साहित्य का नोबेल पुरस्कार दिये जाने के सरोकार

अब्दुर्रजाक गुरनाह अल-किंदी जब जांजीबार में रहते थे तो उन्होंने लेखक बनने की कभी कल्पना भी नहीं की थी। लेकिन जब वह इंग्लैंड में एक शरणार्थी के रूप में रहने लगे तो उन्हें उस ज़िंदगी की याद सताने लगी जो वह पीछे छोड़ आये थे। उन्हीं यादों को संजोने के लिए उन्होंने कलम उठा लिया। जांजीबार में क्रांति के बाद अरब मूल के नागरिकों का दमन किया जा रहा था और उन पर मुकद्दमे कायम किये जा रहे थे। इस सबसे बचने के लिए गुरनाह ने 1968 में इंग्लैंड में शरण ले ली थी। उनकी मातृभाषा स्वाहिली है, लेकिन उन्होंने अपने विचारों को व्यक्त करने के लिए अंग्रेजी को चुना। उनके उपन्यास व लघु कथाएं चूंकि उनके अपने जीवन-अनुभव से प्रेरित हैं, इसलिए उनका लेखन विस्थापन व उसके दर्द के इर्दगिर्द ही घूमता है। 
साल 2004 के अपने एक लेख में गुरनाह ने लिखा, ‘एक लेखक के लिए दूरी इस तरह से मददगार हो सकती है कि वह अपनी एक कल्पना बंद संसार के तौरपर करे और दूसरा सुझाव यह कि विस्थापन उसके लिए आवश्यक हो। लेखक एकांत में अच्छे कार्य की रचना इसलिए कर पाता है क्योंकि तब वह उन जिम्मेदारियों व आत्मीयताओं से मुक्त होता है जो सत्य को खामोश या हल्का कर देती हैं।’ अत: यह आश्चर्य नहीं है कि गुरनाह के लेखन में ‘उपनिवेशवाद के प्रभावों और संस्कृतियों व महाद्वीपों की खाई के बीच एक शरणार्थी की हालत का सीधा व दयापूर्ण चित्रण’ मिलता है, जैसा कि स्वीडिश अकादमी ने 7 अक्टूबर को वर्ष 2021 के लिए गुरनाह को साहित्य का नोबेल पुरस्कार देने की घोषणा करते हुए कहा है।
इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि गुरनाह के कार्य में उप-निवेशवाद और शरणार्थी अनुभव की त्रासदी मुख्यत: है। लेकिन उनके उपन्यासों में शरणार्थियों की आम व प्रचलित धारणा की व्याख्या नहीं है बल्कि वह हमें उस पूर्वी अफ्रीका में ले जाते हैं जो सांस्कृतिक दृष्टि से विविध है और जिससे अधिकतर शेष संसार परिचित नहीं है। गुरनाह के अब तक 10 उपन्यास और अनेक लघु कथाएं प्रकाशित हुई हैं। वह अपने लीक से हटकर लिखे गये उपन्यास ‘पैराडाइज’ (1994) के लिए अधिक विख्यात हैं, जिसे दोनों बुकर प्राइज (फिक्शन) व व्हिटब्रेड प्राइज के लिए शोर्ट लिस्ट किया गया था। इस उपन्यास को उन्होंने प्रथम विश्व युद्ध के दौरान गुलाम पूर्वी अफ्रीका में सेट किया है। उनके कुछ अन्य प्रमुख उपन्यास हैं ‘बाई द सी’ (2001), ‘डेजर्शन’ (2005) आदि। ‘बाई द सी’ को बुकर प्राइज के लिए लांग लिस्ट और लॉस एंजेल्स टाइम्स बुक प्राइज के लिए शोर्ट लिस्ट किया गया था। इस उपन्यास के लिए उन्हें 2007 में फ्रांस में आरएफआई विटनेस ऑफ द वर्ल्ड एवार्ड मिला था। गुरनाह ने ‘ए सेज ऑन अफ्रीकन राइटिंग’ के दो खंडों का सम्पादन किया है। वह ‘ए कम्पैनियन टू सलमान रुश्दी’ (2007) के सम्पादक हैं। 1987 से वह ‘वासाफिरि’ के कंट्रीब्यूटिंग एडिटर हैं। वह अनेक पुरस्कारों के जज भी रहे हैं, जिनमें केन प्राइज फॉर अफ्रीकन राइटिंग और बुकर प्राइज़ भी शामिल हैं। गुरनाह को 2006 में रॉयल सोसाइटी ऑफ  लिटरेचर का फेलो चुना गया था। 
गुरनाह का जन्म 20 दिसम्बर, 1948 को जांजीबार सल्तनत में हुआ था, जोकि वर्तमान में तन्जानिया का हिस्सा है। जांजीबार क्त्रांति में जब अरब मूल के नागरिकों का दमन होने लगा तो वह 1968 में शरणार्थी के रूप में इंग्लैंड आ गये। इस बारे में उन्होंने एक बार लिखा था, ‘मैं इंग्लैंड उस समय आया था जब शरणार्थी जैसे शब्दों का अर्थ आज जैसा नहीं था। आज आतंकी राज्यों से अधिक लोग भाग रहे हैं और संघर्ष कर रहे हैं।’ गुरनाह ने पहले क्त्राइस्ट चर्च कॉलेज, कैंटरबरी में शिक्षा प्राप्त की, जिसकी डिग्री उस समय यूनिवर्सिटी ऑफ  लंदन प्रदान करती थी। फिर वह यूनिवर्सिटी ऑफ केंट चले गये, जहां 1982 में उन्होंने ‘क्राइटेरिया इन द क्रिटिसिज्म ऑफ  वेस्ट अफ्रीकन फिक्शन’ में पीएचडी की डिग्री हासिल की।
 1980 से 1983 तक वह नाइजीरिया की बायेरो यूनिवर्सिटी कानो में लेक्चरर रहे। इसके बाद वह यूनिवर्सिटी ऑफ केंट के अंग्रेजी विभाग में अपने रिटायरमेंट तक प्रोफेसर रहे। स्वीडिश अकादमी का कहना है कि उपनिवेशवाद के बाद के जो लेखक हैं, उनमें गुरनाह अधिक विख्यात हैं, वह अति दयापूर्णता के साथ पूर्वी अफ्रीका में उपनिवेशवाद के प्रभावों और उखड़े व प्रवासी व्यक्तियों की व्याख्या करते हैं। 
-इमेज रिफ्लेक्शन सेंटर