आपात्काल से किसी ने कोई सबक नहीं सीखा

हिंदी के विद्रोही कवि बाबा नागार्जुन ने सत्तर के दशक में एक कविता लिख थी जिसे हम सब भूल चुके हैं। आज उस कविता को याद करना ज़रूरी हो गया है। कविता कुछ इस प्रकार थी : 
खिचड़ी विप्लव देखा हमने,
भोगा हमने क्रांति विलास। 
अब भी ़खत्म नहीं होगा,
क्या पूर्ण क्रांति का भ्रांति विलास। 
क्रांति विलास में भ्रांति विलास,
भ्रांति विलास में क्रांति विलास। 
आपात्काल लगे हुए 50 साल हो चुके हैं। इस कविता की प्रासंगिकता कायम है। नागार्जुन को भी आपात्काल में जेल जाना पड़ा था। उन्हें उम्मीद थी कि जनवाद का सूरज कभी न कभी ज़रूर उगेगा लेकिन वे जयप्रकाश आंदोलन की सम्पूर्ण क्रांति की दावेदारियों से प्रभावित नहीं थे। आज उनकी कविता की कही गई एक-एक बात साबित हो रही है। वास्तव में सम्पूर्ण क्रांति एक खिचड़ी विप्लव ही निकली। क्रांति के नाम पर वह एक भ्रांति विलास ही था। 
इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में अपनी कुर्सी बचाने के लिए थोपे गये आपात्काल की जितनी निंदा की जाए, उतनी कम है। मैं, मेरे पिता और मेरा परिवार भी आपात्काल में हुए राजनीतिक उत्पीड़न का शिकार रहा है लेकिन क्या आपात्काल से हमने, हमारे राजनेताओं ने और हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली ने पिछले पचास साल में कोई सबक सीखा है? इस सवाल का जवाब आपात्काल में जेल गये नेताओं और पत्रकारों के व्यक्तिगत अनुभव से पैदा हुई तल़्खी से परे जाता है। हमें कभी नहीं भूलना चाहिए कि आपात्काल लगाने की नौबत जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व में चले 1974 के सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन की बदौलत आई थी। इस आंदोलन के मर्म में लोकतांत्रिक राजनीतिक सुधारों का प्रश्न था। आज हम चाहें तो इस प्रश्न को इस रूप में समझ सकते हैं कि उस ज़माने के आंदोलनकारी छात्र और युवा पूछ रहे थे कि हमारा प्रतिनिधि कैसा होना चाहिए? अगर वह अच्छे प्रतिनिधि की कसौटियों पर खरा नहीं उतरता तो क्या जनता को अपने प्रतिनिधि की वापिसी का अधिकार नहीं देना चाहिए? क्या चुनाव में होने वाले राजनीतिक भ्रष्टचार को नियंत्रित करने वाली संहिताएं नहीं बननी चाहिए? क्या पार्टियों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं होना चाहिए? क्या सत्ता पाने के लिए धनबल और बाहुबल का उन्मूलन करने के संस्थागत बंदोबस्त नहीं होने चाहिए? क्या धर्म और जाति के आधार पर की जाने वाली वोटों की गोलबंदी पर प्रभावी रोक नहीं लगनी चाहिए? 
आपात्काल के बाद भी कांग्रेस 19 साल तक सत्ता में रही है। भाजपा पहले छह साल और पिछले 11 वर्षों को जोड़कर पूरे 17 साल तक सत्ता भोग चुकी है। हर तरह की क्षेत्रीय पार्टी किसी न किसी रूप में प्रदेश या केंद्र में कभी न कभी सत्ता प्राप्त कर चुकी है। क्या इनमें से कोई भी पार्टी आज कह सकती है कि उसने जयप्रकाश आंदोलन द्वारा उठाये गये उक्त सवालों पर कभी ़गौर किया है, या उनके आधार पर अपने घोषणा-पत्र बनाये हैं? वास्तविकता में जो हुआ, वह उस आंदोलन के शब्दों और भावनाओं का ठीक उल्टा है। पिछले पचास साल में भारतीय लोकतंत्र की क्वालिटी में लगातार गिरावट आई है। 1975 में पक्ष हो या विपक्ष, चुनाव आयोग एवं अन्य वैधानिक संस्थाओं की निष्पक्षता पर कोई संदेह नहीं करता था। पत्रकार का मुख्य काम सत्ता से सवाल पूछना था, न कि वह उसे क्लीन चिट देते हुए विपक्ष को कोने में धकेलता हुआ दिखता था। अर्थव्यवस्था के जो भी आंकड़े होते थे, उन पर कोई संदेह नहीं करता था। आपातकाल के महीनों को छोड़ दिया जाए तो संसद में कानून बनाने की प्रक्रिया अधिक लोकतांत्रिक और स्वस्थ विचार-विमर्श पर आधारित थी। विपक्ष-मुक्त भारत बनाने के दावे खुले आम नहीं किये जाते थे। कौन जनता था कि कभी ऐसे दावे भी होंगे कि भारत तो हिंदू राष्ट्र है ही, बस उसे घोषित करने की देर है। कॉरपोरेट पूंजी खुले आम सत्ता की संरचनाओं को नियंत्रित करते हुए नहीं देखी जाती थी। पार्टियां अपना सांगठनिक विस्तार निर्लज्जतापूर्वक कराये जाने वाले दलबदल के ज़रिये नहीं करती थीं। एक राज्यसभा चुनाव में सौ करोड़ से भी ज्यादा खर्च किये जाएंगे, इसकी तब कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। राजनीति से जुड़े प्रभावशाली लोग सेक्स और हिंसा के प्रकरणों में खुले आम लिप्त दिखाई देंगे, ऐसा सोचना भी मुश्किल था। 
क्या यह अजीब नहीं लगता कि लोकतंत्र के चौतऱफा विकृतिकरण के इस भीषण दौर में आपात्काल के दौरान जेल गये लोग स्वयं को नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के ़फरिश्ते के तौर पर पेश करने की जुर्रत कर रहे हैं? जो लोग तब जेल में थे (चाहे वे पत्रकार हों या नेता), उन्होंने लोकतंत्र को समृद्ध करने की दिशा में एक भी ़कदम नहीं उठाया है। दूसरे, आपात्काल का जो राजनीतिक इतिहास पेश किया जा रहा है, वह भी तथ्यात्मक दृष्टि से सही नहीं है। 1977 में इंदिरा गांधी अलोकप्रिय ज़रूर थीं लेकिन केवल उत्तर भारत में। दक्षिण भारत ने उस चुनाव में कांग्रेस को डेढ़ सौ से ज्यादा सीटें प्रदान की थीं। सत्ताम्युत हो जाने के बावजूद कांगे्रस को 34.52 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे। यानी, 2014 में भाजपा की बहुमत से हुई जीत से भी अधिक। ढाई साल बाद वह 353 सीटें जीत कर सत्ता में लौट आई। उसे 42.69 प्रतिशत वोट मिले जो भाजपा को आज तक प्राप्त नहीं हुए हैं। 
ये आंकड़े हमें असहज कर देने वाला एक सवाल उठाते हैं। क्या वास्तव में देश की जनता ने 1977 में नागरिक आज़ादियों के छिन जाने से नाराज़ होकर वोट दिया था? क्या वह वोट आपात्काल विरोधी था, या उसका चरित्र महज़ नसबंदी विरोधी था? इस ह़क़ीकत से इंकार नहीं किया जा सकता कि कांग्रेस केवल उन्हीं इलाकों में हारी थी जहां जबरिया नसबंदी कार्यक्रम चलाया गया था। इसी से जुड़ा हुआ एक व्यापक प्रश्न है कि क्या आम लोगों को अपनी राजनीतिक आज़ादियां उतनी ही और उसी तरह से प्यारी हैं जिस तरह से हम सिद्धांतत: मानना पसंद करते हैं? 
सच्ची बात तो यह है कि आपात्काल से किसी ने कोई सबक नहीं सीखा। न उन्होंने जिन्होंने लगाई थी, न उन्होंने जिन्होंने तथाकथित दूसरी आज़ादी के लिए संघर्ष किया था। अभी भी म़ौका है कि पचास साल बाद आपात्काल के कड़वे अनुभव की रोशनी में हम अपनी लोकतांत्रिक संहिताओं को दोबारा लिखने पर गम्भीरता पूर्वक विचार करना शुरू कर दें। अगर हमने अभी भी ऐसा न किया और सहभागी लोकतंत्र बनाने की तरफ नहीं बढ़े तो हमारा लोकतंत्र नाममात्र का रह जाएगा। चुनाव के ज़रिये सत्ताएं बनती-बिगड़ती रहेंगी, लेकिन लोकतंत्र एक आत्माविहीन शरीर की तरह ही जीवित रहेगा। 

लेखक अम्बेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में प्ऱोफेसर और भारतीय भाषाओं के अभिलेखागारीय अनुसंधान कार्यक्रम के निदेशक हैं।

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