मौत से पहले मरना
छक्कन कभी मिल जाते हैं, तो बेढंगे सवाल करते हैं। आज मिले तो हमें देख कर हैरान हो गए। —अरे ज़िंदा हो तुम अभी? हमने तो सोचा था कभी के मर खप गये?सवाल सुना तो हैरान हो गए। हां, क्या ज़िन्दा हैं हम? मन ने पूछा। हर कदम पर ज़िन्दगी की खुतरानियां झेलते हुए, हमें तो कभी एहसास ही नहीं हुआ, कि हम अभी तक ज़िन्दा हैं।
लोगों ने तो मुर्दों में हमारी गिनती पहले से ही कर दी थी। अब चलते-फिरते आदमी के ज़िन्दा लाश मानने पर भी सवाल होने लगे।
—हां, भाईजान इस देश के औसत आदमी की तरह हम भी रियायती अनाज की रोटी का बंटना अगले पांच बरसों के लिए बढ़ जाने की घोषणा से अपनी रुकी हुई सांस का फिर से आना-जाना महसूस करने लगे थे।
देश के भाग्य विधाताओं ने यहां बरसों से गम्भीर होती हुई बेकारी की समस्या का हल निकाल लिया है। हमें रोज़गार मांगने वाली खिड़कियों के बाहर लगी कतारों से हटा कर रियायती राशन की दुकानों के बाहर खड़ा कर दिया है। क्रांति के नाम पर जो ‘जैसा है वैसा ही रहे’ का स्वीकार देकर एक नया पाठ पढ़ा दिया है जिसमें हम साल-दर-साल उसी बदहाल हालत में जीने का उत्सव मनाना भी सीख गए हैं। इस उत्सव में हम बिना काम किये मुफ्त या कम दरों में मिल जाने वाली वस्तुओं को स्वीकार करते हुए चिरन्तन उपकृत होने का मान रखना सीख गए हैं।
यहां बाज़ार दर के मुकाबले कौड़ियों के भाव बरसों से मिलने वाले अनाज वितरण की तिथि के बढ़ जाने से हम वह संतोष पाते हैं, जो जन-कल्याण के नाम पर हम में भीख वृत्ति बांटता है, सड़कों पर राज्य परिवहन की बसों में मुफ्त यात्रा कभी बेटिकट हो जाने का अपराध हमारे बड़े बूढ़े करके देश पर उपकार करते थे। आज यह वृत्ति संस्थागत हो जाने का संदेश देती है। बेशक इसे हमने जन-कल्याण या जन-विकास का सभ्य नाम दे दिया है, और लोगों के घरों में रोशनी देने वाली बिजली का इकाइयों को भी मुफ्त करने का संदेश दे रहे हैं। गाहे-बगाहे अपने मुंह मिया मिट्ठू बनने के निनाद की तरह यहां घोषणा कर दी जाती है कि हम कभी दुनिया में ग्यारहवीं शक्ति थे, फिर पांचवीं बड़ी आर्थिक शक्ति बन गए। पिछले दिनों कह दिया गया कि हम चौथी बड़ी आर्थिक शक्ति बन गए हैं, और अब तीसरी शक्ति बन जाने की राह पर हैं। तब हमसे ज्यादा ताकतवर केवल अमरीका और चीन रह जाएंगे।
सच जानिये आज़ादी की शताब्दी मनाने के अवसर पर इन दोनों देशों को पछाड़ देने का सपना भी हम देशवासियों में बांट दिया गया है। सपने बांटने में हम माहिर हैं। जैसे कोई दुकानदार किसी आधी-अधूरी चीज़ को बेच देने के बाद उसको बदल देने में परहेज़ नहीं करता, उसी तरह ही हम एक सपने के खण्डित हो जाने के बाद उसे दूसरे सपने से बदलने में परहेज़ नहीं करते।
इस तरह ऊपर बैठे हम लोगों को नई ज़िन्दगी का सन्देश देते हैं। वह इसे मरने से पहले ही एक और मौत मान लें तो यह उनकी किस्मत। हम तो नई ज़िन्दगी के बनावटी एहसास जैसी अपनी नई-नई परियोजनाओं की घोषणा से गरीब-गुरबा को चमत्कृत करते रहते हैं। इन घोषणाओं में एक अजब नाटकीयता रहती है, जैसे हिन्दी की रिकार्ड तोड़ फिल्म शोले के संवादों में एक अजब नाटकीयता रहती है।
मंच से हमारे भाग्य निर्माता पूछते हैं, ‘कितने आदमी थे?’ भीड़ जवाब देती है ‘सरदार एक सौ बयालीस करोड़’ तो जवाब मिलता है, ‘ताली बजा। तुम दुनिया में सबसे बड़ी आबादी वाला देश बन गए। अब सौ साल पूरे करोगे, तो दुनिया की सबसे बड़ी शक्ति वाला देश बन जाओगे।’
तब मरने से पहले ही मरे हुए लोगों की आबादी महसूस करती है, हां ज़िन्दा तो हैं हम। रियायती राशन को मुफ्त लंगरों में तबदील किया जा रहा है और दुनिया के बड़े-बड़े सर्वेक्षणों ने हमारी आबादी को सबसे बड़ी मुफ्तखोर आबादी करार दे दिया। यहां आधे लोग जो काम करते हैं, उन्हें उसका कोई भुगतान नहीं मिलता। यहां नारी सशक्तिकरण की बातें होती हैं, तो कोविड जैसी महामारी में जब कामगारों की नौकरियां छिन जाती हैं, तो उनमें बेकार हो गई औरतों में से सबसे कम औरतों को दोबारा नौकरी देने का जुगाड़ होता है।देश की काम करने योग्य युवा-शक्ति में से आधे लोग बेकार बैठे हैं और उन्हें बरस में सौ दिन काम दे सकने वाली मनरेगा को भी अशक्त बनाया जा रहा है, क्योंकि रियायतों की रेवड़ियां बांटने वाली घोषणाएं चुनावों के अवसर पर राजनीतिक दलों के चुनावी एजेंडों में शामिल हो गई हैं।
बेशक इस बीच देश ने बहुत तरक्की कर ली है। नगर महानगर बन गए, और ज़मीनों पर अपने असरो रसूख से अतिक्रमण करने वाली इमारतें बहु-मंज़िला हो गईं। शहर स्मार्ट हो गए, और इनके क्षितिजों पर कूड़े के पहाड़ खड़े होकर आम आदमी को पहाड़ यात्रा का भ्रम देने लगे। पचहत्तर बरस बीते तो देश ने अमृत महोत्सव मनाया, इस घोषणा के साथ कि अब बजट में पूंजी निवेश बढ़ा कर स्थायी विकास की शुरुआत की जाएगी जो सौ साल बीतने के बाद अच्छे दिनों में तबदील हो जाएगी, ‘जब आप सब के खातों में पन्द्रह-पन्द्रह लाख रुपए आ जाएंगे’। इसका वायदा बहुत पहले किया गया था, चलो पूरा तो हुआ। मरने से पहले मर गए लोगों की भीड़ सोचती है, और एक कभी न खत्म होने वाले इंतज़ार में लग जाती है।