‘समाजवाद’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्दों पर विवाद क्यों ?

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के इशारे पर अब भाजपा के छोटे-बड़े नेता संविधान की प्रस्तावना में आपात्काल के समय जोड़े गए ‘समाजवादी’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्दों को इसमें से निकालने के लिए लामबंद हुए प्रतीत होते हैं। उप-राष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इन शब्दों को नासूर करार देते कहा है कि इससे संविधान की आत्मा का अपमान हुआ है और यह सनातन धर्म के विरुद्ध है। एक बार फिर ऐसी बहस इस कारण उठी है क्योंकि वर्ष 1976 में आपात्काल के दौरान श्रीमती इंदिरा गांधी की ओर से किए गए 42वें संवैधानिक संशोधन द्वारा समाजवाद, धर्म-निरपेक्षता और अखंडता आदि शब्द संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए थे। धनखड़ के अनुसार इन्हें हटा दिया जाना चाहिए। आपात्काल के 50 वर्ष पूरे होने पर भाजपा ने एक विशेष नीति के तहत आपात्काल के घटनाक्रम की आलोचना बड़े व्यापक स्तर पर योजनाबद्ध ढंग से की है।
नि:संदेह पौने दो वर्ष का यह समय ऐसा था, जिसमें संविधान की मान्यताओं की धज्जियां उड़ाई गई थीं। हज़ारों ही लोगों को जेल में डाल दिया गया था। सभी संवैधानिक अधिकार दरकिनार कर दिए गए थे, जिसका खामियाजा बाद में इंदिरा गांधी को भुगतना पड़ा था और कांग्रेस आज तक अपनी छवि पर लगे उस धब्बे को मिटाने में सफल नहीं हुई। उसी ही समय संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द जोड़े गए थे। आपात्काल के बाद हुए चुनावों में देश में पहली बार जनता पार्टी की ़गैर-कांग्रेसी सरकार बनी थी। उसके बाद भी ज्यादातर केन्द्र में मिली-जुली सरकारें अस्तित्व में आती रहीं। 2014 में भाजपा की बहुसंख्या वाली जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनी थी। भाजपा सरकार के 2014 से 2024 तक के दो कार्यकालों में भाजपा का दबदबा ज़रूर बना रहा परन्तु 2024 के लोकसभा चुनावों के साथ आरम्भ हुए तीसरे कार्यकाल में आज चाहे नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री हैं परन्तु लोकसभा में भाजपा की स्थिति पहले से काफी कमज़ोर दिखाई दे रही है और उसे अन्य बड़ी विपक्षी पार्टियों का सहारा लेने के लिए विवश होना पड़ रहा है।
भाजपा हमेशा स्वयं सेवक संघ की ओर देखती रही है और उससे शक्ति भी लेती रही है। स्वयं सेवक संघ भी भाजपा सरकार के पहले दो कार्यकालों के दौरान अपने एजेंडों को पूरा करवाने के लिए यत्नशील रहा है। ऐसा करते हुए चाहे देश में साम्प्रदायिक तनाव बढ़ता रहा है, जिसकी तपिश आम लोगों तक भी पहुंचती रही है। चाहे आपात्काल के समय 42वें संशोधन द्वारा संविधान में कई और भी लोकतांत्रिक विरोधी और न्यायपालिका की आज़ादी विरोधी धाराएं संविधान में शामिल की गई थीं, परन्तु उन्हें बाद में मोरारजी देसाई के नेतृत्व में बनी सरकार ने 43वें संशोधन द्वारा हटा दिया था, परन्तु उपरोक्त दो शब्द संविधान का हिस्सा बने रहे। भाजपा की ओर से कई बार उल्टे-सीधे ढंग से इन्हें अदालतों के सामने चुनौती दी गई परन्तु सुप्रीम कोर्ट तक ने इन शब्दों को भारतीय संविधान की भावना के अनुकूल माना है। संविधान की प्रस्तावना में न्याय, आज़ादी, समानता और भाईचारक सांझ पर बल दिया गया है। इन दोनों शब्दों का सारांश भी यही है। पिछले दिनों आर.एस.एस. के सचिव दत्तात्रेय हंसबोले ने आपात्काल के विरोध में किए गए एक समारोह में संविधान की प्रस्तावना से ‘समाजवाद’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ आदि शब्दों को हटाने की मांग की थी, जिसकी देश की लगभग ज्यादातर पार्टियों ने कड़ी आलोचना की है, इनमें कांग्रेस, वामपंथी पार्टी, राष्ट्रीय जनता दल और अन्य पार्टियां शामिल हैं।
राहुल गांधी ने स्पष्ट शब्दों में आर.एस.एस. पर यह आरोप लगाया है कि उसे भारतीय संविधान नहीं चाहिए, अपितु मनु स्मृति चाहिए। आज ज्यादातर भाजपा नेता इन शब्दों को आपात्काल की देन कहने लगे हैं। हम समझते हैं कि ऐसा करके एक बार फिर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ देश में अनावश्यक तनाव पैदा करने का यत्न कर रहा है। इस बात पर आश्चर्य ज़रूर होता है कि भाजपा ऐसे शब्दों पर आपत्ति व्यक्त करने लगी है, जो हमारे संविधान की मूल भावना पर आधारित हैं। भाजपा का उद्देश्य उन सभी को धूमिल करने का प्रतीत होता है, जो देश में कांग्रेस के लम्बे शासन के समय में हुआ था। इसलिए सितम्बर, 2023 में नये संसद भवन की इमारत में संविधान की दो कापियां रखी गई थीं, उनकी प्रस्तावना में ‘समाजवाद’ और ‘धर्म-निरपेक्ष’ शब्द नहीं थे,  ताकि बाद में जोड़े गए इन शब्दों के प्रति टकराव बना रहे।
प्रधानमंत्री मोदी ‘सब का साथ, सब का विकास’ की लगातार बात करते रहे हैं, यह शब्द उनकी इस भावना का प्रतिनिधित्व भी करते हैं। फिर भी भाजपा इन शब्दों पर त़ूफान खड़ा करने का यत्न क्यों कर रही है। शायद हमें इस बात को समझने के लिए अभी और समय लगेगा।

—बरजिन्दर सिंह हमदर्द

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