किसानों द्वारा किये गये अनुसंधानों को भी महत्त्व दिया जाये


कृषि अनुसंधान एवं नई तकनीकों भीतरी गांवों में नहीं पहुंच रहीं। छोटे व सीमांत किसान इससे लाभ नहीं उठा रहे। कृषि विज्ञान तथा विकास के लिए आईसीएआर-भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान द्वारा स्थापित कम्युनिटी मोबिलाइज़ेशन सोसाइटी के अनुसार अनुसंधानकर्ताओं द्वारा विकसित कृषि तकनीकें बहुत कम किसानों तक पहुंच रही हैं। अधिकतर तकनीकें अनुसंधान संस्थाओं तथा कृषि विश्वविद्यालयों तक ही सीमित रह जाती हैं।  कृषि प्रसार सेवा का ढांचा अधिक प्रभावशाली नहीं रहा। बहुत-से पद खाली पड़े हुए हैं। कृषि प्रसार कर्मचारी एवं अधिकारी कागज़ी कार्रवाई तथा विभिन्न कृषि क्षेत्रों में नियमों का पालन करवाने में ही व्यस्त रहते हैं। कृषि विज्ञान केन्द्र जो स्थापित किये गये हैं, उनमें से हर ज़िले में मात्र एक है, जो इस सेवा की पूर्ति नहीं कर सकता। गत शताब्दी के 6वें-7वें दशक में तत्कालीन मुख्यमंत्री स्व. प्रताप सिंह कैरों ने ब्लाक स्तर पर जो एक खिड़की से किसानों को हर प्रकार की सेवा उपलब्ध करवाने तथा ज्ञान देने हेतु जो ढांचा बनाया था, वह बिखर चुका है। नये बीज तथा तकनीक प्रत्येक गांव तथा किसान तक न पहुंचने के कारण गांवों तथा किसानों के उत्पादन में भारी अंतर हैं। 
स्पष्ट तौर पर नई किस्म के बीज तथा तकनीकें कुछ चुनिंदा किसानों तक ही सीमित हैं, परन्तु किसानों ने अपनी कृषि समस्याओं का समाधान करने तथा उत्पादन बढ़ाने हेतु अपने अनुभव एवं परम्परागत ज्ञान के आधार पर तथा कई तकनीकें विकसित करके अपना ली हैं, जो सफल हैं, परन्तु वैज्ञानिकों एवं विशेषज्ञों ने इन्हें वैज्ञानिक रूप देकर इतनी सिफारिश नहीं की जिस कारण यह तकनीकें चुनिंदा किसानों तक ही सीमित रह गई हैं। यह किसान आधारित अनुसंधान भी कृषि वैज्ञानिकों के अनुसंधान से कम महत्व वाली नहीं। यदि इस खोज को परख करके कृषि विश्वविद्यालय इन सफल तकनीकों को किसानों को सिफारिश करें तो उनके कृषि खर्च कम हो सकते हैं और उत्पादन बढ़ सकता है। ऐसा करना कृषि को दीर्घकालीन बनाने में सहायक होगा। कई स्थानों पर यह ज्ञान परम्परागत है जो पैतृक चला आ रहा है  और इसमें लगातार सुधार होता रहा है। ये तकनीकें स्थानीय वातावरण एवं हालात के अनुकूल होती हैं तथा विश्वविद्यालय  व अन्य संस्थाओं द्वारा किये गये अनुसंधान का मुकाबला करती हैं। इस संबंधी गांवों में आम बात प्रचलित है कि यदि किसी बुज़ुर्ग किसान का निधन हो जाता है तो कृषि ज्ञान की एक लाइब्रेरी समाप्त हो जाती है। किसानों द्वारा अनुसंधान कर विकसित की गई नरमे की बीकानेरी किस्म एक सर्वोत्तम उदाहरण है, जिसे विभिन्न नामों के अधीन कपास पैदा करने वाले राज्यों के किसानों ने व्यापक स्तर पर अपनाया। इस किस्म की काश्त कपास के अधीन काश्त किये जा रहे रकबे में से विशाल रकबे पर की गई। एक किसान ने गेहूं ‘बड़बड़’ किस्म तैयार की, जो किसी कृषि विश्वविद्यालय ने आज़माइश करके सिफारिश नहीं की, परन्तु किसान इसके लम्बे बालू होने के कारण इसके अधिक उत्पादन से वर्षों तक लाभ उठाते रहे। इस प्रकार कई किसानों ने सरसों, फूलगोभी तथा प्याज़ों की नई किस्में विकसित कीं जिन्हें कुछ किसानों (जिन्हें इनके बारे में जानकारी प्राप्त हुई) ने लाभ उठाया। प्याज की बिजाई से पहले बैड्डों पर राख डालने से प्याज़ों की गुणवत्ता में काफी सुधार पाया गया और फसल का विकास अधिक हुआ। धान की पौध निमोलियों (नीम के बीज) तथा राख के साथ मिला कर पानी में रख कर पौध से बीमारी रहित फसल ली जाती है। 
गेहूं की फसल में गुल्ली डंडे की बड़ी गम्भीर समस्या है। कई स्थानों पर यह 60 प्रतिशत तक उत्पादन कम करने का कारण बनता है। कृषि विश्वविद्यालय द्वारा सिफारिश की गई नदीन नाशक दवाईयों के कई-कई स्प्रे किसानों ने किये परन्तु गुल्ली डंडा नहीं मरा। आई.सी.ए.आर.-आई.ए.आर. आई. से सम्मानित पंजाब सरकार के साथ कृषि करमन पुरस्कार भारत सरकार से प्राप्त करने वाले प्रगतिशील किसान राजमोहन सिंह कालेका (पटियाला) के नेतृत्व में कुछ किसान ‘सनकौर’ दवाई यूरिया के साथ मिला कर गेहूं की फसल पर छिड़काव कर रहे हैं जिससे गुल्ली डंडे पर काफी हद तक नियंत्रण पा लिया गया है। यह तकनीक किसानों ने स्वयं ही विकसित की है। ‘सनकौर’ दवाई आलुओं पर प्रयोग की जाती है और गुल्ली डंडे के लिए केवल 300 ग्राम यूरिये के साथ मिलाकर किसानों द्वारा फसल पर डाली गई जिस पर केवल 500 रुपये प्रति एकड़ खर्च आया। जबकि यूनिवर्सिटी द्वारा सिफारिश की गई स्टौंप दवाई डालने पर 2500 रुपये प्रति एकड़ खर्च करने के बाद फिर टोटल का भी छिड़काव करना पड़ा परन्तु गुल्ली डंडे का फिर भी नाश नहीं हुआ। कालेका अनुसार सैंकड़ों किसान ‘सनकौर’ दवाई को यूरिया के साथ मिलाकर गुल्ली डंडे का नाश करने के लिए सफलता के साथ प्रयोग कर रहे हैं। पंजाब कृषि यूनिवर्सिटी ने इस पर अभी तक कई खोज़ करके किसानों को सिफारिश नहीं की ताकि आम किसान इससे लाभ उठा सकें। 
कृषि विश्वविद्यालय द्वारा किसानों द्वारा किये गये अनुसंधानों को न पहचानने का किसान विरोधी असर भी होता है। आम किसान इन प्रयोगों और स्थानीय अनुसंधानों के लाभ से वंचित रह जाते हैं जबकि कई बार उत्पादक लूट का शिकार भी हो जाते हैं। 
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय और किसान भलाई एवं कृषि विभाग द्वारा किसानों के परम्परागत आधार पर किये गए कृषि अनुसंधान को पहचानने की योग्य नीति बनाई जानी चाहिए।