाल गालीचे विछाने का अवसर मिलेगा। 
ऐसा होता है, सदा ही ऐसे होता है। वायदों की अधूरी इमारत को अधर में लटका नई इमारत की नींव रख दी जाती है। वोट पड़ गये तो अधूरी इमारतें अपनी कहानी सुनाने के लिए श्रोता भी तलाश नहीं कर पाती। आधी छोड़ पूरी की ओर भागे, दुविधा में दोनों गये, न माया मिली न राम। नहीं यहां यह बात फिट नहीं बैठेगी। यहां ते अधूरी इमारतों, अधूरे वचनों की बारात सजी है। मतदाता को दूल्हा बनने का अवसर मिलता है, सिर्फ मतदान दिवस पर। उसके बाद तो वह पांच बरस अपनी खो गई बारात, या शुरू हो गई बैंड, बाजा और बारात ही तलाशता रहता है।  लेकिन जिन्होंने वायदा किया था, उन्होंने पूरी वायदाखिलाफी की हो ऐसा अंधेर भी नहीं है। जगह-जगह आपको खुदी हुई  सड़कें, अधूरे बने पुल आज भी अपनी अपूर्णता का रोना रोते नज़र आते हैं। जैसे कहते हों, देखो वचन देने वालों की नीयत में खोट नहीं था। अब बीच में सौदा पटाने वाला दलाल या ठेकेदार ही छूमन्तर हो गया। उसे घर से मना कर लाने से तो रहे। क्या करें कभी मालिक की नीयत में खोट हो गया, कभी कामगार ने मुंह फेर लिया। पास करने वाले अफसर की नाक के नीचे हमारी पेश की गयी डाली नहीं आई, तब काम तो रुकना ही रुकना था। फिर अभी अगले चुनाव भी तो कोसों दूर थे, बस नेताओं को इस परिवार पोषण का मज़र् और जनता के प्रति स्मृति भ्रम का रोग हो गया। 
जनता गुम हो गई इसी भूलभलैया में। सदियों के रोग हैं, दशकों में थोड़ा निबट जाते। यहां बालाई आमदनी की गौरवशाली परम्परा है, हर बरस उसकी श्री वृद्धि हो रही है। फिर इस बीच अधूरे पुल कैसे पूरे हो जाते, खुदी हुई सड़कें कैसे भर जातीं? 
इस देश के लोगों में भी असीम धीरज है भय्या। बस इन्हीं खुदी हुई सड़कों और अधूरे पुलों से ही काम चला लेते हैं। शुक्र करो कम से कम यहां इनके निशां तो नज़र आ जाते हैं, जो बता देते हैं कि वायदा करने वालों की नीयत इनती बुरी न थी। वरना यहां तो चलन रहा है कि कागज़ों में ही उनके निशान गुम हो जाते हैं। अब लेना-देना, जमा खाता सब चुकता हो गया। गरीब देश और भी गरीब हो गया, इसकी क्या हैरानी? हां कुछ नेता किस्म के लोग अवश्य फटीचर साइकिल से उड़न खटोला हो गये। अब अट्टालिकाओं के परिसर में गाड़ियां खड़ी करने नहीं, हैलीकाप्टर खड़े करने का ठेका दिया जा रहा है। जनता असीम धीरज के साथ पुराने वायदों की अपूर्णता को भूल नये वायदों का लाल गालीचा बिछाने का इंतज़ार करती हैं। उनके जीर्णोद्वार आज के नेपथ्य में वहीं जाना-पहचाना संगीत बजता रहता है, ‘इंतज़ार और अभी और अभी।’ 
आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने के साथ-साथ आओ इस इंतज़ार का अमृत महोत्सव भी मना लें। इस महोत्सव के तोरणद्वार बताते हैं कि शुरू हो जाइए भ्रष्टाचारी देशों के सूचकांक में अपना दर्जा और नहीं गिरा, वहीं का वहीं खड़ा है।  इस बीच महामारी के बार-बार लौट आने की बदगुमानी तो छाई दे रही है कि ऐेसे विकट समय में महंगाई और न गिरती, बेकारी और न बढ़ती तो भला और कब होता? शुक्र कीजिए अब इस महामारी का मुकाबला तो इमानदारी से करने का प्रयास किया जा रहा है। भाषणों में संकल्प की दृढ़ता है, और महामारी रोकने के लिए हटाई गई बंदिशें भी उसी उत्साह के साथ पुन: लगाई जा रही हैं। बस यह बंदिशें स्वीकार कर लीजिए, दिन तो आपके कभी न कभी फिर ही जाएंगे।